'देश हमारी जान से कहीं ज्यादा बड़ा है....' जब बारामूला में लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय ने शब्दों ने सभी सैनिकों में डाल दी थी नई जान, आज भी गर्व से कही जाती है उनकी कहानी

हमारी सेना ने जोश और जज्बे की कई ऐसी कहानियां लिखी हैं, जिन पर जब भी नजर पड़ती है, आंख भर आती है और दिल गर्व करता है। कर्नल दीवान रंजीत राय की कहानी भी कुछ ऐसी ही है।
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'वो पीछे नहीं हटे, वो उठे और मोर्चा संभाला... उस राष्ट्र के लिए, जो उस समय जन्म ले रहा था।' साल 1947 में जब देश आजादी की खुली हवा में सांस लेने की कोशिश कर रहा था, उस वक्त बंटवारे के जख्म ताजा थे और अनिश्चितता की धुंध पूरे देश पर छाई हुई थी। उस दौर के नायक कोई सुपरहीरो नहीं थे, वे लोग थे जो मिट्टी की धूल और असंभव फैसलों का बोझ अपने कंधों पर उठाए चलते थे। ऐसे ही एक नायक थे लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रणजीत राय। जिनके जज्बे, जोश और शहादत के हम आज भी ऋणी हैं और हमेशा रहेंगे।

डोगरा रेजिमेंट में थे कर्नल दीवान रणजीत राय

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"मैं एक तीसरी पीढ़ी का सैनिक हूं, और आज भी मुझे वो कहानियां याद हैं जो मेरे पिता, जो भारत की आजादी के समय डोगरा रेजिमेंट में एक युवा लेफ्टिनेंट थे, मुझे सुनाया करते थे। उनकी आवाज में गर्व और दर्द का एक गहरा मिला-जुला एहसास होता था, जिसे शब्दों में बांधना आसान नहीं है।"

साल 1947- जब भारत ने आजादी की पहली सांस ली

साल था 1947, भारत एक नवजात स्वतंत्र देश था। कश्मीर, जो स्वर्ग समान था, एक मोहरे की तरह खतरनाक राजनीति के शतरंज पर रखा गया था। अपने पीछे खून से सने बॉर्डर्स छोड़कर अंग्रेज चले गए थे। ज्यादातर रियासतों ने भारत या पाकिस्तान के पक्ष में फैसला ले लिया था। लेकिन, कश्मीर के महाराज बीच का रास्ता अपनाने की कोशिश में थे। पाकिस्तान ने इस मौके को हाथ से जाने नहीं दिया। उसने निर्दयी, हथियारबंद कबायली लड़ाकों को भेजा, जिनका एक ही मकसद था कि इससे पहले कि कश्मीर, भारत से मिले, उसे जबरदस्ती हथिया सकें। उस वक्त गांव जला दिए गए, औरतों पर अत्याचार हुआ, मुजफ्फराबाद राख हो चुका था, अब बारी बारामुला की थी, और इसके बाद श्रीनगर। घाटी हमारी मुट्ठियों से फिसलती जा रही थी। राष्ट्र के लिए नाजुक और भयावह क्षण में रंजीत राय ने एक ऐसे आह्वान का उत्तर दिया जिसने इतिहास की दिशा तय कर दी।

अक्टूबर 1947 की वो कॉल जिसने इतिहास बदल दिया

ऐसे मुश्किल समय में एक व्यक्ति ने इतिहास की पुकार को सुना, वो थे लेफ्टिनेंट कर्नल दीवान रणजीत राय। वह नाम जो शायद इतिहास की किताबों में बहुत अधिक दर्ज न हो, लेकिन सेना की आत्मा में गूंजता है। लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय ने अभी-अभी सिख रेजिमेंट की पहली बटालियन की कमान संभाली थी। वह केवल 35 साल के थे। वह जोश और जज्बे से भरे हुए थे और उनके अंदर देशप्रेम की चिंगारी जल रही थी। सैंडहर्स्ट से स्वॉर्ड ऑफ ऑनर प्राप्त, शांत आंखों और दिल में ड्यूटी के लिए जुनून लिए। उस वक्त खबर आई कि कबायली हमलावर पाकिस्तान से कश्मीर में घुस आए थे। मुजफ्फराबाद पर कब्जा कर लिया गया था और अब अगला था बारामूला। श्रीनगर और शायद पूरा कश्मीर खतरे में था।

