महाकुंभ 2025 का आयोजन प्रयागराज में हो चुका है, जिसका संयोग 144 वर्षों में बना है और यह पूर्ण महाकुंभ है। प्रत्येक 12 साल में आयोजित होने वाले महाकुंभ का आध्यात्मिक और धार्मिक रूप से विशेष महत्व है। इस दौरान करोड़ों की संख्या में लोग संगम में डुबकी लगाते हैं। यह आयोजन न सिर्फ आध्यात्मिकता, आस्था, और परंपराओं का पर्व है, बल्कि भारतीय संस्कृति और साधु-संतों के गहरे रहस्यों को भी उजागर करता है। इस महापर्व के दौरान शाही स्नान के लिए आए हुए नागा साधुओं का आगमन इसका मुख्य आकर्षण होता है। नागा साधुओं का जीवन आम लोगों से बहुत अलग होता है और वो तप में लीन रहते हुए अपने शरीर को इतना कठोर बना लेते हैं कि उन्हें मौसम के ठंडा या गरम होने से भी कोई नुकसान नहीं होता है। नागा साधु कई असामान्य नियमों का पालन तो करते ही हैं और उन्हें जीवित रहते हुए भी खुद का ही पिंडदान भी करना पड़ता है। नागा साधुओं के खुद का पिंडदान करने की यह परंपरा क्या है? इसका महत्व क्या है और इसके पीछे का रहस्य क्या है? आइए यहां ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से विस्तार से जानें।
नागा साधु बनने का अर्थ और प्रक्रिया
नागा साधु वे सन्यासी होते हैं जो अपने सांसारिक जीवन को पूरी तरह त्याग कर भगवान शिव की भक्ति में पूरी तरह से लीन हो जाते हैं। वो भगवान शिव के ऐसे भक्त होते हैं जो हमेशा निर्वस्त्र रहते हैं, हठ योगी होते हैं और शरीर पर भस्म लपेटे रहते हैं। इनका जीवन तपस्या, ब्रह्मचर्य और वैराग्य पर आधारित होता है।
नागा साधु बनने की प्रक्रिया अत्यंत कठिन और अनुशासनपूर्ण होती है। जो लोग भी नागा साधु बनते हैं उन्हें किसी न किसी अखाड़े का हिस्सा बनना पड़ता है और अपनी घर गृहस्थी का त्याग करना पड़ता है। नागा साधु बनने की पहली शर्त होती है योग्य गुरु का चयन और उनकी अनुमति मिलना।
गुरु दीक्षा के माध्यम से एक साधु को उनके मार्ग पर चलने की शिक्षा दी जाती है और उसका हर परीक्षा में सफल होना जरूरी होता है। नागा साधु बनने के लिए व्यक्ति को अपने परिवार, रिश्तों, धन, और भौतिक सुख-सुविधाओं को हमेशा के लिए त्यागना पड़ता है। यही नहीं उन्हें अपना पिंडदान भी करना पड़ता है।
नागा साधुओं को क्यों करना पड़ता है खुद का पिंडदान?
किसी भी आम व्यक्ति के नागा साधु बनने की प्रक्रिया में सबसे महत्वपूर्ण और गूढ़ परंपरा है खुद का पिंडदान करना। वैसे तो पिंडदान सामान्यतः मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है, लेकिन नागा साधु बनने वाले व्यक्ति इसे अपने जीवित रहते हुए करते हैं।
नागा साधुओं का खुद का पिंडदान करना एक प्रतीकात्मक क्रिया मानी जाती है, जिसमें साधु यह घोषणा करता है कि वह अब सांसारिक जीवन से पूरी तरह मुक्त हो चुका है। इस परंपरा के पीछे कई गहरे तात्विक और आध्यात्मिक कारण हैं। इसका पहला अर्थ यही होता है कि जिस प्रकार पिंडदान के बाद आत्मा को मुक्ति मिल जाती है, उसी प्रकार से जब नागा साधु बनने से पूर्व उनका पिंडदान होता है तो यह इस बात का प्रतीक होता है कि उनको अब इस जीवन से मुक्ति मिल गई और नागा साधु के रूप में उनका फिर से जन्म होता है।
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नागा साधुओं का पिंडदान सांसारिक जीवन के अंत का प्रतीक
पिंडदान इस बात का प्रतीक होता है कि नागा साधु ने अपने सांसारिक शरीर और अस्तित्व को हमेशा के लिए त्याग दिया है। ऐसा करना किसी व्यक्ति की मृत्यु के समान ही होता है, जिसमें व्यक्ति अपने सांसारिक रिश्तों और जिम्मेदारियों से मुक्त हो जाता है। खुद का पिंडदान करने के बाद नागा साधु एक नए आध्यात्मिक जीवन में प्रवेश करता है। एक तरह से देखा जाए तो यह उनके पुनर्जन्म की प्रक्रिया का प्रतीक ही है, जिसमें व्यक्ति सांसारिक आत्मा से मुक्त होकर ब्रह्मांडीय आत्मा में विलीन हो जाता है।
नागा साधुओं का पिंडदान मोह माया से मुक्ति का प्रतीक
पिंडदान हमेशा यह दिखाता है कि नागा साधु ने अपनी इच्छाओं, मोह और माया से छुटकारा पा लिया है। वह अब केवल आत्मज्ञान और ब्रह्मांडीय सत्य की खोज में संलग्न है। नागा साधु बनने के बाद साधु का जीवन कठिन तपस्या और साधना में बदल जाता है। खुद का पिंडदान करना इस तपस्या की शुरुआत का संकेत होता है।
नागा साधु बनने के दौरान पिंडदान की प्रक्रिया में व्यक्ति को अपने नाम से पिंड अर्पित करने होते हैं। इसे वैदिक मंत्रों और विधि-विधान के अनुसार संपन्न किया जाता है। नागा साधु अपने ही नाम का श्राद्ध कर्म करता है, जो यह दिखाता है कि उसने अपने सांसारिक जीवन का अंत कर दिया है।
नागा साधुओं के पिंडदान के बाद ही गंगा में स्नान किया जाता है, जो आत्मा की शुद्धि का प्रतीक है। इस पूरी प्रक्रिया में गुरु का विशेष योगदान होता है क्योंकि गुरु यह सुनिश्चित करते हैं कि साधु की मानसिक और आध्यात्मिक स्थिति इस परिवर्तन के लिए तैयार है या नहीं।
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नागा साधुओं के खुद का पिंडदान करने की परंपरा न केवल नागा साधुओं के लिए बल्कि भारतीय आध्यात्मिक परंपरा के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण मानी जाती है। यह परंपरा गहरे प्रतीकों और विचारधाराओं से जुड़ी होती है। अगर आपका इससे जुड़ा कोई भी सवाल है तो आप कमेंट बॉक्स में हमें जरूर बताएं। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से।
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