हमारे देश में संस्कृति और सभ्यता बहुत ही अनोखी है। यहां हर मोहल्ले के हर घर में अलग तरह का रिवाज हो सकता है। यहां कदम-कदम पर नियम और कायदे बदल जाते हैं, लेकिन अगर आपने गौर किया हो, तो हर रीति-रिवाज में महिलाओं का अहम योगदान होता है। सारे रिवाज तभी होते हैं जब महिलाएं इकट्ठा होती हैं। किस दिन कौन से भगवान को पूजा जाएगा और किस दिन कौन से भगवान को क्या भोग लगाया जाएगा इसे याद रखने का श्रेय भी महिलाओं का ही होता है। पर क्या कभी आपने सोचने की कोशिश की है कि इनमें से कई रिवाज ऐसे हैं जिन्हें हम बस निभाए जा रहे हैं। भारत रिवाजों का देश है, लेकिन उन रिवाजों की आड़ में सदियों से महिलाओं के साथ भेदभाव भी होता आ रहा है।
नहीं-नहीं मुझे गलत मत समझिए, मैं यहां पर इस बारे में बात नहीं कर रही हूं कि भारत में रिवाज ही नहीं होने चाहिए या इन्हें माना नहीं जाना चाहिए। मैं यहां उन गिने-चुने रिवाजों की बात कर रही हूं जो वाकई में अब बंद हो जाने चाहिए। हो सकता है आपमें से कई लोगों को लगे कि मेरी बातें गलत हैं, लेकिन गौर करिएगा कि क्या इन रिवाजों का ठीकरा महिलाओं के लिए सही है?
फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन
बोहरा मुस्लिम सुमादय में होने वाला फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन सही मायने में एक पिछड़ा हुआ रिवाज है जिसका देश ही नहीं दुनिया से हट जाना सही होता है। वर्ल्ड हेल्थ ऑर्गेनाइजेशन ने भी इस रिवाज को गलत ठहराया है। पुरुषों के खतने के मुकाबले महिलाओं के लिए यह प्रोसेस कई गुना ज्यादा खतरनाक हो सकता है। जेनिटल म्यूटिलेशन का मतलब है लड़कियों के जननांगों को क्षतिग्रस्त करना। इसके लिए ब्लेड, चाकू, कैंची किसी भी धारदार चीज का इस्तेमाल किया जा सकता है।
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यह रिवाज भले ही पुराना लगे, लेकिन अभी भी भारत सहित दुनिया के लगभग हर देश में इसके उदाहरण मिल जाएंगे। धार्मिक मान्यता के नाम पर यह रिवाज महिलाओं की वेजाइना के एक हिस्से को पूरी तरह से क्षतिग्रस्त करने का नाम ही है। इसे चार अलग-अलग तरीकों से किया जाता है जहां एक छोटे से हिस्से से लेकर पूरी आउटर लीबिया तक को काटा जा सकता है। फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन कैसे होता है उसके बारे में जानकारी अधिकतर लोगों को नहीं होती। कुछ गंभीर मामलों में तो वेजाइना को बाहर से सिल भी दिया जाता है जिससे लड़की की शुद्धता बरकरार रहे।
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आपको बता दूं कि यहां वर्जिनिटी का भूत लोगों के सिर पर इतना हावी रहता है कि उन्हें यह भी नहीं समझ आता कि इससे महिलाओं की सेहत पर कितना असर पड़ेगा। फीमेल जेनिटल म्यूटिलेशन का मेल जेनिटल म्यूटिलेशन की तरह कोई फायदा भी नहीं होता है। ऐसे में सिर्फ अपने फितूर के लिए महिलाओं को काट देना क्या सही है?