उन्हें आदेश मिला कि तुरंत श्रीनगर एयरस्ट्रिप पर पहुंचकर उसे सुरक्षित करें और बारामुला की ओर बढ़ते कबायली हमलावरों को रोकें। नई बनी भारतीय सरकार ने हड़बड़ी मचाई। हमारे सैनिकों को श्रीनगर पहुँचाने के लिए तत्काल हवाई हमले की योजना बनाई गई। लेफ्टिनेंट कर्नल रंजीत राय को पहली सिख रेजिमेंट के कमांडिंग ऑफिसर के रूप में श्रीनगर में पहली प्रतिक्रिया का नेतृत्व करने का आदेश दिया गया, और उन्हें नवोदित हवाई पट्टी और चौकियों को सुरक्षित करने और हमलावरों को रोकने का काम सौंपा गया। उस समय किसी को नहीं पता था कि असल में नया इतिहास लिखने को तैयार है, जो डकोटा जहाज पर सवार हो रहा है।

बरमूला में हुआ कुछ ऐसा…

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जब 27 अक्टूबर, 1947 को कर्नल राय और उनकी बटालियन श्रीनगर पहुंची, तो रुकने का बिल्कुल समय नहीं था। हमलावर तेजी से आगे बढ़ रहे थे, गांवों को जला रहे थे, नागरिकों को मार रहे थे। कर्नल राय के आदेश साफ थे, उन्होंने सभी को "लाइन पर डटे रहने" को कहा था। उनके पास पर्याप्त साधन नहीं थे…मुट्ठी भर सैनिक थे…कोई तोपखाना नहीं था और कई दिनों तक कोई बैकअप भी नहीं था लेकिन वहां सैनिकों ने जो देखा, वो हैरान रह गए… उनका कमांडिंग ऑफिसर जरा भी नहीं हिला। एक बार भी नहीं। वह पैदल ही बारामूला की ओर बढ़ रहे थे, शांति से आदेश दे रहे थे, हमेशा आगे-आगे, उनकी नजर हर पहाड़ी पर टिकी थी। उनके शब्दों में अधिकार नहीं, बल्कि एकजुटता थी। "साडे जीवन तो वड्डा देश है… असी पहलां मरेंगे, पर कश्मीर नहीं टूटेगा।" देश हमारी जान से भी बड़ा है। हम पहले मर सकते हैं, लेकिन कश्मीर नहीं गिरेगा।

साहस जिसे सभी ने सराहा

उन मुश्किल घंटों में कर्नल राय का जोश किसी भी अनुशान से ज्यादा था। वह सामने से लीड कर रहे थे, सैनिकों के साथ आगे बढ़ रहे थे, उनके साथ सोते…उनके साथ खाते….
युद्ध की अफरा-तफरी में, वह पीछे से आदेश देने वाले व्यक्ति नहीं थे, बल्कि वह सबसे पहले पहाड़ी पर चढ़ रहे थे, हाथ में नक्शा, राइफल ताने, और तेज निगाहों के साथ। संशय के क्षणों में, उसकी शांत, अडिग उपस्थिति ही उनके सैनिकों को एकजुट कर रही थी।
अपनी पहले से ही कम संख्या वाली सेना को टुकड़ियों में बांटकर दबाव बनाने का उनका निर्णय, सैन्य कौशल की एक बेहतरीन मिसाल तो था ही, लेकिन यह जोखिम भरा काम भी था। जब उनके सैनिकों ने उन्हें गोलीबारी क्षेत्र में आगे बढ़ते देखा, पीछे हटे बिना, हिचकिचाए बिना, तो उन्होंने उनका पीछा इसलिए नहीं किया क्योंकि उन्हें ऐसा करने का आदेश दिया गया था, बल्कि इसलिए कि उन्हें उन पर और उनके नेतृत्व पर विश्वास था।
उनके एक सैनिक ने सालों बाद उन्हें याद करते हुए कहा था,
“साहब सामने गए…गोली चली…पर पीछे मुड़कर नहीं देखा, उस दिन हमें सवा लाख की ताकत महसूस हुई।”

