'14 मई को घर से गए थे पापा...', कारगिल युद्ध में शहीद हुए मेजर द्विवेदी की बेटी दीक्षा बता रही हैं जंग क्या करती है फौजियों के परिवार के साथ

सोशल मीडिया पर हम सिर्फ जंग की बातें करते हैं। हिंदुस्तान-पाकिस्तान के युद्ध को लेकर मीम्स बनाते हैं, लेकिन हम ये भूल जाते हैं उन सैनिकों के बारे में जो सरहद पर लड़ रहे हैं। हम भूल जाते हैं उनके परिवारों के बारे में जो फोन पर मीम्स या टीवी पर गाने नहीं, सिर्फ जंग के हालात देखते हैं।  
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India and Pakistan War Conflict: पहलगाम हमले के बाद भारतीय सेना ने जवाब में ऑपरेशन सिंदूर को अंजाम दिया। इसके बदले में पाकिस्तान ने हमारे सिविलियन एरियाज पर हमला किया। यकीनन पिछले 15-20 दिनों में जो कुछ भी हुआ है उसके बाद आपने न्यूज चैनल और सोशल मीडिया पर बहुत कुछ पढ़ लिया होगा। बहुत सारे ट्वीट्स देखे होंगे, शायद आपने भी कुछ लिखा हो, लेकिन जंग कीबोर्ड पर नहीं लड़ी जाती है दोस्तों। जंग की कीमत सिर्फ वही समझ सकता है जिसने इसे करीब से देखा हो।

हम जब जंग के बारे में बात करते हैं, तो भूल जाते हैं उन परिवारों को जिनके बेटे कभी वापस नहीं आएंगे। जंग फौजियों के पिरवारों पर क्या असर डालती है ये शहीद मेजर चंद्र भूषण द्विवेदी की बेटी दीक्षा हमें बता रही हैं।

दीक्षा खुद एक राइटर और एंटरप्रेन्योर हैं और उन्होंने कारगिल युद्ध और फौजियों की कहानियों से जुड़ी दो किताबें भी लिखी हैं। दीक्षा के पिता मेजर चंद्र भूषण द्विवेदी ने 20 साल की उम्र में ही फौज ज्वाइन कर ली थी। कारगिल युद्ध में वो शहीद हो गए थे। दीक्षा अपने पिता के बारे में याद करते हुए कहती हैं कि वो 14 मई को ही घर से द्रास के लिए निकले थे।

पढ़िए दीक्षा की जुबानी.. जंग की असलियत।

सैनिकों के परिवार के ऊपर होता है अजीब सा प्रेशर...

जब जंग के असर और परिवारों के हालात पर बात की गई तो दीक्षा ने कहा, 'हममें से कई परिवार होंगे, जो जंग के बाद दोबारा अपनी जिंदगी शुरू ही नहीं कर पाएंगे। हमारे अपने कभी वापस नहीं आएंगे और कई लोग इस दुख को कभी भूल ही नहीं पाएंगे। यही होता है परिवार वालों के साथ जो रोजाना सिर्फ अपनों की सुरक्षा की कामना करते हैं।'

फौजी का परिवार

'मुझे लगता है कि सिर्फ उन्हीं लोगों को वॉर चाहने का हक है जिन्हें सीधे तौर पर इससे फर्क पड़ता है। यकीनन देश के हर व्यक्ति को इनडायरेक्टली इससे फर्क पड़ेगा। मैं ये नहीं समझ पाती कि क्यों लोगों को ये नहीं समझ आता कि युद्ध से उनके ऊपर सीधे क्या असर पड़ेगा। बतौर देश हम 20-30 साल पीछे चले जाएंगे। हमने इतने दिनों में जो भी बनाया है, वो तबाह हो सकता है।'

सैनिकों के परिवार वालों के पास 'सेफ' ऑप्शन नहीं होता...

