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हिंदू धर्म के अनुसार मंदिर में क्यों होते हैं केवल पुरुष पुजारी? क्या है इसका रहस्य

हिंदू धर्म में पूजा-पाठ और मंदिरों के कई नियम बनाए गए हैं और ऐसी कई प्रथाएं प्रचलित हैं जो सदियों से चली आ रही हैं। उन्हीं में से एक प्रथा यह भी है कि मंदिरों में पुजारी के रूप में पुरुष ही होते हैं। आइए जानें इसके कारणों के बारे में।
Editorial
Updated:- 2024-12-13, 19:40 IST

हिंदू धर्म में किसी भी पूजा-पाठ और अनुष्ठानों का विशेष महत्व है। ऐसे में मंदिरों में पूजा करने वाले पुजारी देवताओं के प्रति श्रद्धा और भक्तों के बीच एक सेतु का कार्य करते हैं। जो भक्तों को ईश्वर से जोड़ते हैं और उनके बीच सामंजस्य बनाते हैं। आपने अक्सर देखा होगा कि अधिकतर मंदिरों में पुजारी के रूप में पुरुष ही होते हैं और पूजन से लेकर अन्य कर्म कांडों तक में पुरुष ही हिस्सा लकेट हैं।

जबकि महिलाएं इस भूमिका में बहुत ही कम नजर आती हैं। यह परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है, लेकिन इसके पीछे धार्मिक, सांस्कृतिक और सामाजिक कारण छिपे हैं। आपके मन में भी कई बार ये ख्याल जरूर आता होगा कि जब हर जगह महिलाएं पुरुषों के साथ आगे बढ़ रही हैं फिर हिंदू धर्म में मंदिर जैसे स्थानों पर महिलाओं की जगह सिर्फ पुरुषों के पुजारी होने का क्या मतलब है और इस परंपरा के पीछे की मुख्य धारणा क्या है। आइए इस लेख में ज्योतिर्विद पंडित रमेश भोजराज द्विवेदी से इसके बारे में विस्तार से जानें।

वेदों और शास्त्रों के नियम

male priest at home

हिंदू धर्म के शास्त्रों और वेदों में पूजा-अर्चना के लिए कुछ विशेष नियम और विधियां निर्धारित की गई हैं। प्राचीन समय से ही यह मान्यता रही है कि यज्ञ, अनुष्ठान और देवताओं की आराधना में पुरुषों की भागीदारी हमेशा से अधिक उपयुक्त मानी जाती है। इसका प्राचीन समय से यह तात्पर्य हो सकता है कि पहले के जमाने में महिलाएं घर की जिम्मेदारियों में इतनी व्यस्त रहती थीं कि वो बाहर की कोई जिम्मेदारी निभाने में असमर्थ होती थीं। उसी समय से ये प्रथा चल गयी कि पुरुष बाहर के काम संभालेंगे।

ऐसे में मंदिर, आश्रम और मठ आदि की जिम्मेदारी ही पुरुषों को दे दी गई। उसी समय से यह प्रचलित है कि हिंदू धर्म में मंदिरों की बागडोर पुरुषों के हाथ में ही होगी।

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शुद्धता और मासिक धर्म

हिंदू शास्त्रों के अनुसार, महिलाओं के मासिक धर्म चक्र को पूजा और धार्मिक कार्यों के समय बाधक माना जाता है। इस दौरान महिलाओं को पूजा-पाठ, अनुष्ठान और मंदिर में प्रवेश से परहेज करने की सलाह दी जाती है। इस मान्यता का आधार प्राचीन काल से पवित्रता और शुद्धता के सिद्धांतों पर आधारित है।

शास्त्रों में यह समय महिला शरीर के शारीरिक और मानसिक विश्राम के लिए महत्वपूर्ण माना गया है। इसे ध्यान में रखते हुए पूजा और धार्मिक गतिविधियों से दूरी बनाए रखना उचित समझा गया।

