इतिहास हमें बताता है कि सन 1826 में फ्रेंच साइंटिस्ट जोसफ नाइसफोर नीस (joseph nicéphore niépce) ने अपने फैमिली होम की पहली फोटोग्राफ ली थी। तब से लेकर अब तक फोटोग्राफी काफी बदल गई है। फोटोग्राफी में अलग-अलग एक्सप्रेशन से लेकर अलग-अलग फिल्टर तक काफी कुछ आ गया है। पर शुरुआती दौर में फोटोग्राफी ब्लर होती थी और 1830 के दशक से लेकर 2024 तक इसमें बहुत बदलाव हो गए हैं। अब ऐसे कैमरे भी आ गए हैं, जो एक-एक मूवमेंट को भी कैप्चर कर लें।
यकीनन आज के जमाने में फोटोज के मायने बदल गए हैं जहां फोटोज खींचना बस एक क्लिक का काम रह गया है, लेकिन पहले ऐसा नहीं होता था। पहले तस्वीरों को खींचने के लिए बहुत तैयारी करनी पड़ती थी और यह सिर्फ एक ही काम नहीं होता था।
एक बात जो पुराने जमाने की ब्लैक एंड व्हाइट तस्वीरों में कॉमन दिखती है वह यह कि इस दौरान लोग तस्वीरें खिंचवाते समय हंसना नहीं पसंद करते थे। शादी हो या फिर कोई जलसा सभी के चेहरे पर एक सीरियसनेस बनी रहती थी। आजकल जहां पाउट बनाकर हंसते-खिलखिलाते हुए फोटो खींचना ट्रेंड है, वहीं उस समय का ट्रेंड था सीरियस दिखना, लेकिन ऐसा क्यों? भला कोई जान बूझकर क्यों तस्वीरों में सीरियस दिखना चाहेगा?
आखिर क्यों सीरियस फेस के साथ तस्वीरें खिंचवाते थे लोग?
इसके पीछे एक दो नहीं बल्कि तीन कारण बताए जाते हैं।
1. तस्वीरें ब्लर होने के डर से
पहले के जमाने में तस्वीरें खिंचवाना महंगा सौदा होता था क्योंकि किसी एक आध फोटोग्राफर के पास यह सुविधा होती थी। पहे एक फोटो लेने के लिए कई मिनट लग जाते थे। कैमरे इतने स्लो होते थे कि फोटोग्राफर को हाथ से व्हील घुमाकर फिल्म निकालनी पड़ती थी। अब ऐसे समय में अगर सामने वाला इंसान चेहरे पर कोई एक्सप्रेशन देता था, तो कैमरा उस एक्सप्रेशन को ठीक से कैप्चर नहीं कर पाता था जिसकी वजह से फोटो ब्लर हो जाती थी।
अगर कोई स्माइल करे भी, तो कई मिनटों तक स्माइल होल्ड करके रखना आसान नहीं होता। इसलिए लोग सीधे खड़े रहकर या बैठकर साधारण एक्सप्रेशन देने की कोशिश करते।
हालांकि, सन 1900 आते-आते कैमरा ऐसे हो गए थे जिनमें एक्सपोजर टाइम कम हो और लोग अच्छे से स्माइल कर पाएं, लेकिन फिर भी लोगों ने सीरियस चेहरा बनाकर फोटो खिंचवाना जारी रखा। इसे आप आदत भी कह सकते हैं और सोसाइटी का नियम भी।
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2. पेटिंग्स की तरह दिखने की चाह
एक लॉजिक जो इसका निकाला जा सकता है वह यह है कि जब तक कैमरा नहीं आया था, लोग घंटों तक एक जगह बैठकर पेंटिंग्स बनवाया करते थे। बड़े और अमीर घरानों के लोग पेंटिंग्स बनवाते थे और उसमें कोई और एक्सप्रेशन देने की जगह अपना चेहरा साधारण रखना पसंद करते थे। किसी भी पेंटिंग में ज्यादा स्माइल करते हुए लोग नहीं दिखते थे। कैमरा के सामने स्माइल करने का मतलब होता था कि हम अपनी पोर्ट्रेट नहीं बनवा रहे। फोटोग्राफी को उस समय अलग एस्थेटिक माना जाता था। उसमें पेंटिंग की तरह रंग नहीं भरे जा सकते थे, ऐसे में खुद को गंभीर दिखाना पोर्ट्रेट का एक तरीका मात्र हो सकता है।
3. मरने के बाद भी खींची जाती थी लोगों की तस्वीरें
अगर आपकी तस्वीर 100 साल बाद देखी जा रही है, तो भी लोग आपको याद कर रहे हैं। फोटोग्राफी को उस समय अमर होने का तरीका भी माना जाता था। मरे हुए लोगों की पेंटिंग्स नहीं बनाई जा सकती थी, लेकिन मरे हुए लोगों की कई तस्वीरें आपको मिल जाएंगी। पुराने जमाने में ऐसा एक ट्रेंड भी था जिससे लोगों को याद रखा जाए। पोस्टमोर्टम फोटोग्राफी ट्रेडिशन के बारे में आपको इंटरनेट पर जानकारी आसानी से मिल जाएगी। अब मरे हुए लोग अपना चेहरा तो दिखा नहीं सकते और ना ही कोई एक्सप्रेशन दे सकते हैं। इसलिए भी ऐसी तस्वीरें खींची जाती थीं।
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धीरे-धीरे जैसे-जैसे हालात बदले, वैसे-वैसे ही लोगों ने फोटोग्राफी में एक्सप्रेशन देना शुरू किया। डांस और अलग-अलग आर्ट फॉर्म की तस्वीरें ली गईं, 1930 के बाद यानी पहली फोटो खींचने के 100 साल बाद तक फोटोग्राफी की दुनिया ने तरक्की की। कैमरे का एक्सपोजर टाइम कम हुआ और लोगों ने कैमरे के आगे मुस्कुराना शुरू किया, लेकिन सही मायने में एक्सप्रेशन वाली तस्वीरें हमें तभी से देखने को मिलती हैं जब से रंगीन कैमरा आया और फिल्में बनना शुरू हुईं। भले ही फिल्म ब्लैक एंड व्हाइट हो उसमें चेहरा मुस्कुराता हुआ दिखत सकता था और अन्य कई एक्सप्रेशन आ सकते थे।
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Image Credit: Shinjini Mehrotra/ Freepik
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