हमारे देश के कई बड़े राजमहल अपने आर्कीटेक्टर और राजसी ठाठ-बाट के लिए जाने जाते हैं। लेकिन इनसे भी ज्यादा रोचक है उन राजाओं का इतिहास, जो इन महलों में रहा करते थे। पुराने समय के राजा-रानी से जुड़े बहुत से किस्से सुनने को मिलते हैं और इनमें आज भी महिलाओं की गहरी रुचि है। इसमें बहुत सी चीजें ऐसी भी होती है, जिन्हें जानकर हैरानी होती है। राजस्थान के जोधपुर के प्रसिद्ध मेहरानगढ़ किले का इतिहास भी कुछ ऐसा ही है। यह देश के सबसे भव्य किलों में शुमार किया जाता है, लेकिन इससे जुड़ा हुआ है एक दुखत अतीत। इस अतीत के बारे में आइए जानते हैं-
माना जाता है कि मेहरानगढ़ किले की नींव एक ऐसे व्यक्ति की कब्र पर बनी है, जिसने एक अभिशाप से लोगों को मुक्ति दिलाने के लिए अपने प्राणों की आहुति दे दी। माना जाता है कि पुराने समय में यहां एक राजा हुआ करते थे राव जोधा, जो जोधपुर के पहाड़ पर भव्य किले का निर्माण कराना चाहते थे। अपनी इसी इच्छा को पूरा करने के लिए उन्होंने इस पहाड़ के निवासियों को हटाना शुरू कर दिया। सभी ने राजा की इच्छा का सम्मान किया, लेकिन एक संत को यह बात बुरी लग गई। वह यहां पर चिड़ियों को दाना डालते थे। उन्हें चिड़ियावाले बाबा कहकर बुलाया जाता था। उन्हें राजा का यह आदेश इतना बुरा लगा कि उन्होंने राजा को श्राप दे डाला कि अगर उन्होंने पहाड़ पर अपना महल बनवाया तो उनके राज्य में बार-बार सूखा पड़ेगा और सबकुछ बर्बाद हो जाएगा।
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जब राजा को इस बात का पता चला तो वह बुरी तरह डर गया। उसने खुद को उस चिड़ियावाले बाबा के चरणों में समर्पित कर दिया और दया की याचना की। वह संत अपने कहे हुए वचनों को वापस नहीं ले सकते थे। ऐसे में उन्होंने अपने दिए श्राप से मुक्ति का एक उपाय सुझाया। उन्होंने कहा कि अगर इस राज्य का कोई व्यक्ति अपनी मर्जी से जिंदा दफ्न होकर अपने प्राण त्याग देता है तो उन्हें इस श्राप से मुक्ति मिल जाएगी।
बहुत से लोगों ने राज्य को सूखे के प्रकोप से बचाने के लिए अपने प्राण देने की बात से इनकार कर दिया, लेकिन एक इंसान ने इसके लिए हां कर दी। राजाराम मेघवाल नाम के इस शख्स ने खुद को जिंदा दफ्न किया जाना स्वीकार किया और इस तरह उन्हें एक शुभ दिन जिंदा दफना दिया गया और इसके बाद जोधपुर के मेहरानगढ़ के किले की नींव रखी गई। यह साल 1459 की बात है।
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राजाराम के त्याग के लिए श्रद्धा जताने हेतु बहुत से लोग यहां आज भी उन्हें श्रद्धा-सुमन अर्पित करने आते हैं। उनकी कब्र पर उनका नाम, दफनाए जाने की तारीफ और दूसरी जानकारियों का जिक्र है।
पहले के समय में बहुत सी महिलाएं अपने पति के मरने के बाद उनकी चिता के साथ अपने प्राण त्याग देती थीं। उन्हें डर होता था कि कहीं दुश्मन के हाथ लग जाने पर उनके साथ कुछ बुरा ना हो। इसी परंपरा को निभाते हुए मेहरानगढ़ की रानियां भी महाराजा मान सिंह की मृत्यु के बाद सती हो गई थीं। यह बात 1843 ईस्वी की है। सती होने वाली इन रानियों के लगभग 15 हैंडप्रिंटे़ड murals को आज भी देखा जा सकता है। किवदंति के अनुसार इससे पहले सन् 1731 में महाराजा अजीत सिंह की मृत्यु होने पर जब महाराजा अजीत सिंह की मृत्यु हो गई थी, तब उनकी 6 पत्नियां और हरम में रहने वाली 58 स्त्रियां भी सती हो गई थीं।
Image Courtesy: tripadvisor, klook, goibibo
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