The Kashmir Files Controversy: 'तोहफतुल अहबाब' वो किताब जिसका मूवी के आखिरी 10 मिनट में किया गया जिक्र

फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' में एक बहुत अहम किताब का जिक्र है जिसमें कश्मीर के इतिहास से जुड़ी बातें कही गई हैं। जानिए इस किताब के बारे में। 

 
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फिल्म कश्मीर फाइल्स जब बनी थी तब भी चर्चा में थी और आज उसके रिलीज हो जाने के इतने समय बाद फिर एक बार सुर्खियों में आ गई है। इस बार इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल (IFFI) के जूरी हेड ने इस फिल्म पर तंज कस दिया है, जिसकी वजह से उन्हें बड़ी खरी-खोटी सुनाई जा रही है।

आपको बता दें कि IFFI के जूरी हेड और इजरायली फिल्ममेकर नदव लैपिड है, ने गोवा में आयोजित 53वें फिल्म समारोह में इस फिल्म को लेकर ऐसा कह दिया जिसके बाद हलचल मच गई। नदव ने फिल्म कश्मीर फाइल्स को एक वल्गर प्रोपेगेंडा बताया था फिल्म की आलोचना करते हुए उन्होंने कहा था- 'हम सब परेशान हैं और यह फिल्म हमें एक वल्गर प्रोपेगेंडा की तरह लगी। यह इतने बड़े फिल्म समारोह के लिए उचित नहीं है।'

उनके इस बयान के बाद फिल्म के डायरेक्टर विवेक अग्निहोत्री और स्टार कास्ट ने इजरायली फिल्ममेकर पर निशाना साधा है। खैर, आज हम आपको इस फिल्म में कश्मीर के इतिहास से जुड़े खास पहलू साझा करेंगे।

अगर आपने फिल्म देखी है तो आपको पता होगा कि इसके अंत में किस तरह एक किताब का जिक्र किया गया है। इस किताब का नाम है तोहफतुल अहबाब (Tohfatu’l Ahbab) जिसे जम्मू-कश्मीर के इतिहासकार और चर्चित प्रोफेसर डॉक्टर काशी नाथ पंडिता ने 'A Muslim missionary in mediaeval Kashmir' नाम से ट्रांसलेट किया है।

डॉक्टर काशी नाथ पंडिता बारामुला कश्मीर में ही पैदा हुए थे और तेहरान यूनिवर्सिटी से अपनी PhD करने के बाद उन्होंने कश्मीर में ही रहने का फैसला किया। वो यूनिवर्सिटी ऑफ कश्मीर में सेंटर फॉर सेंट्रल एशियन स्टडीज के डायरेक्टर के पद पर नियुक्त हुए। 2017 में उन्हें पद्मश्री से सम्मानित किया गया और उन्हें अपने काम के लिए 1985 और 1987 में भी राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति से अवॉर्ड्स मिल चुके हैं।

फिल्म 'द कश्मीर फाइल्स' में इस किताब का बहुत ही अहम सीन में जिक्र किया गया है। अगर आप उस किताब के बारे में थोड़ा सा रिसर्च करेंगे तो आपको पता लगेगा कि असली किताब फारसी में थी। आपको बता दें कि इसी किताब को डॉक्टर पंडिता ने कुछ साल पहले अंग्रेजी में ट्रांसलेट किया है। हमने उनसे बात कर इस किताब के बारे में कुछ जानने की कोशिश की।

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क्या है इस किताब में जो इतनी हुई है फेमस-

तोहफतुल अहबाब एक फारसी शब्द है जिसका मतलब 'दोस्तों के लिए उपहार' है। ये फारसी भाषा में लिखी गई एक बायोग्राफी है जिसमें ईरानियन इस्लामिक मिशनरी शम्सउद्दीन अराकी की कहानी बताई गई है। अराकी 1478 में कश्मीर पहली बार आया था और वो सूफी घराने नूरबख्शिया का फॉलोवर था। इसे ईरानी सूफी स्कॉलर नूर बक्श ने शुरू किया था।

इस किताब में खासतौर पर अराकी की बायोग्राफी नहीं है बल्कि उसकी उपलब्धियों और काम का भी जिक्र किया गया है।

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इस किताब में मौजूद 10 अहम बातें-

1. अराकी के कश्मीर आने का जिक्र:

इस किताब में अराकी के कश्मीर आने का जिक्र किया है जो अपनी नूरबख्शिया आइडियोलॉजी को कट्टरता से मानता था। अराकी ने पाया कि यहां मौजूद कनवर्टेड कश्मीरी मुस्लिम समुदाय अधिकतर सुन्नी हनफ़ी संप्रदाय का पालन करता है। उसने कई कश्मीरी मुस्लिम समुदाय के लोगों को अपना दोस्त बनाया और उनसे जानकारी इकट्ठा करनी शुरू की।

2. किस तरह अराकी ने बनाई अपनी जगह:

खुद को हेराट तैमूर वंश के शासक का दूत बताते हुए उसने कश्मीर के लोगों को ये बताया कि वो यहां कुछ दवाएं और जड़ी-बूटियां लेने आया है जिनका जिक्र हेराटी शाही दरबार के चिकित्सकों द्वारा किया गया है। कश्मीर के लोगों के मन में अपनी जगह बनाने के लिए लंबे समय तक वो यही कहता रहा।

3. धीरे-धीरे शुरू किया धार्मिक प्रचार:

धीरे-धीरे अराकी ने धार्मिक प्रचार शुरू किया और खुद को मीर अली सैयद हमदानी का फॉलोवर बताया। इन्हें ईरान के हमदान से पहला मुस्लिम सूफी माना जाता है जिसे कश्मीरी मुसलमानों द्वारा इन्हें ही इस्लामिक धर्म और कश्मीरी परंपरा का संस्थापक माना जाता है। इसके कारण अराकी को कश्मीरी आवाम के बीच लोकप्रियता मिली और उसे कश्मीर के शासक द्वारा दरबार में भी इज्जत हासिल हुई।

4. नूरबख्शिया आइडियोलॉजी:

धीरे-धीरे अराकी ने नूरबख्शिया आइडियोलॉजी का प्रचार करना शुरू कर दिया। उसने कुछ लोगों को अपने साथ कर लिया और धीरे-धीरे अपने घेरे को बढ़ाता गया।

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5. मुफ्त भोजन और दान:

कश्मीरियों की मन स्थिति को समझते हुए अराकी ने गरीबों को मुफ्त भोजन दिलवाना शुरू किया। इसी के साथ, उसने संपन्न मुसलमानों द्वारा दान और धन देने की गुहार लगाई और कई लोगों को आकर्षित किया। इसके कारण दूर-दूर से अराकी के पास लोग आने लगे और श्रीनगर लोगों से भर गया। इसी तरह उसने अपनी जगह बनाई। हालांकि, उस दौरान आधिकारिक लेवल और नौकरशाहों से उसे ज्यादा समर्थन नहीं मिला। ऐसे में उसने ये ऐलान किया कि वो सुल्तान और उसके दरबार से नफरत करता है और ताजिकिस्तान के रास्ते ईरान लौट गया।

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6. दोबारा कश्मीर के बारे में मंथन:

अराकी ने दोबारा कश्मीर को लेकर मंथन किया और अपने अनुयायियों के जरिए ये जानने की कोशिश की कि आखिर कश्मीर में बड़े स्तर पर वो सफल क्यों नहीं हो पाया। उसे जवाब मिला कि भले ही कश्मीर में धर्म परिवर्तन हो चुका है, लेकिन फिर भी हिंदुओं की कथा, कहानियां, महिलाओं का हिंदू धर्म के नियमों का पालन करना और कहानियों, लोक कथाओं, फोल्क सिंगरों द्वारा मंदिरों में जाना और एक दूसरे के साथ अच्छा बॉन्ड शेयर करना ही कश्मीर को न तोड़ पाने का कारण बना।

7. अराकी की खतरनाक पारी:

अब अराकी का मन था कि वो हिंदू समुदाय की नींव को हिला दे ताकि वो अपने काम में सफल हो पाए, लेकिन अराकी और नौकरशाहों के बीच के मतभेद तेज़ होते गए और अराकी ने कश्मीर को छोड़ दिया, लेकिन वो कश्मीर की खबर हमेशा लेता रहा। 7 साल बाद जब कश्मीर में नौकरशाही का समय बदला तब उसने वापसी की।

8. कश्मीर का परिवर्तन:

अब तक कश्मीर में माहौल काफी बदल चुका था और लोगों के बीच दूरियां आने लगी थीं। उसे कश्मीरियत को बदलना था और उसने शुरुआत से ही कुछ ताकतवर कमांडर और वजीर अपने साथ किए। उसके सबसे बड़े समर्थकों में काजी चक और मूसा रैना शामिल थे। इसके बाद जब उसे नौकरशाहों और मिलिट्री का सपोर्ट मिल गया तब उसने कश्मीर में आतंक फैलाना शुरू किया। उसने धीरे-धीरे गांव, मंदिर और लोगों पर कब्जा करना शुरू किया। एक-एक कर कश्मीर के छोटे-छोटे गांवों के साथ यही करता रहा। इस पूरी प्रक्रिया में बहुत सारे नरसंहार हुए।

9. मंदिरों पर कब्जा:

इस दौरान मंदिरों पर कब्जा भी किया गया और धर्म प्रचार भी चलता रहा।

10. कश्मीरियत:

इसके बाद अराकी ने अपने कमांडर काजी चक को अपना अधूरा काम करने को कहा और ये दौर चलता रहा। इस दौरान कश्मीर की आवाम ने कई अत्याचार झेले और कश्मीरियत का एक नया मतलब देखा।

इस किताब के कई संस्करण छपे हैं और अगर आप इसे पढ़ना चाहते हैं तो यहां दिए गए लिंक से डिजिटल कॉपी पढ़ सकते हैं

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