अंतिम मोर्चा

बारामूला के पास, जब बटालियन पर भारी गोलाबारी शुरू हुई, कर्नल राय ने वह फैसला लिया जिसे लेकर कमांडर दुआ करते हैं कि उन्हें कभी न लेना पड़ा. कि उन्हें कभी सामना न करना पड़े, एक आखिरी कोशिश और फिर उन्होंने खुद हमले का नेतृत्व किया।
जैसे ही वह एक पहाड़ी पर चढ़ रहे थे, दुश्मन की गोलियों की बौछार ने उन्हें घायल कर दिया। वह नीचे गिरे, लेकिन पीछे हटकर नहीं। उस बहादुरी भरे हमले के कारण, दुश्मन को लगा कि कोई बड़ी सेना आगे बढ़ रही होगी। भ्रमित होकर, वे रुक गए। भारतीय सेना के पहुंचने के लिए मुश्किल से 48 घंटे का वह विराम पर्याप्त था। श्रीनगर पर कभी कब्जा नहीं किया गया और वह आज भी कश्मीर घाटी में हमारा रत्न बना हुआ है।

कर्नल राय को मिला यह सम्मान

कर्नल राय को मरणोपरांत देश के दूसरे सबसे बड़े वीरता पुरस्कार महावीर चक्र से सम्मानित किया गया। उनके पार्थिव शरीर का आनन-फानन में अंतिम संस्कार कर दिया गया। उनका नाम सिर्फ सुर्खियां बनकर रह गया। लेकिन सैनिकों के बीच उनकी गाथा अमर रही। कोई सेल्फी नहीं थी। कोई भव्य प्रतिमा नहीं थी। बस यादें पीढ़ियों से चुपचाप गुजरती रहीं।
सिख रेजिमेंट में अक्सर सामने आ जाती है। ‘रंजीत ने दिखा दिया कि कैसे लड़ते हैं पहली जंग…’

सालों बाद बक्से में मिली चिट्ठी

वर्षों बाद, एक जंग लगे आर्मी ट्रंक में कर्नल राय की बेटी को एक मुड़ा हुआ पत्र मिला, जो उनके नाम लिखा था। "अगर मैं यह आखिरी बार लिख रहा हूं, तो याद रखना कि मैं निराशा में नहीं मरा। मैं खड़ा रहा, यह विश्वास करते हुए कि भारत मेरे खून के हर बूंद के लायक है। एक दिन, तुम इसे शांति से पढ़ोगी, और वह शांति राजनीति से नहीं, बल्कि अपने रुख पर अड़े रहने वाले लोगों द्वारा खरीदी गई होगी।"


सीख जो हमें नहीं भूलनी चाहिए

कश्मीर सिर्फ एक दस्तखत से भारत में शामिल नहीं हुआ — वह खून, बलिदान और हिम्मत से भारत बना। कर्नल रणजीत राय, और उनके जैसे अनगिनत नायकों ने एक नवजात राष्ट्र के लिए अपनी जान दी, ताकि आज हम कह सकें — "कश्मीर हमारा है, और हमेशा रहेगा।" वो पहली जंग, वो पहली चिंगारी — आज भी हमारे गर्व का प्रतीक है और हम उस ज्वाला को कभी बुझने नहीं देंगे।

(लेखक- लेफ्टिनेंट जनरल शौकिन चौहान, पीवीएसएम, एवीएसएम, वाईएसएम, एसएम, वीएसएम, पीएचडी)


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