प्राचीन काल से लेकर आधुनिक काल तक महिलाएं समाज में कहीं न कहीं अपना पूर्ण योगदान देती नजर आई हैं। फिर चाहे वो भारत को आजादी दिलाने की लड़ाई हो या सत्ता की लड़ाई, महिलाएं हमेशा अपना योगदान देती नजर आई हैं। हमारे सामने कई ऐसी महिलाओं के नाम हैं, जिनके साहस की मिसाल आज भी दी जाती है जैसे रानी लक्ष्मी बाई।
रानी लक्ष्मी बाई का इतिहास बहुत गौरवशाली रहा है, जिनके साहस की आज भी मिसाल दी जाती है। रानी लक्ष्मीबाई का बचपन का नाम मणिकर्णिका था, लोग उन्हें इसी नाम से पुकारा करते थे। लक्ष्मी बाई जब 4 साल की थीं तब उनकी मां का देहांत हो गया था। इसके बाद वह अपने पिता मोरोपंत के साथ बिठूर आ गई थीं।
मणिकर्णिका की परवरिश भी पेशवाओं के बीच हुई। इसलिए बचपन से ही मणिकर्णिका बहुत साहसी और तेज दिमाग की थीं। उनकी काबिलियत के चलते झांसी के राजा गंगाधर राव ने उनसे विवाह कर लिया। विवाह के बाद उन्होंने मणिकर्णिका का नाम बदलकर लक्ष्मीबाई रख दिया था। इस दौरान उनकी दोस्त ने काफी मदद की थी, जिनसे बहुत कम लोग परिचित हैं।
अगर आप भी इनके नाम से परिचित नहीं हैं, तो आइए इस लेख में जानते हैं कि रानी लक्ष्मीबाई की उस मुस्लिम दोस्त के बारे में जिनके शहादत की मिसाल दी जाती है।
आखिर कौन थीं रानी लक्ष्मीबाई की मुस्लिम दोस्त?
नेशनल आर्काइव ऑफ इंडिया में प्रकाशित इतिहासकार साकिब सलीम के आर्टिकल में इस बात की पुष्टि मिलती है कि रानी लक्ष्मीबाई की दोस्त का नाम मुंदर था। यह रानी की बचपन की दोस्त थीं, जिन्होंने रानी का हर मुश्किल पड़ाव पर उनका साथ दिया। (नागालैंड की रानी लक्ष्मीबाई जिसने बिना बंदूक अंग्रेजों से किया था युद्ध)
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मुंदर खातून का नाम असली नाम बेगम हजरत महल था। इन्होंने 1857 में एक अहम भूमिका अदा की थी। इसका जन्म सन 1820 ई में फैजाबाद में हुआ था। वो अवध के नवाब वाजिद अली शाह की दूसरी पत्नी थीं, जिन्हें सत्ता की काफी समझ थी।
अंग्रेजी सेना से अकेला किया सामना
1857 से पहले अंग्रेज अवध पर अपना अधिकार करना चाहते थे। इस नियत से अंग्रेजों ने अवध पर हमला कर दिया और नवाब वाजिद अली शाहको नजरबंद करके कलकत्ता भेज दिया। इस दौरान अवध की सत्ता को मुंदर खातून ने ही संभाली और रियासत की बागडोर अपने हाथों में ली।
उन्होंने राजगद्दी पर बैठाकर अंग्रेजी सेना का खुद मुकाबला किया। इसके अलावा, अवध के जमींदार, किसान और सैनिकों ने भी अंग्रेजों से संघर्ष किया। मगर पराजय के बाद उन्हें नेपाल में कुछ दिन रहना भी पड़ा था।
काठमांडू की जामा मस्जिद में मौजूद है कब्र
अपनी हिफाजत करने के लिए मुंदर खातून नेपाल गई थीं। मगर बेगम हजरत महल ने अपना पूरा जीवन नेपाल में ही बीता दिया। वहीं पर 1879 ई में उनका निधन हो गया और जब उनका निधन हुआ, तो उन्हें काठमांडू की जामा मस्जिदके मैदान में दफनाया था। आज भी उनकी कब्र काठमांडू में मौजूद है, जिसका दीदार करने के लिए आपको नेपाल जाना होगा।
रानी लक्ष्मी बाई कब हुई थीं शहीद
वर्ष 1858 जून 18 को अपनी मातृभूमि की रक्षा करते हुए रानी लक्ष्मी बाई शहीद हो गईं थीं। उन्होंने ने आखिरी सांस झांसी में नहीं बल्कि झांसी से कुछ दूर स्थित ग्वालियर में ली थी। अदम्य साहस की मूरत लक्ष्मी बाई ने अंग्रेजों के आगे न तो घुटने टेके थे और न ही शहीद होने के बाद अपने शव को उनके हाथ लगने दिया था।
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अपने देश को आजाद कराने के लिए रानी लक्ष्मी बाई ने जो बलिदान दिया था, जिसे आज भी याद किया जाता है। इसलिए आज भी उनकी समाधि ग्वालियर में आज भी मौजूद है।
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Image Credit- (@Freepik and Shutterstock)
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