क्या कभी आपने सोचा है कि आजकल की लड़कियां शादी से इतना डरने क्यों लगी हैं? इंटरनेट पर तो लड़कियों को लेकर तरह-तरह की बातें सामने आने लगी हैं, लेकिन आजकल की लड़कियों को इसकी चिंता नहीं है। जी हां, 'आजकल की लड़कियां,' इन दिनों सोशल मीडिया से लेकर गली-मोहल्ले की चर्चाओं तक सभी कुछ ना कुछ ऐसा हो ही जाता है, जहां आजकल की लड़कियों की बातें होने लगती हैं। आंटियां-अंकल किसी ना किसी बात पर यह जरूर कह देते हैं कि आजकल की लड़कियों का दिमाग काफी ऊपर उठ गया है।
पर ये आजकल की लड़कियों की समस्या क्या है? क्यों वो अपने साथ होती चीजों को स्वीकार नहीं कर रही हैं? क्यों उन्हें शादी करने से डर लगता है? सान्या मल्होत्रा की फिल्म 'मिसेज' ने बहुत कुछ बदल दिया और सोशल मीडिया पर इससे जुड़ी कई बातें हो रही हैं, लेकिन क्या आपको पता है कि इस फिल्म की रिलीज से पहले क्या-क्या हो रहा था? यूपी की एक खबर है जहां एक महिला को एचआईवी का इंजेक्शन सिर्फ इसलिए दे दिया गया क्योंकि वो अपने ससुराल वालों की दहेज की इच्छा को पूरा नहीं कर पा रही थी। ऐसे ही मध्यप्रदेश के बैतूल की एक लड़की है जिसकी शादी करवाई गई, घर वालों से झूठ बोला गया, दहेज भी लिया गया और बाद में पता चला कि लड़का ड्रग एडिक्ट है। इसको लेकर अब केस चल रहा है।
इस स्टोरी को लिखना शुरू करने पर ही ये दो न्यूज मेरे सोशल मीडिया अकाउंट पर फ्लैश हो रही थीं। ये वो हैं जिन्हें मैंने सर्च नहीं किया, बस यूं ही सामने आ गईं। ना जाने ऐसी कितनी ही कहानियां होती हैं जिन्हें हम सर्च नहीं करते हैं, लेकिन फिर भी वो हमारे सामने आ जाती हैं। यहां महिलाओं के खिलाफ होने वाले क्राइम की तो बात ही नहीं हो रही है क्योंकि अगर वो होने लगी, तो लिखते-लिखते मेरे हाथ थक जाएंगे, लेकिन ये कहानी खत्म नहीं होगी। यहां बात हो रही है, उन वजहों की जिनसे शादी को लेकर कथित 'आजकल की लड़कियों' का मन उठ चुका है।
अधिकारों की बात करें, तो क्यों गलत मानी जाती हैं लड़कियां?
सबसे पहले बात करते हैं अधिकारों की। बचपन से लेकर अभी तक हमने अपनी पढ़ाई-लिखाई में अधिकारों का जिक्र किया है। 'All Indian Citizens Are Equal' जैसे सेंटेंस हमने बचपन से ही पढ़े हैं, लेकिन अधिकारों की बात की जाए, तो हमें क्या ईक्वल मिलता है?
भारत उन गिने-चुने देशों में से एक है जहां बराबरी का अधिकार तो छोड़िए, महिलाओं को आधे अधिकार भी नहीं मिलते हैं।
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भारत में 1976 में Equal Remuneration Act लागू हुआ था, यानी महिलाओं और पुरुषों को एक जैसा पैसा दिया जाएगा। पर 2022 में IIM- Ahmedabad की एक स्टडी बताती है कि सिर्फ इंडिविजुअल कॉन्ट्रिब्यूटर के तौर पर काम करने वाली महिलाएं ही पुरुषों की तुलना में 2.2% कम वेतन पाती हैं।
बाकी नौकरियां करने वाली मैनेजर, सुपरवाइजर महिलाओं के मामले में ये अंतर 3.1% है और सीईओ या अपर मैनेजमेंट लेवल पर ये अंतर 6.1% तक चला जाता है।
ये तो थी सिर्फ नौकरी की बात। हेल्थ, एजुकेशन से लेकर सरकारी पॉलिसी बनाने और घरेलू फैसले लेने तक, महिलाओं के साथ भेद-भाव होता है। 2023 में भारत जेंडर गैप रिपोर्ट में 146 देशों में से 127वें स्थान पर था और 2024 में हमारा देश और दो स्थान नीचे गिरकर 129वें स्थान पर पहुंच गया।
अब खुद ही सोच लीजिए कि जहां, हेल्थ, एजुकेशन, इकोनॉमिक सर्वाइवर, पॉलिसीज, घरेलू बातों में ही महिलाओं के बारे में नहीं सोचा जाता, वहां आजकल की लड़कियां अपने अधिकारों को जानने के बाद भी उन्हें इस्तेमाल नहीं कर पाती हैं, तो उन्हें कैसा लगता होगा?
