होली से एक दिन पहले होने वाला होलिका दहन बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि इसी दिन प्रहलाद की बुआ होलिका ने जब प्रहलाद को अग्नि में जलाने की कोशिश की तो वह उसके स्थान पर खुद ही जलकर भस्म हो गईं। उसी समय से होली के पर्व के ठीक एक दिन पहले यानी फाल्गुन महीने की पूर्णिमा तिथि को होलिका दहन के रूप में मनाया जाने लगा और इसे बुराई पर अच्छी का जीत मानकर पूरे देश में मनाया जाता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि भारत में कुछ ऐसे स्थान भी हैं जहां होलिका दहन नहीं किया जाता हैं? यहां के स्थानीय लोगों की धार्मिक आस्था और परंपराओं के कारण यह अनुष्ठान आज भी वहां वर्जित है।
ऐसे ही कुछ स्थानों में मध्य प्रदेश का हथखोह गांव, उत्तर प्रदेश का बारसी गांव और राजस्थान के कुछ क्षेत्र शामिल हैं, जहां अलग-अलग मान्यताओं के चलते सदियों से होलिका दहन नहीं किया जाता। इनमें से किसी जगह पर देवी के श्राप का भय है, तो कहीं भगवान शिव से जुड़ी कुछ पौराणिक कथा इसके पीछे का कारण मानी जाती हैं।
जब पूरा देश होली का उत्सव मना रहा होता है, तब मध्यप्रदेश का एक जिला है सागर जिसमें स्थित एक गांव में होलिका दहन करना वर्जित माना जाता है। मध्यप्रदेश के हथखोह नामक इस गांव में पिछले 400 वर्षों से होलिका दहन नहीं किया गया है, क्योंकि यहां के लोग इसे देवी के श्राप से जोड़ते हैं। गांव के निवासियों के अनुसार, गांव के घने जंगल में झारखंडन माता का एक प्राचीन मंदिर स्थित है।
ऐसी मान्यता है कि माता स्वयं यहां प्रकट हुई थीं और जंगल के बीच में उनकी एक छोटी प्रतिमा स्थापित की गई थी। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर होलिका माता की प्रतिमा स्थापित है और कई साल पहले जब इस गांव में होलिका दहन किया गया तब उस समय होलिका दहन के प्रयास में ही गांव में भीषण आग लग गई और उस आग ने अपने आस-पास के क्षेत्र को अपनी चपेट में ले लिया। वहां के स्थानीय लोगों ने इसे माता का प्रकोप माना और तुरंत मंदिर की शरण ली। वहां पहुंचकर उन्होंने झारखंडन माता से क्षमा याचना की और यह संकल्प लिया कि वे अब कभी भी गांव में होलिका दहन नहीं करेंगे। तब से लेकर आज तक, इस गांव में होलिका दहन नहीं किया जाता है।
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जब पूरे देश में होलिक दहन का पर्व धूम-धाम से मनाया जाता है, उस समय उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के बारसी गांव में इस अनुष्ठान को नहीं किया जाता है। यह परंपरा इस जगह कई वर्षों से चली आ रही है और इसके पीछे कई धार्मिक मान्यताएं जुड़ी हुई हैं। बारसी गांव के लोगों का मानना है कि यदि यहां होलिका दहन किया गया, तो भगवान शिव के चरण जल जाएंगे, इसलिए इस अनुष्ठान को न करने में भी सभी की भलाई है। हालांकि गांव की महिलाएं आज भी होली से एक दिन पहले इसके निकट स्थित टिकरोल गांव में जाकर होलिका दहन का करती हैं।
बारसी गांव में एक प्राचीन शिव मंदिर स्थित है, जिसे महाभारत काल का बताया जाता है। यह मंदिर इस अनूठी मान्यता से गहराई से जुड़ा हुआ है। कहा जाता है कि यह मंदिर कौरवों और पांडवों द्वारा निर्मित था, लेकिन किसी कारणवश भीम ने अपनी गदा से मंदिर के प्रवेशद्वार की दिशा पूर्व से पश्चिम की ओर मोड़ दी थी। इस घटना के बाद से गांव वालों का विश्वास है कि यदि यहां होलिका दहन किया गया, तो भगवान शिव के चरणों को नुकसान पहुंचेगा।
वैसे तो आमतौर पर लोग होलिका दहन करके त्योहार को धूम-धाम से मनाते हैं. लेकिन राजस्थान के एक गांव में पिछले 70 साल से होलिका दहन नहीं हुआ है। भीलवाड़ा जिले में बने हरणी गांव में एक अनोखी परंपरा से होली मनाई जाती है। इस गांव में चांदी की होली मनाने की प्रथा है। दरअसल इस गांव में 70 साल पहले होलिका दहन के समय आग लग गई थी जिसके कारण कई परिवारों में भी कलह हो गई। जिसके बाद गांव में लोगों ने निर्णय लिया कि इस दिन के बाद कभी भी इस गांव में होलिका दहन नहीं किया जाएगा। उसी समय से होलिका दहन न करने की परंपरा शुरू हुई और आज भी कायम है।
छत्तीसगढ़ के दुर्ग जिले का गोंडपेंड्री गांव ऐसा क्षेत्र है जहां सदियों से होलिका दहन नहीं होता है। इस स्थान को लेकर यह मान्यता है में कई सालों पहले होलिका दहन के दिन ही एक युवक को जिंदा जलाने की कोशिश की गई उसी समय से गांव में होलिका दहन न मनाने का निर्णय लिया गया। उसी फैसले की वजह से आज भी इस स्थान पर होलिका दहन न करने की प्रथा कायम है।
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झांसी के पास स्थित एक एरच नाम का कस्बा है, जिसे हिरण्यकश्यप का स्थान माना जाता है। ऐसी मान्यता है कि इसी गांव में होलिका प्रह्लाद को अपनी गोद में लेकर जलती चिता में बैठ गई थी। इस स्थान पर होलिका को देवी के रूप में पूजा जाता है और वहां होलिका दहन की मनाही होती है। मान्यता अनुसार आज भी वह एरच में वह अग्निकुंड मौजूद हैं, जिसमें होलिका की चिता जली थी।
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