मुझे आज भी याद है वो दिन जब मेरी शादी के बाद विदाई के समय मैंने पापा को छिपकर रोते हुए देखा था। विवश थे वो शायद ! क्या करते आखिर अपनी बेटी का कन्यादान जो कर चुके थे। सिर्फ आशीर्वाद दे सकते थे कि बेटी जहां भी रहे खुश रहे। मुझे भी उस दिन एहसास हुआ कि क्या सच में मैं इतनी पराई हो गयी थी कि पापा खुलकर ये भी नहीं बोल सके कि 'बेटी तुम कहीं भी जाओ, लेकिन ये हमेशा तुम्हारा ही घर रहेगा और शादी तो एक रस्म है जो निभानी थी बस !
मेरे मन में ख्याल था कि आखिर क्यों सिर्फ बेटी का ही कन्यादान? क्या बेटी कोई वस्तु है जो किसी को भी दान में दी जा सके? क्यों नहीं होता है वर का दान ? आखिर क्यों नहीं लड़कों को छोड़ना पड़ता है अपना घर? आखिर क्यों सारी रस्में बेटियों के लिए ही बनाई गई हैं? सवाल बहुत से थे लेकिन जवाब अभी भी खोज रही हूं। जब भी एक पिता को कन्यादान करते और विदाई में रोते हुए देखती हूं बस एक ही आवाज दिल और दिमाग में गूंजती है। आखिर क्यों और कब तक........
कन्यादान का अर्थ
कन्या' का अर्थ है बेटी और 'दान' का अर्थ है देना। 'कन्यादान' या 'दुल्हन को विदा करना' एक लोकप्रिय हिंदू प्रथा है जहां दुल्हन का पिता अपनी बेटी को वर पक्ष को सौंप देता है। मान्यता के अनुसार वो शादी अधूरी मानी जाती है जिसमें इस रस्म को विधि पूर्वक न निभाया जाए। लेकिन क्या ये मान्यता सही है ? प्रश्न अभी भी वहीं का वहीं है कि क्या बेटी कोई दान की वस्तु है?
क्यों होता है कन्यादान
हिंदू धर्म में शादी के दौरान कई तरह की रस्में निभाई जाती हैं जिनमें से एक रस्म कन्यादान भी है। इसमें एक पिता अपनी बेटी के हाथ हल्दी से पीले करके उसके हाथ को वर के हाथ में सौंप देता है और इसके बाद वर कन्या के हाथ को पकड़कर ये संकल्प लेता है कि वो उसकी सारी जिम्मेदारी ताउम्र निभाएगा।
इसी रस्म को कन्यादान कहा जाता है जो सदियों से चली आ रही है। युग बदले, साल बदले, लेकिन समाज की सोच शायद अभी भी वहीं है, क्योंकि आज भी बेटी का ही होता है दान। मेरा एक सवाल आप सभी से है कि जब बेटी पूर्ण रूप से सक्षम है तो उसे दान में देने का भला क्या मतलब? आखिर क्यों एक पिता को ये विश्वास नहीं होता है कि बेटी हमेशा अपनी जिम्मेदारी सकुशल निभा सकती है और उसका दान जरूरी नहीं है।
कैसे शुरू हुई कन्यादान की रस्म
शास्त्रों में बताया गया है कि कन्या का दान सबसे पहले दक्ष प्रजापति ने किया था। उन्होंने अपनी 27 कन्याओं का विवाह चंद्रदेव से करवाया था जिससे सृष्टि का संचालन सही तरीके से किया जा सके।
तब उन्होंने चंद्रदेव को अपनी बेटियों की जिम्मेदारी सौंपते हुए कन्यादान किया था। दक्ष की इन 27 पुत्रियों को ही 27 नक्षत्र माना गया है और तभी से ये रस्म चली आ रही है जिसमें पिता अपनी पुत्री का कन्यादान करता है।
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आखिर कब तक होगा कन्यादान?
मेरा एक सवाल है कि जब आज के समाज में बेटियां बेटों से किसी भी मामले में कम नहीं हैं तो क्यों अभी भी इस रस्म का पालन होता है? क्या शादी में कन्या का दान नहीं किया जाएगा तो एक सफल विवाह की नींव नहीं रखी जा सकती है? आज भले ही कुछ लोगों की सोच बदल गई हो, लेकिन समाज नहीं बदला और शायद कभी बदल भी न सके, क्योंकि हमने आज तक ये सोचा ही नहीं है कि इसको बदला कैसे जा सकता है?
मेरी एक कलीग गीतू कत्याल का मानना है कि अगर ये प्रथा सदियों पहले शुरू हुई भी थी तो जब आज हम लड़कियां इतनी योग्य हैं कि हर जगह अपनी सफलता का परचम लहरा रही हैं तो क्यों आज भी किया जाता है कन्या का ही दान? क्या इस रस्म को दान का नाम देना ठीक है? क्या हम बेटियां कोई दान करने की चीज हैं?
