मध्य प्रदेश की राजधानी, भोपाल में किन्नर समुदाय बेगम शासकों के ताजिया बनाने की परंपरा को बखूबी निभाता है। यह परंपरा करीब 150 साल पुरानी है और आज भी यह शहर की मोहर्रम की पहचान बन चुकी है। एक पल के लिए आपको यह जानकर हैरानी हो सकती है, लेकिन यह सच है। आज यह रिवाज है कि किन्नर समुदाय ताजिया बनाता है। यहां जिनकी संतान नहीं होती वे अपनी कामना करते हैं।
क्या है किन्नरों के ताजिया बनाने का इतिहास
भोपाल में बेगमों का शासन रहा है, और उसी दौरान से ताजिया बनाने की शुरुआत हुई थी। उस समय से, किन्नर समुदाय इन ताजियों को बड़ी श्रद्धा और लगन से बनाता आ रहा है। पहले ये ताजिये बुधवारा इलाके में ही बनाए जाते थे, लेकिन अब शहर के अन्य इलाकों में भी किन्नर ताजिये बनाते हैं। सदियों से चली आ रही यह परंपरा समुदायों के बीच भाईचारे का प्रतीक माना जाता है। किन्नर समुदाय इस्लाम के प्रति अपनी श्रद्धा ताजिया बनाने के जरिये व्यक्त करता है। इनकी ताजिया अपनी भव्यता और कलाकारी के लिए भी पूरे इलाके में प्रसिद्ध हैं।
मुसलमान मुहर्रम क्यों मनाते है
इस्लाम धर्म में मुहर्रम का महीना बहुत खास माना जाता है। इस्लामिक कैलेंडर के मुताबिक, मुहर्रम इस्लाम का पहला महीना होता है और इस्लाम के नए साल या हिजरी सन् की शुरुआत भी मुहर्रम से ही होती है। मुहर्रम के महीने में त्याग और बलिदान की याद दिलाई जाती है। शिया मुस्लिम समुदाय के लोग इस महीने में पैगंबर हज़रत मोहम्मद साहब के नवासे इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत की याद में मातम मनाते हैं।
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इस्लामिक मान्यता के मुताबिक, साल 61 हिजरी (680 ईस्वी) में इराक के कर्बला में इमाम हुसैन और उनके साथियों ने हक और सच की लड़ाई में शहादत दी थी। मुहर्रम के दिन, मुस्लिम समुदाय के लोग ताजिए निकालते हैं और इमाम हुसैन की याद में रोते हैं। मुहर्रम की दसवीं तारीख को मनाए जाने वाले यौम-ए-आशूरा के दिन ताजिए निकाले जाते हैं। इस दिन को इस्लामिक कल्चर में मातम का दिन भी कहा जाता है।
इमाम हुसैन की शहादत और कुर्बानी की याद में मुहर्रम मनाया जाता है। इस दिन लोग ताजिया बनाते हैं और जुलूस निकालते हैं। शिया उलेमा के मुताबिक, मोहर्रम का चांद निकलने की पहली तारीख को ताजिया रखा जाता है। ताजिया, इमाम हुसैन की इराक में दरगाह की हूबहू नकल होती है। हालांकि, ताजिया निकालने की परंपरा सिर्फ़ शिया समुदाय में ही होती है।
हिंदुस्तान में मुहर्रम के मौके पर ताजिया उठाने का इतिहास
ऐसा माना जाता है कि भारत में ताजिए की शुरुआत तैमूर के दरबारियों ने की थी। जब तैमूर को हिंदुस्तान में मुहर्रम मनाना पड़ा, तो उसके दरबारियों ने अपने शहंशाह को खुश करने के लिए इराक के कर्बला में स्थित इमाम हुसैन की कब्र जैसी कृतियां बनाने का आदेश दिया था। शिल्पकारों ने बांस की खपंचियों पर कपड़ा लगाकर ढांचा तैयार किया और उसे ताजिया कहा गया। ताजियों को फूलों से सजाया गया और तैमूर के महल में रखा गया। इस तरह मुहर्रम पर हर साल ताजिया बनाने की परंपरा चल पड़ी।
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ताजिया, इमाम हुसैन की कब्र की एक छोटी प्रतिकृति होती है। मुहर्रम के चांद दिखने के बाद पहली तारीख से ताजिया रखना शुरू हो जाता है और फिर इस ताजिया को मुहर्रम की 10 तारीख को कर्बला में दफन कर दिया जाता है। इस दिन शिया मुसलमान इमाम हुसैन और उनके 72 साथियों की शहादत की याद में ताजियादारी करते हैं और जगह-जगह ताजिए का जुलूस निकाला जाता है। ताजिए को नदी या समुद्र में विसर्जित किया जाता था।
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