मैडम जी, पीरियड्स तोभगवान देते हैं, हम इससे बच नहीं सकते और सैनिटरी पैडशहरी लड़कियां इस्तेमाल करती हैं। ये हमारे लिए नहीं होते। हम इसके बारे में पति को बताएंगे तो हमें घर से निकाल दिया जाएगा।
यह पढ़कर आपको लग रहा होगा कि यह कौन सी सदी की बाते हैं। कुछ ऐसा ही आज से 10 साल पहले वड़ोदरा की 'वात्सल्य फाउंडेशन' की फाउंडर Swati Bedkar को भी लगा था। जब वे गुजरात के ग्रामीण क्षेत्रों की महिलाओं से मिली। पीरियड्सऔर सैनिटरी पैड के बारे में जब स्वति ने उनसे इस तरह की बातें सुननी तो वे हैरान रह गईं।
उन्हें लगा मानों 21 वीं सदी के स्वतंत्र भारत में वे गुलाम महिलाओं के आगे खड़ी हों, वो महिलाएं जिन्हें अपने अच्छे-बरे के लिए फैसले लेने का हक नहीं था । चौकाने वाली बात तो यह थी कि उन्हें पीरियड्सके बारे में भी पूरी जानकारी नहीं थी। पीरियड्स के दौरान उन्हें क्या करना है यह भी उन्हें अपने पति से पूछना पड़ता था ।
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स्वाति कहती हैं, ‘गवर्नमेंट से मिले एक प्रोजेक्ट को पूरा करने के लिए मैं गांव-गांव जाकर महिलाओं को education देने का काम करती थी। मुझे गाँव में मौजूद स्कूलों में बच्चियों को maths और science पढ़ाना होता था। मैं देखती थी कि मेरी क्लास में बीच-बीच में बच्चियां गायब हो जाती थीं और 4-5 दिन बाद आती थीं। एक दिन मैंने एक बच्ची से गायब होने का कारण पूछा तो उसने बताया कि periods में लड़कियां स्कूल नहीं आती हैं।क्या आप जानती हैं मैटर्निटी और सैनिटरी पैड में अंतर ?
स्वति को बच्ची की बात अजीब लगी मगर इससे आगे की कहानी ने तो स्वति को चौका ही दिया। स्वाति ने जब बच्ची से पीरियड्स के समय स्कूल न आ पाने की वजह पूछी तो उसने बताया कि, ‘खून बहता है तो स्कूल कैसे आएं। सब दूर भाग जाएंगे और घर पर भी डांट पड़ेगी।’ बच्ची ने यह भी बताया कि पीरियड्स के समय उनके पास ब्लीडिंग को रोकने के लिए कुछ भी नहीं होता और वह इसलिए राख और मिट्टी का इस्तेमाल करती हैं।
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गांव वालों को समझाने में करना पड़ा स्ट्रगल
यह बात स्वाति के लिए यह रोंगटे खड़े कर देने जैसी थी। उस गांव की महिलाओं के स्वास्थ को लेकर स्वाति की चिंता बढ़ गई थी। मगर स्वति को तब और भी हैरानी हुई जब उन्हें इस बात का अहसास हुआ कि गाँव की महिलाओं को इस बात से कोई दिक्कत नहीं थी की महीने के 5 दिन उन्हें पेनफुल तरीके से गुजारने पड़तें हैं ।पीरियड्स में ना करें इस तरह के सैनिटरी पैड का इस्तेमाल
स्वाति बताती हैं कि, ‘ मैंने महिलाओं को समझाया कि पीरियड्स में रेत का इस्तेमाल करने से उन्हे health issues हो सकते हैं और उन्हें पैड्स यूज करने को कहा। मगर वह pads को शहरी वस्तु कह कर समझने से इंकार कर देतीं।’
नहीं मानी हार
स्वाति ने हार नहीं मानी। उन्होंने गांव की औरतों से इस पर खुल कर बात की। इस बातचीत में उन्होंने गांवों के मर्दों को भी शामिल किया। मगर स्वाति की बात समझने की जगह गांव के आदमियों ने स्वाति पर उनकी महिलाओं को भड़काने का इलजाम लगा दिया। फिर भी स्वाति नहीं डरीं ।
वह कहती हैं, ‘ मैंने सोचा कि क्यों न इन औरतों को इन्हीं की भाषा में समझाया जाए। गाँव की औरतें गीत गा कर काम करती हैं इसलिए मैंने उनके लिए गीत लिखे और समझाने की कोशिश की।’ अच्छी बात यह थी कि इस बार स्वाति कि बात गाँव की महिलाओं को समझ आगाई। सैनिटरी पैड को चुनते वक्त इन 4 बातों का रखें ख्याल