वहीं मेरी एक और कलीग पूजा सिन्हा जो खुद दो बेटियों की मां हैं, उनके हिसाब से आखिर क्यों बेटी का दान किया जाए। बेटियां माता-पिता काअभिमान हैं और अगर आगे के समाज में इस रस्म को बदला जाए तो गलत नहीं होगा।(महिलाओं के लिए शादी के फायदे क्या हैं)
कुछ ऐसी शादियां जिनमें नहीं हुआ कन्यादान
कुछ लोगों ने समाज की सोच को ठुकराते हुए शादी में उदाहरण प्रस्तुत किया। एक्ट्रेस दीया मिर्जा उनमें से एक हैं जिन्होंने शादी तो की, लेकिन उनकी शादी में न तो कन्यादान हुआ और न ही विदाई। दीया का मानना है कि बदलाव को सिर्फ हम ही चुन सकते हैं और हमें क्या करना है ये भी हमारी ही इच्छा पर निर्भर है।
दीया ने उन रस्मों को नहीं निभाया जहां बेटी को किसी वस्तु की तरह दान दिया जाता है। वास्तव में उन्होंने एक ऐसा सवाल हमारे मन में जगा दिया कि अगर हम लड़कियां चाहें तो एक दिन समाज की सोच जरूर बदल सकती है। हां ये बहुत बड़ा सच है कि आखिर हम बेटियां क्यों होने देती हैं अपना दान?
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आखिर क्यों समय के साथ नहीं बदली सोच
समय बदल गया और बेटियों ने घर की दहलीज लांघकर खुले आसमान में उड़ान भरनी भी शुरू कर दी, लेकिन फिर भी समाज की सोच वहीं की वहीं। अब बेटियां करें भी तो क्या? अगर पिता को कन्यादान करने से मना करती हैं तो उनकी भावनाओं को ठेस पहुंच सकती है। अगर वो खुद को आत्मनिर्भर बनाकर पूरा जीवन अपनी शर्तों पर जीने का गुमान करती हैं तो उन्हें 'असभ्य नारी' का खिताब मिलता है। एक पुरुष प्रधान समाज की सोच आखिर बदलें भी कैसे?
आज जब हम लड़कियों की भूमिका में काफी बदलाव आया है। घर का काम और बच्चों का पालन-पोषण तक ही हमारी जिम्मेदारियां सीमित नहीं हैं, बल्कि घर के खर्च से लेकर, अहम् फैसलों तक की जिम्मेदारी भी हम बखूबी निभा सकती हैं, तो क्यों न इस टैबू को भी दूर करने की पहल की जाए कि हम कोई दान का सामान नहीं हैं.... इसलिए अब बस ! नहीं होगा 'कन्यादान'........
क्या है मेरी राय.....अब बस !
अब आप शायद सोच रहे होंगे कि अगर मैं इस 'कन्यादान' की रस्म को गलत मानती हूं तो अपनी शादी के समय इसे बदलने की कोशिश क्यों नहीं की? वास्तव में मैं गलत थी और उस समय शायद विवश थी।
परिस्थितियों को बदलना चाहती थी, लेकिन बदल न सकी। शायद उस समय मैंने भी एक बड़ा कदम उठाया होता तो शादी के बाद विदाई के समय पापा को ऐसे छिपकर रोने के बजाय गर्व से अपने सामने खड़ा हुआ देख पाती।
लेकिन मेरी समाज की हर एक लड़की से गुजारिश है कि आखिर कब तक हम परिस्थतियों की शिकार बनकर अपनी विवशता को दिखाती रहेंगी? क्यों न एक पहल की जाए, क्यों न हर एक शादी में हम लड़कियों की एक यही शर्त हो कि शादी के लिए भले ही हमारी कोई मांग न हो, लेकिन अब हमारा दान नहीं होगा। अब नहीं होगा 'कन्यादान'..... आखिर कब तक एक पिता शादी में वर पक्ष से आग्रह करेगा कि 'बेटी को खुश रखना और उसकी गलतियों को माफ़ करना।' आखिर क्यों और कब तक?? हम बेटियां नहीं हैं दान का सामान, हम हैं अपने पिता का अभिमान !
वास्तव में रस्मों के नाम पर आज भी बेटियों को कमजोर समझने वाली सोच को बदलने की जरूरत है। कन्यादान को लेकर ये थी मेरी राय, आपका इस बारे में क्या ख्याल है? हमें कमेंट सेक्शन में जरूर बताएं।
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Image Credit: Freepik.com, Unsplash.com
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