हिंदी साहित्य जगत में कई ऐसी महिलाएं रही हैं। जिन्हें उनकी लेखनी के लिए खूब सराहा गया है। उन्हीं में से एक शख्सियत आशापूर्णा देवी हैं, जिन्हें उनकी लेखनी और साहित्य जगत में योगदान के लिए ‘भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इतना ही नहीं साल 1994 में उन्हें साहित्य अकादमी अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।
आज के इस आर्टिकल में हम आपको भारतीय ज्ञानपीठ अवार्ड जीतने वाली पहली महिला आशापूर्णा देवी और उनके जीवन से जुड़े संघर्षों के बारे में बताएंगे। कि आखिर कैसे एक रूढ़िवादी परिवार से निकलकर आशापूर्णा साहित्य जगत में अपना नाम बनाया।
आशापूर्णा देवी का जन्म 8 जनवरी,1909 को उत्तरी कलकत्ता में हुआ। उनके पिता का नाम हरिनाथ गुप्त और मां का नाम सरोला सुंदरी था। पिता एक कलाकार थे, जिस कारण कला के गुण उन्हें पिता से मिले। आशापूर्णा का बचपन बंगाल के वृंदावन बसु गली में बीता, जहां के लोग बेहद परंपरागत और रूढ़िवादी थे। बिल्कुल वैसे ही सख्त माहौल उनके घर पर भी था। आशापूर्णा की दादी ने उनकी बहनों के स्कूल जाने पर पाबंदी लगा रखी थी। हालांकि, जब भी आशापूर्णा के भाई पढ़ाई करते, तब वह उन्हें सुनती है देखती थीं। इस तरह से उन्होंने अपनी प्रारंभिक शिक्षा पूरी की।
कुछ समय बाद आशापूर्णा के पिता अपने परिवार के साथ अलग जगह पर रहने लगे। तब जाकर उनकी पत्नी और बेटियों को पढ़ने का मौका मिल पाया।
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आशापूर्णा बचपन से ही अपनी बहनों के साथ कविताएं लिखती थीं। उस दौरान उन्होंने अपनी एक कविता पत्रिका के संपादक राजकुमार चक्रवर्ती को अपनी चोरी छिपाने के लिहाज से दी थी। तब संपादक ने उनसे और कविताएं लिखने के लिए कहा। इसी के साथ साहित्य की दुनिया में उनका लेखन शुरू हो गया। अपने जीवनकाल में उन्होंने साहित्य को कई कविताएं दी।
आशापूर्णा देवी को साल 1976 में उन्हें ‘ प्रथम प्रतिश्रुति’ के लिए भारतीय ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया। इसके बाद साल 1994 में उन्हें साहित्य जगह के सबसे बड़े पुरस्कार साहित्य अकादमी अवार्ड भी दिया गया।
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आशापूर्णा देवी ने हर उम्र के पाठक को ध्यान में रखते हुए कहानियां लिखी। उन्होंने बच्चों के लिए ‘छोटे ठाकुरदास की काशी यात्रा’ पुस्तक लिखी, जो साल 1938 प्रकाशित की गई। इसके अलावा उन्होंने साल 1937 में पहली बार वयस्कों के लिए ‘पत्नी और प्रेयसी’ जैसी कहानी भी लिखी।
आशापूर्णा देवी का पहला उपन्यास साल ‘प्रेम और प्रयोजन’ था, जो साल 1944 में प्रकाशित हुआ। साहित्य को अपना जीवन समर्पित करने के बाद आखिरकार 13 जुलाई साल 1995 को आशापूर्णा ने दुनिया से अलविदा कर दिया। आज भी उन्हें पहली महिला ज्ञानपीठ पुरस्कार विजेता के रूप में याद किया जाता है। आपको हमारा यह आर्टिकल अगर पसंद है तो इसे लाइक और शेयर करें, साथ ही ऐसी जानकारियों के लिए जुड़े रहें हर जिंदगी के साथ।
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