
'तुझे नौकरी से निकलवा दूंगा। तू बिगड़ गई है!'
गायत्री जब यह शब्द सुनती हैं, तब लगता उन्हें है कि यह उन लाखों भारतीय महिलाओं की पीड़ा है, जो आज भी घर, समाज और रिश्तों की बंदिशों में कैद हैं।
17 साल की उम्र में एक लड़की को समझ आनी शुरू ही होती है, लेकिन उसे ससुराल, जिम्मेदारियों और 'पराया धन' के बोझ में धकेल दिया जाता है।
हमारे समाज में बेटियों को आज भी बोझ समझा जाता है। कम उम्र में शादी, कम बोलना, समझौता करना और चुप रहना, यही सभी चीजें सिखाई जाती हैं।
गायत्री भी इन्हीं संस्कारों के बीच पली, जहां उन पर सपनों से पहले सामाजिक नियम थोपे गए, लेकिन किसे पता था कि एक दिन इस लड़की के अंदर ऐसा साहस जगेगा, जो न सिर्फ उसकी जिंदगी बदलेगा, बल्कि 700 परिवारों के जीवन को रोशनी दिखाएगा। ‘16 Days of Activism against Gender-Based Violence’ के मौके पर हम आपके के लिए घरों को रोशन करने वाली गायत्री की इंस्पियरिंग जर्नी लेकर आए हैं।

हर साल 25 नवंबर से 10 दिसंबर तक दुनिया एक आवाज में बोलती है कि महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ हिंसा खत्म हो। इस बार यानी 2025 का थीम है कि सभी महिलाओं और लड़कियों के खिलाफ डिजिटल हिंसा को खत्म करने के लिए एकजुट हों।
यह याद दिलाता है कि हिंसा सिर्फ थप्पड़ या चोट नहीं होती। यह लड़की के फोन पर आने वाले गंदे मैसेज, सोशल मीडिया पर फैलाई गई अफवाहें, ऑनलाइन ट्रोलिंग, बदनाम करने की धमकियां, परिवार का दबाव, भावनात्मक तोड़फोड भी है। ये सभी डिजिटल हिंसा है।
गायत्री की कहानी इस अभियान का हिस्सा है, क्योंकि उनकी जिंदगी बताती है कि हिंसा घर की चारदीवारी से लेकर आज डिजिटल दुनिया तक फैली है।
गायत्री का बचपन गरीबी और संघर्षों में बीता। पिता शराब की लत के शिकार थे और मां अकेले ही चार बच्चों को संभालती थीं। पैसे भले कम थे, लेकिन मां की एक बात हमेशा गूंजती, 'मेरी बेटियां पढ़ेंगी और किसी भी हालत में।'
गायत्री 8वीं तक पढ़ पाईं। मां ने वादा किया कि शादी के बाद भी वह पढ़ाई जारी रख सकेगी।

17 साल की उम्र में गायत्री की शादी हो गई। शादी से पहले मां ने ससुराल वालों से वादा लिया था कि गायत्री की पढ़ाई नहीं रुकेगी। पति ने हामी भी भर दी थी, लेकिन ससुराल वालों की सोच बदलने को तैयार नहीं थी।
जब पति उन्हें स्कूल में दाखिला कराने ले गए, तब प्रिंसिपल ने उम्र के कारण पिता समझ लिया। ससुराल वालों ने ताने मारें, 'अगर लड़की पढ़-लिख गई, तो हाथ से निकल जाएगी।' इस तरह गायत्री की पढ़ाई एक बार फिर रुक गई।
गायत्री ने विद्रोह करने की कोशिश की, लेकिन उनके पति न एक नहीं सुनी। वह जल्द ही प्रेग्नेंट हो गईं और परिवार की जिम्मेदारियों में बिजी हो गईं। कुछ साल बाद, जब घर की आर्थिक स्थिति बिगड़ी, तब गायत्री ने पति से नौकरी करने की अनुमति मांगी। पति का जवाब था, 'नहीं, मैं अपनी पत्नी की कमाई नहीं खाऊंगा। तुम घर पर रहो और घर का काम करो।' उनकी मां ने भी समझाने की कोशिश नहीं की, बल्कि कहा, 'पति की बात मानो, समाज यही कहता है।'
धीरे-धीरे घर में विवाद, ताने और हिंसा बढ़ने लगे। गायत्री समझती थी कि गलत हो रहा है, लेकिन घर की और समाज की वर्षों पुरानी सीख उन्हें चुप रहने के लिए मजबूर करती रही।
कोविड महामारी वह पल था, जिसने गायत्री को वास्तविकता से जगा दिया। पति की नौकरी चली गई, खाने के लिए पैसे नहीं थे। ऐसे में उन्होंने पड़ोसियों से उधार लेकर बच्चों को खाना खिलाया। कभी-कभी तो ऐसा होता था कि रोटी में मिर्च डालकर खाते थे और रात गुजारते थे। उन्होंने पहली बार कहा कि मुझे काम करने दो और जवाब मारपीट और बदनामी की धमकी मिला, लेकिन इस बार गायत्री टूटी नहीं। उन्होंने मन में ठान लिया कि मेरे बच्चों का बचपन मेरे जैसा नहीं होगा।