पीरियड्स में भेदभाव का रिवाज
आपने शायद कुछ समय पहले न्यूज में पढ़ा होगा कि भारत के चित्तूर के एक दूरदराज गांव में एक महिला की मौत पीरियड हट में हो गई। पीरियड हट मतलब वह झोपड़ी जहां पीरियड के समय महिलाओं को जाना होता है। चित्तूर का गांव हो या फिर असम का कोई शहर हमें इस बारे में जरूर सोचना चाहिए कि आज भी महिलाओं को पीरियड्स के दौरान बेसिक चीजें करने से भी मना कर दिया जाता है। उनके खाने-पीने की बात तो छोड़िए उन्हें सोने के लिए भी घर से अलग किसी और जगह जाना होता है।
इतना ही नहीं, उन्हें घर से बाहर भूसे और पत्तों से बनी झोपड़ी में हर तरह के मौसम का सामना करना पड़ता है भले ही वहां तूफान क्यों ना आ जाए। इस तरह के रिवाजों से किसका भला हो रहा है यह तो नहीं पता, लेकिन इससे नुकसान कितने लोगों का हो रहा है वह समझ आता है।
भला कौन सी शुद्धी हो जाएगी महिलाओं को अलग सुलाकर? कुछ समय पहले सूरत की एक इंफ्लूएंसर का वीडियो वायरल हुआ था जिसमें उसकी बेटी जमीन पर बैठकर खाना खा रही थी क्योंकि उसे पीरियड्स हो गए थे। पूरा परिवार डाइनिंग टेबल पर आराम से बैठा हुआ था। उस वीडियो को लेकर जब लोगों ने सवाल उठाए, तो रिवाज के नाम पर ही उस कृत्य को सही ठहराने की कोशिश की गई। पीरियड्स के समय जब किसी महिला को ज्यादा आराम की जरूरत होती है तब इस तरह से उसे आराम देने की जगह टॉर्चर करना कितना सही है? और क्या इस रिवाज को भगवान और शुद्धी के नाम पर जारी रखना सही है?
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विधवाओं का समाज से बहिष्कार
क्या आप वृंदावन की विधवाओं के बारे में जानते हैं? यहां आश्रम में कई ऐसी महिलाएं रह रही हैं जिन्होंने समय से पहले अपने पतियों को खो दिया और समाज ने उनका बहिष्कार कर दिया। चलिए मैं मान लूं कि अब यह रिवाज पुराना हो गया है, लेकिन क्या आपको नहीं लगता कि अब भी ऐसे कई रिवाज हैं जो महिलाओं के साथ निभाए जाते हैं। देश के कई हिस्सों में विधवा महिला का सिर मूंड दिया जाता है, चूड़ियां तोड़ने का रिवाज ना सिर्फ उस दुखी महिला के शरीर को चोट पहुंचा सकता है, बल्कि उसकी मानसिक स्थिति पर भी असर डाल सकता है।
किसी विधवा का सजना और सवरना आज भी समाज में गलत माना जाता है। किसी शुभ काम में उन्हें पीछे कर दिया जाता है और लोग पूजा-पाठ के दौरान भी उन्हें नहीं बुलाते। क्या कभी सोचा है कि ऐसा करना किसी महिला के मन पर क्या असर डाल सकता है। किसी पुरुष के साथ कभी ऐसा नहीं किया जाता और उसे कभी समाज का बहिष्कार नहीं झेलना पड़ता। पुराने जमाने में हो सकता है इस रिवाज का चलन सिर्फ इसलिए हो क्योंकि महिलाएं आत्मनिर्भर नहीं थीं और पति को अपना प्रोटेक्शन मानती थीं, लेकिन अब ऐसा होना समझ नहीं आता।
महिलाओं का उपवास रखना
करवा चौथ से लेकर तीज तक और अहोई अष्टमी से लेकर सावन तक लगभग हर महीने में कोई ना कोई त्योहार आ जाता है, लेकिन हर त्योहार महिलाएं ही मनाएं। हर बार वही भूखी रहें। पत्नी के उपवास रखने के कई रिवाज हैं, लेकिन पतियों के लिए ऐसा कुछ भी नहीं। पुराने जमाने के रिवाज शायद इसलिए होते थे क्योंकि पति लंबे समय तक घरों से बाहर रहते थे और घर में खाना-पानी भी ज्यादा नहीं होता था। पर अब इसका क्या मतलब है। क्या आपको लगता है कि यह बराबरी है?
ये तो थे कुछ ऐसे रिवाज जिनके बारे में इस स्टोरी को लिखते-लिखते याद आ गया, लेकिन आपको पता भी नहीं होगा कि देश के दूरदराज के इलाकों में रिवाज के नाम पर महिलाओं के साथ किस तरह का व्यवहार हो रहा है। आपकी इस बारे में क्या राय है? हमें कमेंट बॉक्स में बताएं। अगर आपको यह स्टोरी अच्छी लगी है, तो इसे शेयर जरूर करें। ऐसी ही अन्य स्टोरी पढ़ने के लिए जुड़ी रहें हरजिंदगी से।Imager Credit: Freepik/ Shutterstock
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