सावन का महीना भगवान शिव को समर्पित है। इस दौरान भोलेबाबा की पूजा-अर्चना की जाती है। मगर सावन की शुरुआत इस राज्य में बड़ी धूमधाम से की जाती है। आपने हरेला के बारे में सुना है? यह उत्तराखंड का लोक पर्व है, जिसमें सुख-समृद्धि और खुशहाली की कामना की जाती है। हरेला प्रकृति से जुड़ा एक महत्वपूर्ण पर्व है। हरेला पर्व के जश्न के साथ ही सावन की शुरुआत मानी जाती है।
चातुर्मास में हर तरफ हरियाली और मन में अथाह उल्लास होता है। इस समय होने वाली वर्षा पर्वतीय क्षेत्रों की फसल के लिए उपयोगी होती है, इसलिए किसान प्रकृति का शुक्रिया अदा करते हैं और इस पर्व को धूमधाम से मनाते हैं। यह पर्व क्या है, कब मनाया जाएगा और इसका महत्व क्या है, आइए इस आर्टिकल में आपको बताएं।
क्या है हरेला पर्व?
हरेला हिंदू चंद्र कैलेंडर के पांचवे महीने में मनाया जाता है। इसका अर्थ‘हरियाली का दिन’ है। इस पर्व में भगवान शिव और देवी पार्वती की भी पूजा-अर्चना की जाती है। उत्तराखंड के लोग, खासकर कुमाऊं क्षेत्र में हरियाली को समृद्धि से जोड़कर देखा जाता है। इस मौके पर सभी विभागों द्वारा पौधारोपन अभियान होता है। सरकारी विभागों से लेकर स्थानीय लोग तक पौधारोपन करते हैं।
इसे परीक्षण त्योहार भी कहा जाता है और मानते हैं कि इसके तिनके को देखकर काश्तकार आसानी से अंदाज लगा लेते हैं कि बीच की गुणवत्ता कैसी है और इस बार किस तरह की फसल होगी।
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कैसे मनाते हैं हरेला का पर्व और क्या है इसका महत्व
सावन लगने से नौ दिन पहले हरेला बोने के लिए डिकोरी का चयन होता है। फिर इस पात्र में मिट्टी डालने के बाद इसमें गेहूं, जौ, धान, गहत, भट्ट, उड़द, सरसों के बीजों को बो दिया जाता है। नौ दिनों तक इस पात्र में रोजाना पानी छिड़कना होता है फिर दसवें दिन तैयार हुए हरेला को काटा जाता है। बता दें घर में सुख-समृद्धि के प्रतीक के रूप में ही हर साल हरेला बोया व काटा जाता है। ऐसी मान्यता है कि हरेला जितना अच्छा होगा उतनी ही फसल भी बढ़िया होगी।
वहीं, घरों में मिट्टी से शिव-पार्वती और गणेश-कार्तिकेय के प्रतीक बनाए जाते हैं। हरेले के साथ-साथ भगवान शिव के पूरे परिवार की पूजा की जाती है। हरेला काटकर सबसे पहले इष्टदेव व अन्य देवताओं को अर्पित करने के बाद परिवार के सदस्यों को हरेला पूजा जाता है।
हरेला के पीछे का साइंस
जैसा कि हमने बताया कि हरेला पर पौधारोपन होता है। ऐसा माना जाता है कि यदि इस दिन किसी पेड़ की टहनी भी मिट्टी में रोपी जाए तो उसमें भी कलियां निकल आती हैं। इसके पीछे का विज्ञान कहता है कि चतुर्मास में बारिश बहुत होती है। यह बारिश पर्वतीय क्षेत्रों के लिए अच्छी होती है। इस समय जो भी पौधे रोपे जाते हैं, वे आसानी से खिल जाते हैं और उनकी फसल भी बढ़िया होती है।
हरेला पर गाया जाता है लोकगीत-
कुमाऊं क्षेत्र में इसका बहुत महत्व है। पर्व के दिन पूजा करने के दौरान घर की महिलाएं और सभी सदस्य मंडली में जुटकर लोकगीत गाते हैं। हरेला के लिए लोकगीत है-
जी रये जागी रये,
यो दिन यो बार भेंटने रये।
दुब जस फैल जाए,
बेरी जस फली जाईये।
हिमाल में ह्युं छन तक,
गंगा ज्यूं में पाणी छन तक,
यो दिन और यो मास
भेंटने रये।।
अगाश जस उच्च है जे,
धरती जस चकोव है जे।
स्याव जसि बुद्धि है जो,
स्यू जस तराण है जो।
जी राये जागी राये।
यो दिन यो बार भेंटने राये।।
इसका हिंदी अनुवाद है- आप भी जीते रहो, सजग रहो। आपकी उम्र लंबी हो। तुम्हारी लंबी उम्र हो। इस शुभ दिन पर हर वर्ष मुलाकात हो। जैसे दूर्वा अपनी मजबूत पकड़ के साथ धरती में फैलती जाती है, वैसे आप भी समृद्ध होना। बेरी के पौधों की तरह आप भी हर परिस्थिति में आगे बढ़ना। जब तक हिमालय में बर्फ रहेगी और जब तक गंगा जी मे पानी रहेगा, ऐसी मुलाकात होती रहे, ऐसी कामना है। कामना है कि आपका कद आकाश जितना ऊंचा हो और धरती जैसे फलो-फूलो। आपकी बुद्धि सियार जैसी तीव्र हो। आपके शरीर मे चीते की जैसी, ताकत और फुर्ती हो। आप जीते रहें और खुश रहें।
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कब मनाया जाएगा हरेला पर्व?
हरेला पर्व कल यानि 16 जुलाई 2024 को मनाया जाएगा। इस दिन सुबह से ही उत्तराखंड के पर्वतीय क्षेत्र के लोग पूजा-अर्चना में लग जाएंगे।
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Image credit: Jagran and haridwarrishikeshtourism
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