नगरवधू किसे कहते थे और किन्हें मिलती थी यह पदवी? जानिए इनका पौराणिक इतिहास

प्राचीन भारत में कई तरह की प्रतिष्ठित महिलाओं की भूमिकाएं थीं जो कला, धर्म और सामाजिक कार्यों से जुड़ी थीं। इनमें से एक भूमिका थी नगरवधू की, जिसके बारे में हम आपको बताने वाले हैं। 
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प्राचीन भारत में नगरवधू एक ऐसा शब्द था, जो समाज में बहुत ही खास और सम्मानित महिला के लिए इस्तेमाल किया जाता था। यह कोई आम महिला नहीं होती थी, बल्कि वह सुंदरता, कला और बुद्धिमत्ता में सबसे आगे होती थी। नगरवधू का मतलब था कि नगर की दुल्हन या पूरे नगर की पत्नी यानी वह महिला जो पूरे शहर की सांस्कृतिक प्रतिनिधि होती थी।

किसे कहते थे नगरवधू?(Nagarvadhu In Ancient India)

इतिहास की सबसे प्रसिद्ध नगरवधू का उदाहरण वैशाली की आम्रपाली का है, जो बहुत ही सुंदर और गुणवान थीं। बड़े-बड़े राजा उनके मुरीद थे। लेकिन, आखिर में आम्रपाली ने बुद्ध के मार्ग को अपनाया और पूरी तरह से साध्वी जीवन जीने लगीं। हमें यह समझना होगा कि नगरवूध होना केवल ग्लैमर या सम्मान की बात नहीं थी, बल्कि इसके पीछे मुश्किलों से भरा जीवन भी था। आज हम आपको इस आर्टिकल में बताने वाले हैं कि नगरवधू कौन होती थीं, उन्हें यह उपाधि कैसे और क्यों दी जाती थी, इसका ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व क्या था?

कैसे होता था नगरवधू का चयन?(Who Became Nagarvadhu In Ancient India)

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प्राचीन काल में नगरवधू बनने के लिए महिलाओं के बीच प्रतियोगिता होती थी, जिसमें नृत्य, संगीत, कविता और सौंदर्य के जरिए सबसे योग्य महिला को चुना जाता था। जो महिला नगरवूध बनती थी, वह समाज के ऊंचे वर्ग जैसे राजा, मंत्री और सम्मानित लोगों की तरह मानी जाती थी। नगरवूध की भूमिका बहुत असरदार होती थी। वह केवल नाच-गाना ही नहीं करती थीं, बल्कि कई बार राजनीतिक फैसलों पर भी उनका गहरा प्रभाव होता था। वे अपनी बातों और सोच से राजाओं और नेताओं को कई बार प्रभावित कर देती थीं। कई बार नगरवधू अपने नगर की कला, संगीत और संस्कृति को आगे बढ़ाने में अहम योगदान देती थीं।

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नगरवधू का इतिहास और महत्व

प्राचीन भारत में नगरवधू शब्द का इस्तेमाल उन क्षेत्रों में होता था, जहां बौद्ध धर्मों का प्रभाव था। यह उपाधि केवल सुंदरता से नहीं बल्कि संस्कृति, साहित्य और सामाजिक प्रभाव को देखते हुए दिया जाता था। प्राचीन ग्रंथों और उपन्यासों में नगरवधुओं को खास जगह दी गई है। इन ग्रंथों में नगरवधू के जीवन, कला, और समाज में उनके महत्व को बहुत सुंदर तरीके से दिखाया गया है।

संस्कृत नाटक मृच्छकटिका में वसंतसेना नाम की महिला को नगरवूध के रूप में दिखाया गया है, जो नृत्य-संगीत में माहिर होती है और अपने विचारों और निर्णयों से समाज पर प्रभाव डालती है। वहीं, तमिल महाकाव्य सिलप्पतिकारम में माधवी नाम की एक और नगरवधू का जिक्र आता है।

नगरवधू की सामाजिक स्थिति

नगरवधू के पास एक बड़ा महल, कई दासियां और सेविकाएं हुआ करती थीं और उन्हें सम्मान दिया जाता था। कहा जाता है कि उस समय नगरवधू जब अपने महल में नृत्य, संगीत या भोज रखती थीं, तो एक तय शुल्क देकर ही लोग उसमें शामिल हो पाते थे। वैसे तो, नगरवधुओं के महल नगर से बाहर बनाए जाते थे, ताकि शहर की नैतिक और कानूनी व्यवस्था में कोई बाधा ना आ सके।

प्राचीन भारत में महिलाएं और उनकी भूमिकाएं

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प्राचीन भारत में नगरवधू के अलावा, राजनर्तकी, गणिका, रूपजीवा और देवदासी जैसी भूमिकाएं भी शामिल थीं। हर भूमिका की अलग पहचान और अलग काम होता था।

रूपजीवा (Roopajeeva)

प्राचीन भारत में रूपजीवा मुख्य रूप से नगर गायन, नृत्य और अभिनय से अपनी आजीविका कमाती थीं। उनका काम लोगों का मनोरंजन करना होता था और वह सार्वजनिक कार्यक्रमों में भाग लेती थीं।

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गणिका (Ganikas)

प्राचीन भारत में गणिकाएं सुंदर ही नहीं, बल्कि बहुत शिक्षित और गुणी हुआ करती थीं। उन्हें शास्त्र, संगीत, राजनीति और बातचीत की अच्छी समझ होती थीं। समाज के ऊंचे तबके के लोग इनका आदर करते थे।

देवदासी (Devadasi)

प्राचीन भारत में देवदासी वे महिलाएं होती थीं, जो खुद को मंदिर और धर्म की सेवा में समर्पित कर देती थीं। उन्हें ईश्वर की दासी माना जाता था। वे मंदिरों में नाच-गाना, पूजा करना और धार्मिक अनुष्ठानों में भाग लिया करती थीं।

बौद्ध धर्म से संबंध

नगरवधू की परंपरा खासतौर पर उन क्षेत्रों में अधिक देखने को मिलती थी, जहां बौद्ध धर्म का प्रभाव था। जैसे कि वैशाली, इसलिए आम्रपाली बौद्ध धर्म की सबसे प्रतिष्ठित भिक्षुणियों में से एक बनीं। उनका जीवन इस बात का उदाहरण है कि कैसे एक नगरवधू आध्यात्मिकता की ओर मुड़ी और समाज को नई दिशा दी।

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Image Credit- wikipedia

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