दीक्षा आगे कहती हैं, 'यकीनन हमारे देश की आन, बान और शान पर कोई आंच आए, तो आर्मी, नेवी, एयरफोर्स और अन्य सैन्य दल आगे खड़े हैं, लेकिन जो बात लोगों को समझ नहीं आती वो यह कि सैनिकों के परिवार वालों के पास कोई सेफ ऑप्शन नहीं होता। हमें पता होता है कि अगर जंग होगी, तो हमारे घरों के लोग शहीद होंगे, कुछ घर से जाएंगे, लेकिन कभी वापस नहीं आएंगे। सिर्फ तिरंगा घर आएगा।'

'युद्ध के हालात में सैनिकों के परिवार वालों को ये नहीं पता होता कि अगले दिन उनके साथ क्या होने वाला है।'

diksha dwivedi and her life

आज सोशल मीडिया और न्यूज, कारगिल के दौर से अलग है...

'मैं 1999 के कारगिल युद्ध के दौर में बहुत समय तक अपसेट रहती थी क्योंकि जैसा आप अपने आस-पास देखते हैं, जो एनर्जी आपको मिलती है, उससे ही आपकी सोच बनती है। उस वक्त रियल टाइम रिपोटिंग हो रही थी और जंग की तस्वीरें देखना बहुत ही खराब था।'

'मैं अभी ये समझ ही नहीं पाती हूं कि लोग सोशल मीडिया पर कैसे सरकार और आर्मी पर प्रेशर बना रहे हैं। कुछ लोग सोशल मीडिया पर कुछ भी लिखेंगे और नफरत फैलाएंगे और फिर लोग उसे ही रीट्वीट करेंगे। '

'मैंने आज एक ट्वीट देखी, 'Those people who are voting to de escalate the war should also be treated as pakistani's' (वो लोग जो भारत-पाक युद्ध को रोकने की मांग कर रहे हैं, उन्हें भी पाकिस्तानी समझना चाहिए)। ये ट्वीट मुझे झकझोर रही है। ये एक भारतीय की ट्वीट है। मुझे यकीन नहीं आता कि ये ट्वीट लोग शेयर कर रहे थे।'

'अब बात सिर्फ रियल टाइम रिपोर्टिंग की नहीं है। अब लोग वॉर के पीछे पड़ गए हैं।'

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जो लोग जंग को ना कहते हैं, वो खुद जंग कर रहे होते हैं ...

दीक्षा ने अपने इंटरव्यू में एक बहुत ही गहरी बात की। उन्होंने कहा कि आप देख लीजिए, जितने भी लोग जंग के लिए मना कर रहे हैं, वो वही लोग हैं जो असल में जंग लड़ते हैं। सैनिक, उनके परिवार और सगे-संबंधी। कीबोर्ड पर जंग लड़ना आसान है, असल जिंदगी में गोली-बारूद और मिसाइल का सामना करना बहुत मुश्किल।

'जब भी जंग की बात होती है, मैं हमेशा रोती हूं। मैं पिछले दो तीन दिन से रो रही हूं। मैं शायद अभी भी दुख से उबर नहीं पाई हूं। सिर्फ एक ही तरीका होता है जिससे मैं थोड़ा बेहतर महसूस करती हूं और वो है कारगिल से जुड़े लोगों के बारे में लिखना। Letters from Kargil और Nimbu Saab, वो किताबें हैं जिनमें कारगिल के युद्ध की कहानियां है। यही तरीका है दुख से उबरने का जब दुख को साझा किया जाए।'

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कारगिल युद्ध के समय फौजियों को इस चीज से मिलता था साहस...

दीक्षा अपना एक्सपीरियंस बताते हुए कहती हैं कि उस दौरान पूरे देश से सरहद पर मौजूद फौजियों को लेटर जाते थे, मैसेज जाते थे और प्यार जाता था और सिर्फ यही एक चीज है जिससे उन्हें थोड़ी सांत्वना मिलती थी। वो हैं तो हम हैं और वो सरहद पर थे।

युद्ध के हालात बनने के समय पर भी इंडियन आर्मी पर प्रेशर डालने की जगह उन्हें सांत्वना देनी चाहिए, उन्हें प्यार भेजना चाहिए। नफरत नहीं सिर्फ प्यार से ही उनका हौसला बढ़ सकता है।

कारगिल युद्ध में पिता के जाने के बाद, शुरुआती दौर में...