इसके साथ ही, यह भी माना गया कि धार्मिक कार्यों की प्रक्रिया में संपूर्ण ध्यान और ऊर्जा की आवश्यकता होती है, जो मासिक धर्म के दौरान संभव नहीं हो पाती है। इसी कारण से प्राचीन काल से ही मंदिरों और पूजा-पाठ की जिम्मेदारी अधिकतर पुरुषों को सौंपी गई है।

आध्यात्मिक ऊर्जा का संतुलन बनाए रखने के लिए

male priest at hindu temple

हिंदू शास्त्रों में पुरुषों और महिलाओं की ऊर्जा को क्रमशः 'सूर्य ऊर्जा' और 'चंद्र ऊर्जा' का प्रतीक माना गया है। सूर्य ऊर्जा को तेज, शक्ति और स्थिरता का प्रतीक समझा जाता है, जबकि चंद्र ऊर्जा को शीतलता, संवेदनशीलता और सृजनात्मकता का प्रतीक माना जाता है। यह मान्यता है कि देवताओं की पूजा और आराधना के लिए सूर्य ऊर्जा अधिक उपयुक्त होती है, क्योंकि इसमें शक्ति और तप का प्रभाव प्रबल होता है।

पुरुषों में स्वाभाविक रूप से सूर्य ऊर्जा अधिक प्रबल मानी जाती है, जो उन्हें धार्मिक अनुष्ठानों और देव पूजा में प्रभावी बनाती है। वहीं, महिलाओं की चंद्र ऊर्जा उन्हें पारिवारिक और सृजनात्मक भूमिकाओं में अधिक समर्थ बनाती है। इस ऊर्जा संतुलन के आधार पर ही शास्त्रों में पुरुषों को मंदिरों में पूजा-पाठ की जिम्मेदारी अधिक दी गई है।

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सुरक्षा और सामाजिक संरचना

प्राचीन काल से ही से ही मंदिरों की सुरक्षा और वहां के कार्यों की निगरानी का दायित्व पुजारियों के हाथ में होता था। चूंकि महिलाएं पारिवारिक दायित्वों और सामाजिक संरचनाओं में अधिक व्यस्त रहती थीं, इसलिए उन्हें इस भूमिका में शामिल नहीं किया जाता था और इसी का पालन आज भी किया जा रहा है।
इसके साथ ही हिंदू धर्म में पूजा और अनुष्ठान के लिए तपस्या और ब्रह्मचर्य को बहुत महत्वपूर्ण माना जाता है। पुजारियों को जीवन में सादगी और ब्रह्मचर्य का पालन करना पड़ता है, ताकि उनकी साधना और पूजा प्रभावी हो सके।

सामाजिक संतुलन बनाए रखने के लिए

why male as a priest in temple

महिलाओं को गृहस्थ जीवन और पारिवारिक दायित्वों के प्रति अधिक जिम्मेदार माना जाता है। इसलिए आरंभ से ही उनका ध्यान इन कार्यों में केंद्रित रहा और पूजा-अर्चना की जिम्मेदारी पुरुषों को दी गई। हालांकि प्राचीन परंपराओं में महिलाओं के मंदिरों में पुजारी बनने के उदाहरण कम मिलते हैं, लेकिन यह कहना गलत होगा कि महिलाओं को पूरी तरह से पूजा-अर्चना से वंचित रखा जाता था। आज भी कुछ विशेष मंदिरों में महिलाएं पुजारिन के रूप में कार्य करती हैं। उदाहरण के लिए, दक्षिण भारत के कुछ मंदिरों में महिलाएं मुख्य पुजारिन के रूप में हैं।

आमतौर पर मंदिरों में पुजारी के रूप में पुरुष ही विराजमान होते हैं. लेकिन समाज में बढ़ते बदलाव और समानता की भावना के कारण, अब कई स्थानों पर महिलाओं को भी पुजारी बनने का अवसर दिया जा रहा है।
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