मुजफ्फरनगर का एक ऐसा मामला सामने आया है जिसके बारे में सोचकर ही आपको अजीब लगने लगेगा। एक जेठ ने अपने भाई की पत्नी का रेप किया और जब पत्नी ने अपने साथ हुई इस जबरदस्ती के बारे में पति को बताया तब पति ने अपने भाई को गलत ठहराने की जगह पत्नी पर गुस्सा किया। गुस्सा इतना बढ़ गया कि उसका गला दबाकर मारने की कोशिश भी की। इतना ही नहीं, जब पति अपनी पत्नी का गला दबा रहा था तब रेपिस्ट वीडियो भी बना रहा था। पति ने रेप के मामले में अपनी पत्नी से कहा कि क्योंकि भाई ने उसके साथ गलत काम किया है, तो वह अब उसकी भाभी हो गई है।
मामला सुनकर शायद थोड़ा पेचीदा लग रहा होगा। यकीनन इस पूरे मामले में मानसिक और शारीरिक पीड़ा उस महिला को झेलनी पड़ी है जिसके साथ दुष्कर्म हुआ है, लेकिन उसके पति ने उसे ही दोषी ठहरा दिया। यह कोई पहली बार नहीं है जब किसी ऐसे मामले में लिए विक्टिम को दोषी ठहराया गया है। फिलहाल मुजफ्फरनगर वाले मामले में विक्टिम किसी तरह से हमले से बच गई और पुलिस की मदद भी ली गई। अब पुलिस दोनों आरोपियों को हिरासत में ले चुकी है।
लोगों ने तो हमारे देश में निर्भया के साथ हुए क्रूर अपराध को भी कहा था कि इसमें निर्भया की ही गलती थी। जब हमें पता है कि साफ तौर पर विक्टिम के साथ गलत हुआ है फिर भी उसे दोष देने की मानसिकता आखिर क्यों है हमारे मन में?
हमने इसके बारे में जानने के लिए फोर्टिस एस्कॉर्ट्स हार्ट इंस्टीट्यूट की सीनियर चाइल्ड और क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट और हैप्पीनेस स्टूडियो की फाउंडर डॉक्टर भावना बर्मी से बात की। डॉक्टर भावना ने हमें साइकोलॉजी के कुछ नियमों के बारे में बताया जिसकी वजह से लोग अपनी सहूलियत के हिसाब से विक्टिम को ही दोष देने लगते हैं।
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गलत धारणाएं :
हम खुद ही धारणा बना लेते हैं कि विक्टिम गलत है और यह समाज की मान्यताओं के आधार पर होता है। हमारे समाज में जेंडर, सेक्शुएलिटी, पावर डायनैमिक्स आदि बहुत कुछ देखा जाता है और लोग यह मानने लगते हैं कि असल में लड़की को घर के अंदर रहना चाहिए। वह अपनी गलती से यह दुख भोग रही है। जबकि असल मायने में हमें दोषी को गलत मानना चाहिए।
स्थिति को कंट्रोल करने की इच्छा:
साइकोलॉजी के हिसाब से हमारा दिमाग अपने आप को ही छलता है। किसी स्थिति के बारे में सोचकर अगर हम उसे कंट्रोल ना कर पाएं, तो दिमाग एक भ्रम बनाने लगता है। विक्टिम ब्लेमिंग इसी तरह का भ्रम है जो हमें बताता है कि अगर हमने कोई और काम किया होता, तो इस तरह का जुर्म ना हुआ होता। ऐसे ही विक्टिम ब्लेमिंग करने वाला व्यक्ति मानता है कि अगर लड़की घर के बाहर ना गई होती, तो ऐसा ना होता।
सांस्कृतिक कायदे :
हमारे देश में संस्कारों को बहुत माना जाता है, लेकिन कई मामलों में ये सांस्कृतिक कायदे गलत भी होते हैं। सांस्कृतिक कायदे कहते हैं कि लड़कियों को घरों के अंदर ही रहना चाहिए और सेक्शुअल हैरेसमेंट को रोकना उनकी जिम्मेदारी है। जब घर के अंदर ही लड़की के साथ गलत हो रहा है, तो भी उसे चुप रहने की सलाह दी जाती है। कहीं ना कहीं ये सांस्कृतिक कायदे ही जिम्मेदार हैं लड़की के साथ गलत होने के लिए।
डर और घबराहट :
अगर कोई गलत चीज होती है, तो हम उसे मानने से कतराते हैं। साइकोलॉजी में इसे डिनायल या इनकार कहा जाता है। हम इस बात को मानने के लिए तैयार ही नहीं हैं कि हमारे देश में महिलाओं के खिलाफ कितने अपराध होते हैं और विक्टिम ब्लेमिंग करना भी एक तरह का डिनायल ही है जिसमें हम खुद को सेक्शुअल वॉयलेंस की पहुंच से दूर मानते हैं।
मानसिक विरोधाभास:
जब हमारे सामने सेक्शुअल वॉयलेंस के सबूत आ जाते हैं, तो हम खुद ही विरोधाभास में चले जाते हैं। हमें दुनिया की बुराई सामने दिखने लगती है और हम परेशान हो उठते हैं। मानसिक तौर पर इस परेशानी को थोड़ा कम करने के लिए विक्टिम ब्लेमिंग शुरू की जाती है। यह साइकोलॉजी का एक पहलू हो सकता है।
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सामाजिक दबाव और शिक्षा:
स्कूल, कॉलेज और अन्य शिक्षा संस्थानों में भी यह सिखाया जाता है कि हर जेंडर के अपने अलग रोल हैं। अब विक्टिम ब्लेमिंग के लिए भी ऐसा ही है। हमें बचपन से यह सिखाया गया है कि खुद को बचाने का सबसे अच्छा तरीका है बाहर मत निकलो, अकेले मत बैठो, घर में पुरुषों से पर्दा करो क्योंकि एजुकेशन भी हमें कंसेंट और हेल्दी रिलेशनशिप के बारे में नहीं बताती है। यही है विक्टिम ब्लेमिंग का व्यवहार।
वॉयलेंस को नॉर्मल समझना:
जिस तरह से रेप और हिंसा की खबरें आए दिन मीडिया में दिखती रहती हैं, हम कहीं ना कहीं इसे अपने दैनिक जीवन का हिस्सा मान चुके हैं। विक्टिम ब्लेमिंग करने से हम इस गलत व्यवहार को जारी रखे हुए हैं।
दया की भावना खत्म हो जाना:
जिस तरह की भावनाएं हमारे अंदर हैं हम यह भूल चुके हैं कि असल में विक्टिम को भी तकलीफ हो रही है। हम खुद को उसके नजरिए से देख ही नहीं पाते। हमारे हिसाब से पावर, डायनैमिक्स, ट्रामा सब कुछ गलत है। यही कारण है कि विक्टिम ब्लेमिंग को हम सही मानने लगते हैं।
क्या वाकई हम बतौर समाज फेल हो रहे हैं? विक्टिम के बारे में ना सोचकर हम अपने लिए ही भविष्य में एक बहुत गलत उदाहरण सेट कर रहे हैं।
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