भारतीय पौराणिक ग्रंथों में ऐसे कई प्रसंग देखने को मिलते हैं जिनसे दुनिया अभी तक अंजान है। ऐसे ही प्रसंगों में एक है रामायण की ऐसी कथा जो राजा दशरथ की मृत्यु के बाद उनके लिए किये जाने वाले संस्कारों से जुड़ी हुई है। रामायण ग्रन्थ में ऐसे कई प्रसंग मौजूद हैं जो धर्म, समाज और कर्तव्यों के बारे में गहन सीख प्रदान करते हैं।
ऐसा ही एक प्रसंग रामायण से जुड़ा हुआ है कि राजा दशरथ की मृत्यु के बाद उनकी आत्मा की शांति हेतु पिंडदान का संस्कार किसने निभाया। हिंदू धर्म की मान्यता अनुसार पितरों की मुक्ति हेतु पिंडदान संस्कार निभाया जाता है और यह पुत्र के द्वारा ही किया जाता है। वहीं रामायण में एक प्रसंग यह भी आता है कि राजा दशरथ के लिए यख संस्कार उनके पुत्र प्रभु श्री राम निभाने में असमर्थ थे। ऐसे में दशरथ जी का पिंडदान किसने किया और उस दौरान उनके सभी पुत्र कहां थे, आइए इसके बारे में विस्तार से यहां जानें।
राजा दशरथ अयोध्या के महान और धर्मपरायण राजा थे। यही नहीं राजा होने के साथ ही वो प्रभु श्री राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न के पिता भी थे।
उनका जीवन राम के वनवास में जाने के बाद से ही दुखदायी मोड़ पर आ गया था, क्योंकि राम जी के वियोग में राजा दशरथ ने अपने प्राण ही त्याग दिए। जब कैकेयी के दो वरदानों की वजह से उन्हें राम को 14 वर्षों के लिए वनवास भेजना पड़ा उस समय दशरथ यह वियोग सह नहीं पाए और उनकी मृत्यु हो गई। राजा दशरथ की मृत्यु के समय ऊके कोई भी पुत्र नहीं थे क्योंकि राम और लक्ष्मण वन गए हुए थे और भारत व शत्रुघन अपने ननिहाल में थे।
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पौराणिक कथाओं की मानें तो राजा दशरथ का पिंडदान उनके किसी भी पुत्र नहीं बल्कि पुत्र वधु माता सीता ने किया था। दरअसल जिस समय श्री राम माता सीता और लक्ष्मण समेत वनवास काट रहे थे उसी समय पितृ पक्ष की अवधि में वो अपने पिता दशरथ का पिंडदान करने हेतु बिहार के गया नाम के स्थान पर पहुंचे।
उस समय विधि-विधान से श्राद्ध कर्म करने और पिंडदान करने की इच्छा से वो इससे जुड़ी सभी सामग्रियों को जुटाने के लिए नगर की ओर चले गए। उसी समय दशरथ जी की चिता की राख उड़कर गया में स्थित नदी के पास पहुंची। उस समय वहां दशरथ जी के पुत्रों में से कोई भी मौजूद नहीं था।
ऐसे में माता सीता ने ही दशरथ जी का पिंडदान किया। आज भी ऐसी मान्यता है कि जो भी व्यक्ति अपने पूर्वजों का पिंडदान गया शहर में नदी के किनारे करता है उनके पूर्वजों को तुरंत मुक्ति मिलती है और घर में मौजूद कोई भी पितृ दोष दूर हो जाता है। इस स्थान को मुक्तिधाम के नाम से भी जाना जाता है। गरुण पुराण में भी इस बात का जिक्र मिलता है।
जिस समय माता सीता गया में नदी के किनारे बैठी हुई श्री राम और लक्ष्मण का इंतजार कर रही थीं उसी समय राजा दशरथ की चिता की राख उड़ती हुई उनके पास आई।
उस समय उस राख में माता सीता को दशरथ जी की छवि दिखाई दी और उनकी छवि माता सीता से बोल पड़ी कि उनके पास अब ज्यादा समय नहीं है और जल्दी ही उनका पिंडदान होना चाहिए। उस समय दशरथ जी के पुत्रों में से कोई भी मौजूद नहीं था, इसलिए माता सीता ने वहां मौजूद ब्राह्मणों, फाल्गुनी नदी, गाय, तुलसी और अक्षयवट को पिंडदान का साक्षी बनाया और अपने ससुर जी का पिंडदान किया। जब श्री राम वापस आए तो माता सीता ने श्री राम को सब कुछ बता दिया।
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हिंदू धर्म में पिंडदान का विशेष महत्व है। यह एक ऐसा अनुष्ठान है जो मृत व्यक्ति की आत्मा की शांति के लिए किया जाता है। मान्यता है कि यदि किसी मृत व्यक्ति के लिए पिंडदान नहीं किया जाता है तो उसकी आत्मा को शांति नहीं मिलती है और आत्मा शरीर से निकलकर इधर-उधर भटकती रहती है।
यह कर्म आमतौर पर मृतक के पुत्रों द्वारा करना शुभ माना जाता है, लेकिन पुत्र की अनुपस्थिति में पुत्र वधु या पंडित भी इस अनुष्ठान को कर सकते हैं। ऐसी मान्यता है कि यदि कोई अपने पितरों का पिंडदान नहीं करता है तो उनकी आत्मा को शांति नहीं मिलती है और घर में पितृ दोष लग सकता है।
रामायण की कहानियों में से एक प्रचलित कथा यह भी है कि दशरथ जी का पिंडदान उनके पुत्रों की जगह पुत्रवधू ने किया था। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से। अपने विचार हमें कमेंट बॉक्स में जरूर भेजें।
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