दशकों पहले एक शायर ने यह सवाल पूछा था, 'न था कुछ तो खुदा था.... कुछ न होता तो खुदा होता, डुबोया मुझको होने ने न होता... मैं तो क्या होता...' इस सवाल का जवाब अभी तक दे पाना किसी के लिए मुमकिन नहीं हो सका.....यह सवाल था शायरी की दुनिया के शहंशाह मिर्ज़ा गालिब का.....जो अपनी बेबाक शेर-ओ-शायरी के लिए जाने जाते हैं।
दिल्ली में रहने वाले ऐसे मशहूर शायर जिन्होंने अंग्रेजों और मुगलों के जमाने में अपना नाम रौशन किया था। उस वक्त गालिब को मुहम्मद इकबाल के नाम से जाना जाता था। उनका जीवन, उनके कवि व्यक्तित्व और उनकी रचनाएं आज भी लोगों को प्रेरित करती हैं। गालिब का जीवन और उनकी कविता ने साहित्य की दुनिया में एक अनूठी छाप छोड़ी।
हालांकि, गालिब ने अपनी मृत्यु के बाद कब्र बनाने की इच्छा नहीं जताई थी, लेकिन आज उनके नाम की एक मशहूर मज़ार दिल्ली में स्थित है। यह मज़ार गालिब के जीवन और उनकी अनोखी इच्छा को समझने में एक महत्वपूर्ण कड़ी है। तो आइए इस लेख के जरिए जानते हैं गालिब की जिंदगी और उनकी मज़ार की कहानी।
गालिब का जन्म 27 दिसंबर 1797 को आगरा में हुआ था। उनका पूरा नाम मिर्जा असदुल्लाह खान था। वो एक वक्त पर बहुत ही मशहूर शायर थे, जिनकी कविताओं में गहराई और इमोशन कूट-कूटकर भरे हुए होते थे।
गालिब की कविताओं में उनकी सोच का सुंदर चित्रण भी मिलता है। इससे साफ नजर आता है कि उनके सोचने का तरीका थोड़ा अलग था। हालांकि, गालिब ने अपने जीवन के आखिरी कुछ सालों में काफी कठिनाइयों का सामना किया।
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आर्थिक संकट और बीमारी ने उनके जीवन को प्रभावित किया, लेकिन उनके शायरी का जादू कभी कम नहीं हुआ। मगर अपने निजी अनुभव के आधार पर उन्होंने अपनी मौत के बाद भी कब्र बनाने की इच्छा नहीं जताई थी, बल्कि उन्होंने कहा था कि वे अपनी कब्र धरती पर नहीं चाहते।
गालिब के जीवन के अंतिम दिनों में उनकी आर्थिक स्थिति बहुत खराब हो गई थी। उनके पास इलाज के लिए पैसे नहीं थे और उनकी तबीयत दिन-ब-दिन खराब हो रही थी। उन्होंने अपने परिवार और दोस्तों को कभी भी अपनी कब्र के बारे में बात नहीं की थी और उन्होंने यह भी साफ किया था कि वे अपनी कब्र धरती पर नहीं चाहते थे।
हालांकि, गालिब की मृत्यु 15 फरवरी 1869 को हुई, और उनके प्रति लोगों की श्रद्धा और सम्मान के चलते उनकी कब्र को सम्मानित करने की जरूरत महसूस की गई। उनकी मौत के बाद, उनके फॉलोअर्स और पसंद करने वाले लोगों ने उनकी कब्र पर एक मज़ार बनाने की पहल की।
गालिब की मज़ार पर उनके जीवन की गहरी छाप और उनकी शायरी की विरासत को प्रदर्शित किया गया है। यह मज़ार एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक और ऐतिहासिक स्थल है, जो गालिब की रचनात्मकता और उनके व्यक्तित्व की याद दिलाती है।
गालिब की मज़ार न केवल एक ऐतिहासिक स्थल है, बल्कि यह भारतीय साहित्य की एक महत्वपूर्ण धरोहर भी है। यह स्थल उर्दू साहित्य के शौकीन और गालिब के फैन्स के लिए एक श्रद्धांजलि वाला प्लेस है।
यहां पर आने वाले लोग न केवल गालिब की शायरी की भावनाओं को महसूस करते हैं, बल्कि उनके जीवन और उनकी काव्य कला की भी गहराई से समझ पाते हैं।
गालिब की मज़ार पर होने वाले विभिन्न सांस्कृतिक और साहित्यिक कार्यक्रम गालिब की रचनाओं को याद करते हैं और उन्हें सम्मानित करते हैं। यह स्थल गालिब के साहित्यिक योगदान की मिसाल है और एक ऐसा स्थान है जहां लोग साहित्य और कला की महक को महसूस कर सकते हैं।
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ट्रेन से- दिल्ली रेलवे स्टेशन से गालिब की मज़ार तक पहुंचने के लिए आप टैक्सी या ऑटो रिक्शा ले सकते हैं। पुरानी दिल्ली रेलवे स्टेशन, जिसे कश्मीरी गेट भी कहते हैं, मज़ार के काफी करीब है।
बस से- दिल्ली में कई बस सेवाएं हैं जो पुरानी दिल्ली में आती हैं। आप डीटीसी की बसों का इस्तेमाल कर सकते हैं। पुरानी दिल्ली बस स्टेशन से आप मज़ार तक आसानी से पहुंच सकते हैं।
कार से- अगर आप खुद की कार से यात्रा कर रहे हैं, तो पुरानी दिल्ली में पार्किंग की व्यवस्था की जा सकती है। सड़क मार्ग से यहां पहुंचने में कोई परेशानी भी नहीं होगी।
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