ऑफिस में काम शौक है, लेकिन घर का काम भी तो जरूरी है
सोशल मीडिया रील्स से लेकर आस-पड़ोस वाले घर तक, क्या आपने कभी नोटिस किया है कि महिलाओं के लिए घर का काम गाहे-बगाहे महिला की ही जिम्मेदारी बन जाते हैं। Time Use Survey जो हाल ही में आया है। वो कहता है कि महिलाएं 7 घंटे 6 मिनट तक का घर का काम बिना किसी वेतन के कर लेती हैं। वेतन छोड़िए उन्हें इसके लिए सराहा भी नहीं जाता है। वहीं, घर के कामों को लेकर पुरुष सिर्फ 163 मिनट या 2 घंटे 40 मिनट के आस-पास खर्च करते हैं। मतलब यहां भी महिलाओं को एक्स्ट्रा काम करना पड़ता है।
मैं ये नहीं कह रही कि घर का काम करना बुरा है, लेकिन अगर घर दोनों का है, तो जिम्मेदारी भी दोनों की होनी चाहिए ना। महिला भले ही ऑफिस से आए और हाउस हेल्प खाना बनाए, लेकिन उसे गर्म करके लगाना, फिर बर्तन समेटना, फिर किचन साफ करना और यहां तक कि खाते वक्त पानी की बोतल पास में रखना भी बिना कहे महिलाओं की जिम्मेदारी मान ली जाती है। अगर कपड़े वॉशिंग मशीन धो रही है, तो उन्हें सुखाना, प्रेस करवाना, तह करके अलमारी में रखना भी महिलाओं की जिम्मेदारी है। कहने को ये बहुत छोटे-छोटे काम हैं, लेकिन इनका असर बहुत बड़ा हो जाता है। इन छोटे-छोटे कामों को करते-करते महिलाओं का सेल्फ केयर का समय ही कम हो जाता है।
ऑफिस में काम करना अब शौक ही नहीं मजबूरी भी है, कई घरों में बिना दो इनकम के घर चलाना और बच्चों को पालना बहुत मुश्किल होता है, लेकिन ऐसे में अगर महिलाओं पर ही सारी जिम्मेदारी आ जाए, तो उन्हें बुरा लगना स्वाभाविक है। कई बार तो उन्हें ये सब करने को इसलिए कह दिया जाता है क्योंकि वो कम कमाती हैं, लेकिन जेंडर पे पैरिटी उन्हें पुरुषों के बराबर कमाने ही नहीं देती है।
रीति रिवाज का टोकरा महिलाएं ही उठाएं
करवा चौथ हो या फिर तीज सभी दिनों में व्रत रखने की जिम्मेदारी महिलाओं की ही है। घर में कोई पूजा-पाठ है, तो भी महिलाओं को जल्दी उठकर पूजा करनी है, अगर घर में कोई शुभ काम हो रहा है, तो भी उन्हें ही पहल करनी है। ये सब उन्हें करना है अपने ऑफिस की जिम्मेदारी निभाने के साथ-साथ। खुद सोचिए, करवा चौथ पर ऑफिस में सजी-धजी महिलाएं कितनी देर से भूखी होती हैं, क्या आपने सोचा है? वो खुद कुछ भी नहीं खाती हैं और घर जाकर उनमें से कई खुद ही खाना बनाती हैं ताकी पुरुष खा सकें।
हां, कई महिलाओं के लिए ये चीजें थोड़ी बेटर हो गई हैं और उन्हें घर जाकर खाना नहीं बनाना पड़ता, लेकिन रिवाज निभाने की जिम्मेदारी तो अभी भी उन्हीं के सिर पर है। ऐसा कितनी बार हुआ है कि आपने किसी सास-बहू को इस बात पर बहस करते हुए देखा हो। अपने घर में ही कई बार ऐसे उदाहरण मिल जाते हैं। बेटों का काम जरूरी होता है, लेकिन बहू किसी त्योहार के लिए ऑफिस से छुट्टी जरूर ले ले। यहां ही शुरू होता है भेद-भाव।
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आजकल की लड़कियां चुन रही हैं सेल्फ रिस्पेक्ट
अगर उनके साथ कोई गलत काम हो रहा है, और वो आवाज उठा रही हैं, तो कहा जाता है कि आजकल की लड़कियों को जवाब देने की आदत पड़ गई है। पर जरा सोचिए, अपनी सेल्फ रिस्पेक्ट के बारे में सोचना भला गलत कैसे हो गया? अपने अधिकारों को जानकर अगर कोई लड़की आगे बढ़ती है, तो वो गलत कैसे हो गई? उसे क्यों 'आजकल की लड़की' का टैग दे दिया जाता है? ऐसी लड़कियों को क्यों कहा जाता है कि उनका दिमाग ज्यादा चलता है, ऐसे ही लड़कियों को बोला जाता है कि उन्हें शादी करने में दिक्कत है।
अपने आस-पास होती इतनी समस्याओं को देखकर भला कैसे आंखें बंद कर ली जाएं। शादी करना ना करना, लड़की पर छोड़ा जाए, तो शायद उसकी जिंदगी ज्यादा बेहतर हो जाएगी। लड़कियों को पढ़ाया-लिखाया है, तो फैसले लेने की आजादी भी उनकी होनी चाहिए।
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