दीक्षा यह बोलते-बोलते भावुक हो गईं। 'माता-पिता की जगह कोई नहीं ले सकता। मेरे पिता की जगह कोई नहीं ले सकता। वो 315 रेजिमेंट में थे और ये रेजिमेंट सबसे पहली रेजिमेंट थी जिन्हें कारगिल वॉर में भेजा गया था। मैं और मेरी बहन हमेशा सोचते हैं कि आज वो होते तो हम उन्हें अपनी उपलब्धियों के बारे में बताते, हम उन्हें जिंदगी के बारे में बताते, उनके साथ हंसी-खुशी वाले पल जीते। उन्हें अपनी किताबें पढ़वाते।'

'पर्सनल चैलेंज की बात करूं, तो जब युद्ध खत्म होता है, उस सैनिक के परिवार का युद्ध शुरू होता है जो अब इस दुनिया में नहीं है। कारगिल से पहले हमेशा हम छोटे शहरों में रहे थे और इसके बाद पहली बार हमें बड़े शहर जाना पड़ा था। मां हाउसवाइफ थीं और हमारे लिए उन्होंने दिल्ली में बिजनेस करने का फैसला लिया ताकि हमें पाला जा सके।'

'हमारे रिश्तेदारों ने हमारी बहुत मदद की, हमें स्कॉलरशिप के बारे में बताया, सही लोगों से मिलवाया। पर मैं अभी भी सोचती हूं कि जो सैनिक शहीद होते हैं, वो अभी भी गांव में रहते हैं और उन्हें तो ये सुविधाएं भी नहीं मिलतीं। उनके परिवार वालों को और मुश्किल होती होगी।'

दीक्षा आगे कहती हैं कि मौजूदा समय में वॉर के हालात बनते देख मैं खुश नहीं हूं, मैं हमेशा रोती हूं और मैं लोगों को ये बता भी नहीं सकती कि मैं क्यों खुश नहीं हूं।

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लीडर्स, इन्फ्लुएंसर्स और सरकार को जंग के बारे में जानकारी देनी चाहिए..

दीक्षा कहती हैं, 'वियतनाम की जंग तब खत्म हुई थी जब लोग सड़कों पर आ गए थे कि अब हमें जंग नहीं चाहिए। लीडर्स, सरकार, इन्फ्लुएंसर्स को ये जानकारी देनी चाहिए कि जंग की असल कॉस्ट क्या होगी। सिर्फ आर्थिक ही नहीं, सामाजिक, भावनात्मक भी। देश के लिए इसका असर कैसा होगा। अगर लोगों को पता ही नहीं होगा कि जंग का असर क्या होता है, तो जंग की स्थिति में वो खुद को तैयार नहीं कर पाएंगे।'

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फौजी स्टील के नहीं बने होते... लोगों को समझना चाहिए कि वो इंसान हैं

'मैं अपने आर्टिकल्स और किताबों से ये मैसेज देने की कोशिश करती हूं कि सरहद पर लड़ने वाले लोग इंसान हैं और उनकी कहानी भी है। लोग अपने-अपने काम में लगे हैं, उनका परिवार है, उनके भी सपने हैं, अपने हैं, बच्चे हैं। लोग उन्हें स्टील का समझने लगते हैं जब कहते हैं कि जंग पर जाओ।'

'पाकिस्तान ने जिस दिन लगातार बॉर्डर एरियाज पर हमला किया और तीन-चार दिन ऑपरेशन सिंदूर के कारण फायरिंग की, मैंने कई फौजियों के परिवार वालों से बात की। लगातार ग्रुप पर मैसेज आ रहे थे, लोग चिंता कर रहे थे। अपने परिवार वालों की सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रहे थे। सिर्फ फौजियों के परिवार वाले ही नहीं, सिविलियन्स भी थे जो परेशान थे। उन्हें चिंता थी कि कहीं अगले दिन उनके साथ कुछ ना हो जाए।'

'पहले दिन पाकिस्तानी फायरिंग के बाद मेरे जीजा जी जो खुद सेना में हैं उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया मत देखो, फेक न्यूज मत देखो, जब तक कुछ आर्मी की तरफ से ना आए, तब तक यकीन ना करो। मैं बस यही चाहती हूं कि लोग समझें कि जंग क्या करती है।'

दीक्षा की बातों से उनका दुख साफ झलकता है। यकीनन गर्मी के मौसम में अपने एसी कमरों के अंदर बैठकर हम ये नहीं समझ पाते हैं कि सही मायने में जंग होती क्या है। जंग कीबोर्ड से नहीं लड़ी जाती।

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