कैसे बनाए सस्ते पैड्स
महिलाओं को स्वाति की बात समझ आई तो वे सभी सेनेटरी नैपकिन यूज करने के लिए तैयार हो गईं। मगर स्वाति के सामने अब ऐसे पैड्स तैयार करना एक चुनौती था जिसे कम लागत में तैयार किया जा सके। वे कहती हैं, ‘मैंने इंटेरनेट पर रिसर्च किया, तो पता चला कि कोयमबटूर के अरुणाचलम मोरुगनानाथाम सेनेटरी नैपकिन का एक ऐसा मॉडल तैयार किया है, जो सस्ता होने के साथ ही काफी इफेक्टिव भी है। मैंने उस मॉडल को समझा और गाँव की कुछ महिलाओं को भी समझाया और फिर पैड्स बनाने की ट्रेनिंग शुरू कर दी।
मिली सफलता
गांव के पुरुष अभी भी स्वाति से नराज थे। वह कई बार स्वाती और उनसे जुड़ी महिलाओं को परेशान भी करते थे। इसलिए स्वति ने एक यूनिट तैयर करने की सोची जहां आकर गांव की महिलाएं पैड्स बना सकती थी । अपनी सोच के मुताबिक वर्ष 2010 में स्वाति ने पहली यूनिट गुजरात के देवधरबारिया गाँव में शुरू कर दी। पैड्स बनने लगे और इस पैड्स का नाम रखा गया 'सखी'। इन पैड्स को महिलाएं यूज भी करने लगीं । मगर यह राह अभी आसान नहीं थी। यूज्ड पैड को डिसपोज ऑफ करना गांव की महिलाओं के लिए चुनौती बन चुका था। मगर इस कठिन डगर पर स्वाति का साथ दिया उनके हमसफर टेक्सटाइल इंजीनियर श्याम बेडेकर ने।
स्वाति बताती हैं, ‘हमने सखी के नाम से सेनेटरी नैपकिन बनाने शुरू कर दिये थे। महिलाओं को अच्छी सेहत के साथ रोजगार भी मिल गया था। मगर गाँव के मर्दों को डर था कि इस्तेमाल किए पैड्स गाँव में फसल न खराब करने लगें। उनका डर सही था। खराब पैड्स गाँव की मिट्टी को खराब कर सकते थे। ’
मगर श्याम बेडेकर के इंजीनियर दिमाग ने ऐसा होने से रोक लिया। उन्होने खास तनीक का इस्तेमाल कर चिकनी मिट्टी से सेनेटरी नैपकिन डिस्पोजल मशीन तैयार की। स्वाति बताती हैं, ‘यह मशीन न केवल ईको फ्रेंडली थी बल्कि इसकी लागत भी कम थी और गाँव वाले आसाने से इसे खरीद सकते थे।’सैनिटरी पैड्स के side effects के बारे में जानिए
वर्तमान समय में स्वाति के साथ लगभग 1000 महिलाएं जुड़ी हैं और अच्छी बात तो यह है कि अब महिलाओं के पति भी सेनेटरी नैपकिन बनाने में उनकी मदद करते हैं। इस तरह महीने भर में 1 यूनिट लगभग 30000 पैड्स तैयार कर लेती है। स्वाति कहती हैं, ‘सेनेटरी नैपकि के 1 पैक में 10 पैड्स होते हैं और इस पैक की कीमत 25 रूपय होती हैं। वहीं डिस्पोजल मशीन की कीमत 2500 रूपय है।’
वर्ष 2019, 6 दिसंबरको स्वाति ने दिल्ली के ओखला फेस-2 में भी एक नई यूनिट खोली हैं। यहां अभी 7 महिलाएं काम कर रही हैं। दिल्ली में जगह-जगह 'सखी' पैड्स के किऑस्क भी आपको नजर आ जाएंगे। यहां आपको एक पैड 3 रुपए का मिल जाएगा। इन पैड्स की बेस्ट बात यह है कि यह ऐसी चीजों से तैयार किए गए हैं जो वातावरण को नुकसान नहीं पहुंचाते। आज देशभर में स्वाति की 50 से भी अधिक यूनिट्स हैं। इतना ही नहीं 12 यूनिट्स जॉर्डन में भी हैं और 2016 में ही भूटान में नई यूनिट शुरू की है।स्वाति बेडकर हर महिला के लिए प्रेरणा का स्रोत हैं। उनके इस कार्य के लिए उन्हें कई अवॉर्ड्स से सम्मानित भी किया गया है। मगर, उनका संघर्ष किसी भी सम्मान से काफी बढ़ कर है। 8 मार्च को महिला दिवस है। हर महिला को स्वाति से प्रेरणा लेकर कुछ नया करने का संकल्प लेना चाहिए और बिना डरे आगे बढ़ना चाहिए।पीरियड्स की वजह से हो रही इस प्रॉब्लम से Shocked हैं भूमि पेडनेकर, पढ़ें Emotional Note
Image Credit:Swati Bedkar
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