2020 में गायत्री ने एक सेल्फ-हेल्प ग्रुप जॉइन किया और बीमार आर्थिक स्थिति का हवाला देकर पति से अनुमति ले ली। 2021 में उन्होंने फिर से पढ़ाई शुरू की और 2023 में 12वीं पास की।
2022 में वह TRI में कम्युनिटी रिसोर्स पर्सन बनीं, जहां उसे जेंडर, न्याय और महिलाओं के अधिकारों के बारे में ट्रेनिंग मिली। उन्हें एहसास हुआ कि जिस चीज को वह 'समाज का नियम' मानती आई हैं, वह असल में असमानता और अन्याय था। उन्होंने भारतीय संविधान और उसमें निहित अधिकारों के बारे में भी सीखा।
एक समय था जब वह अपनी 12 साल की बेटी को भी रसोई, घर का काम और शादी की तैयारी की सीख दे रही थी। फिर उन्होंने खुद को बदला। बेटी और बेटे दोनों में बराबरी से काम बांटना शुरू किया।
घर में इसका विरोध हुआ। पति ने धमकी दी, 'तुझे नौकरी से निकलवा दूंगा। तू बिगड़ गई है, लेकिन गायत्री नहीं झुकी।' उन्हें पता था कि यह संघर्ष सिर्फ उनके लिए नहीं, अगली पीढ़ी के लिए भी है। धीरे-धीरे बदलाव आया और उनके पति ने घर और बाहर के काम में मदद करनी शुरू की।
लेकिन समाज?
कई घरों में पुरुषों ने अपनी पत्नियों को गायत्री से बात करने से मना कर दिया। गायत्री हंसते हुए कहती है, 'समाज एक दिन में नहीं बदलेगा, लेकिन अगर मैं बदल गई, तो मेरे बच्चे और कई और महिलाएं भी बदलेंगी।'
आज गायत्री सिर्फ अपने घर की गायत्री नहीं हैं, वह सैकड़ों महिलाओं की आवाज बन चुकी हैं। अपने पति के साथ काम करके 700 परिवारों की जिंदगी में बदलाव ला रही हैं। उन्होंने गांव में 100 प्रतिशत बच्चों का स्कूल में दाखिला कराया। वह पुरुषों और महिलाओं दोनों को बराबरी सिखा रही हैं, बेटियों को सपने देखने और बेटों को जिम्मेदारी सीखने की राह दिखा रही हैं। साथ ही महिलाओं को उनके अधिकार समझा रही हैं और घरेलू हिंसा पर आवाज उठाने में मदद कर रही हैं।
गायत्री कहती हैं, 'अगर मैं बदल गई, तो मेरा पूरा घर बदला, फिर पूरा गांव भी बदलेगा।'

आज भी कई गांवों में लोग कहते हैं कि महिलाओं को घर का ही काम करना चाहिए और ज्यादा बोलने वाली महिलाएं घर बर्बाद कर देती हैं, लेकिन गायत्री जैसी महिलाएं इस सोच को धीरे-धीरे तोड़ रही हैं।
उनकी मां की बात भी दिल छुती है- वह हमेशा चाहती थीं कि बेटियां पढ़ें, आगे बढ़ें, लेकिन समाज के दबाव में वह खुद भी कमजोर पड़ गईं। फिर भी, मां की वही शिक्षा- 'पढ़ाई मत छोड़ना', गायत्री की सबसे बड़ी ताकत बनी।
गायत्री की कहानी हमें यह सिखाती है कि बदलाव जागरूकता से शुरू होता है। शिक्षा महिलाओं के लिए उनका अधिकार होना चाहिए। चुप रहना कभी भी किसी समस्या का समाधान नहीं हो सकता। घर में बराबरी ही समाज में बराबरी की नींव रखता है और एक महिला का उठाया हुआ कदम पूरे समुदाय का भविष्य बदल सकता है।
गायत्री की कहानी पढ़कर मेरे मन में एक ही बात गूंजती है कि हर गांव, हर शहर में एक गायत्री है, जो चुप है और हर चुप महिला के अंदर एक गायत्री है, जो बोलना चाहती है।
यह कहानी सिर्फ प्रेरणा नहीं, बल्कि मजबूत संदेश है कि जब एक महिला बदलती है, उसके साथ पूरा समाज बदलने लगता है।
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