मैं तो कई बार बैठे-बैठे ही ख्यालों में खो जाती हूं और मुझे यकीन है कि आपमें से कई लोग भी ख्यालों में अपना समय निकाल देते होंगे। क्या आपको पता है कि इस तरह से हर वक्त ख्यालों में खोना एक डिसऑर्डर हो सकता है? अब आप सोच रहे होंगे कि यह तो आम है फिर यह डिसऑर्डर कैसे हुआ? बात दरअसल यह है कुछ सेकंड्स के लिए ख्यालों में खोना बिल्कुल भी बुरा नहीं है, लेकिन हममें से अधिकतर लोग डे-ड्रीमिंग करते हुए समय को ही भूल जाते हैं और घंटों उसमें अपना समय बर्बाद करते हैं।
डे-ड्रीमिंग क्या वाकई है एक डिसऑर्डर, क्या कहती है स्टडी?
क्या आप भी बैठे-बैठे ख्यालों में खोना पसंद करती हैं? आपको पता है कि यह एक तरह का डिसऑर्डर है। इसके बारे में चलिए विस्तार से जानें।
कई सारे शोधों से यही पता चलता है कि डे-ड्रीमिंग करना एक डिसऑर्डर है। इस आर्टिकल में चलिए इसे और भी विस्तार से समझने की कोशिश करते हैं।
दुनियाभर के 2.5% लोग हुए शिकार
ब्रिटेन में डे-ड्रीमिंग को लेकर एक शोध किया गया था। यूनिवर्सिटी ऑफ ससेक्स की एसोसिएट लेक्चरर ने शोध में बताया कि दुनियाभर में 2.5 प्रतिशत लोग यानी 20 करोड़ लोग इसका शिकार हुए हैं। इसे मलाडाप्टिव डे-ड्रीमिंग कहा जाता है, जिसे सरल शब्दों में आप ख्यालों में खोने का नशा भी कह सकते हैं।
वहीं एक अन्य शोध में यह सामने आया कि मलाडाप्टिव डे-ड्रीमिंग के शिकार हुए लोग तरह-तरह की फैंटेसी में खोए रहना पसंद करते हैं और इसके चक्कर में अपना पूरा-पूरा दिन बर्बाद करते हैं। वह अपनी जिम्मेदारियों को कल पर टालने लगते हैं।
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क्या है डे-ड्रीमिंग डिसऑर्डर?
इसे मलाडाप्टिव डिसऑर्डर भी कहा जाता है। आम डे-ड्रीमिंग से यह बिल्कुल अलग है क्योंकि वह कुछ ही सेकंड्स के लिए रहती है। हालांकि, जो लोग इस डिसऑर्डर से गुजर रहे हैं वह एक ही सपने में कई घंटे निकाल देते हैं। एक अध्ययन के अनुसार, ऐसे डे-ड्रीमर्स ने अपने जागने के घंटों का औसतन कम से कम आधा समय जानबूझकर फैंटेसी की दुनिया में डूबे रहने में बिताया। ये आविष्कृत दुनिया अक्सर जटिल भूखंडों और जटिल कथानकों के साथ समृद्ध और काल्पनिक होती हैं, जो कई वर्षों में विकसित होती हैं।
मलाडाप्टिव डे-ड्रीमर्स की यह दुनिया रिवॉर्डिंग होती है और फैंटेसी को जारी रखने की आवश्यकता बाध्यकारी और नशे की लत हो सकती है। इस डिसऑर्डर में ख्यालों में रहने की इच्छा बढ़ती ही जाती है और जब यह संभव नहीं होता या उसमें रुकावट आती है तो झुंझलाहट होती है।
ख्यालों में क्यों खोते हैं लोग?
शोधकर्ताओं का मानना है कि जो लोग इस डिसऑर्डर से गुजर रहे हैं, उनमें अत्यधिक कल्पनाशील कल्पनाओं के लिए एक सहज क्षमता हो सकती है। कई लोग इस क्षमता को बचपन में ही खोज लेते हैं और उन्हें लगता है कि ख्यालों की दुनिया से वह स्ट्रेस को कम कर सकते हैं। आराम की आंतरिक दुनिया बनाकर, वे वास्तविकता से बचने में सक्षम हो जाते हैं (तनाव कम कैसे करें)।
कई लोगों को बचपन में कल्पनाशील कल्पनाएं बनाने की क्षमता का पता चलता है, लेकिन जरूरी नहीं कि सभी मलाडाप्टिव डे-ड्रीमर्स के लिए डे-ड्रीमिंग एक कोपिंग स्ट्रेटेजी हो। उदाहरण के लिए, लोग ख्यालों में खोकर अपनी असल जिंदगी में हो रहे स्ट्रेस, ट्रॉमा और सोशल आइसोलेशन से निपटने में मदद लेते हैं मगर यही चीज एक आदत बन जाती है। नेगेटिव इमोशन से बचने के लिए आप ऐसे फेंटेसी वर्ल्ड बनाते रहे हैं और फिर यह इच्छा बढ़ती जाती है।
डे-ड्रीमिंग से हो सकता है कई बीमारियों का खतरा
जी हां, इस डिसऑर्डर के चलते आप ADHD, OCD, एंग्जायटी, डिप्रेशन का खतरा बढ़ने की संभावना रहती है। एक शोध में यह सामने आया है कि मलाडाप्टिव डे-ड्रीमिंग से पीड़ित कुछ लोगों में ऑब्सेसिव कंप्लसिव डिसऑर्डर OCD के लक्षण भी दिखे। यह दो डिसऑर्डर के बीच के मेकेनिज्म के कारण हो सकता है, जिसमें कॉग्निटिव कंट्रोल, दखल देने वाले विचार शामिल हैं (चिंता और बेचैनी को इन फूड्स से भगाएं)।
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अगर आप भी जरूरत से ज्यादा डे-ड्रीमिंग कर रहे हैं तो ऐसा न करें। कुछ समय के लिए यह आपको बोरियत से बचा सकता है। कई बार इससे आपकी क्रिएटिविटी भी बढ़ सकती है, लेकिन इसकी अधिकता आपको कमजोर कर सकती है।
अगर आप इस तरह की परेशानी से गुजर रहे हैं तो सीधा अपने डॉक्टर से संपर्क करें। खुद को अन्य एक्टिविटीज में व्यस्त रखें। हमें उम्मीद है यह जानकारी आपको पसंद आएगी। अगर लेख पसंद आया तो इसे लाइक और शेयर जरूर करें। ऐसे ही लेख पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
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