भगवान शिव के मुकुट का था हिस्सा, इसे जिसने भी लगाया हाथ हो गया बर्बाद, जानिए 'नसाक' हीरे की कहानी

 भगवान शिव की तीसरी आंख खुलती है तो प्रलय आता है, यही मान्यता नसाक के बारे में सच निकली जिसे शिव की तीसरी आंख की तरह त्र्यंबकेश्वर में सजाया गया था। 

How did nassak diamond left india

नासिक में स्थित त्र्यंबकेश्वर शिवलिंग की तीसरी आंख माना जाने वाला नसाक हीरा। वो हीरा जिसने बहुतों की जिंदगी को बर्बाद कर दिया। माना जाता है कि शिव के मुकुट में होने की जगह यह हीरा किसी और के पास गया और फिर शुरू हुई विशान की दास्तां। भगवान शिव भेलो बाबा भी हैं और अगर क्रोध आए तो तांडव भी कर सकते हैं। इस हीरे को लेकर ना जाने कितनी ही बातें मशहूर हैं। किसी का कहना है कि यह अंग्रेजों ने लूटा था, तो किसी का कहना है कि मुगलों ने इसे शिव की मूर्ति से बाहर निकाला था, लेकिन सच्चाई कुछ और ही है।

नसाक हीरा दुनिया के कई हिस्सों में रहा है और यह दुनिया के 20 सबसे अनोखे हीरों में से एक है।

क्यों इतना खास है नसाक हीरा?

यह हीरा 43.38 कैरेट का है और जब यह मिला था तो यह 89 कैरेट का हीरा था। इसे भारत में 15वीं सदी में खोजा गया था। इसे गोलकोंडा की खान से निकाला गया था। 1930 में एक लॉ सूट के कारण इसकी इंश्योरेंस की गई थी और तब इसकी कीमत 4 से 5 लाख डॉलर थी जो भारतीय रुपयों में 4 करोड़ के आस-पास थी। अब इसकी कीमत 76 करोड़ रुपये से भी ज्यादा होगी।

nassak diamond in triambakeshwar

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आखिर कैसे भगवान के मुकुट तक पहुंचा नसाक?

नसाक हीरे की कहानी वहीं से शुरू हुई है जहां से दुनिया के बाकी सबसे मशहूर हीरों जैसे द होप डायमंड, द ओरलोव, द रीजेंट और कोहिनूर की है। गोलकोंडा माइन्स से ही दुनिया के ये मशहूर हीरे निकले हैं। आंद्र प्रदेश (अब तेलंगाना) के गुंटूर जिले में मौजूद गोलकोंडा में 23 माइन्स रही हैं जिसमें से एक है कोल्लूर और एक अमरागिरी सबसे प्रसिद्ध मानी जाती है। इनमें से ही दुनिया के प्रसिद्ध हीरे निकले हैं। अब यह खदान बंद हो चुकी है, लेकिन 19वीं सदी तक यही दुनिया की सबसे प्रसिद्ध हीरे की खदानों में से एक थी।

यहीं से 15वीं सदी में नसाक हीरा निकला था। इसे इतिहास में बहुत बार बदला गया है और काटा गया है, तभी इसका असली शेप किसी को नहीं पता। इसकी कटिंग कुछ ऐसे की गई थी जिससे यह कोहिनूर की तरह लगे।

कुछ कहानियां कहती हैं कि इसे मुगलों ने ही निकाला था और यह कुतुब शाही वंश के हाथ भी लगा है। पर सबसे प्रसिद्ध कहानी मानती है कि यह हीरा माइन होने के बाद मराठा साम्राज्य में गया। उस वक्त राज परिवार ने इसे त्र्यंबकेश्वर मंदिर दान दे दिया।

15वीं सदी से 16वीं सदी तक यह नासिक के मंदिर में ही रहा। मुगलों के दौर में कई बार इस मंदिर पर आक्रमण करने की कोशिश की गई, लेकिन यह हीरा मुगलों के हाथ नहीं लगा। नासिक में होने के कारण ही इस हीरे को नाम नसाक मिला। इसे भगवान शिव की तीसरी आंख के तौर पर पूजा जाता था।

मुगल-मराठा युद्धों में से कई इस मंदिर के लिए लड़े गए, लेकिन किसी तरह से मुगलों ने इस मंदिर को बचा लिया। मराठा परिवार ने त्र्यंबकेश्वर मंदिर की गरिमा को बचाए रखा, लेकिन आने वाला समय कुछ और ही कहानी लिखने वाला था।

अंग्रेजों ने लूट ही लिया नसाक...

भले ही ऊपर बताई जो भी कहानी सच्ची हो, लेकिन यह मान्य है कि सन 1817 में ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी और मराठा साम्राज्य की लड़ाई शुरू हुई। यही थी तीसरी एंग्लो-मराठा वॉर जिसे हिस्ट्री की क्लास में शायद आपने भी पढ़ा होगा। इस लड़ाई में नसाक मंदिर से गायब हो गया था। यह लड़ाई 1818 में खत्म हुई और नसाक के गायब होने के बाद से ही ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी का राज भारत में आ गया।

स्थानीय कहानियां मानती हैं कि ब्रिटिश सिपाहियों ने इस हीरे को मंदिर से निकाला था, लेकिन ब्रिटिश रिपोर्ट्स मानती हैं कि इस हीरे को आखिरी पेशवा राजकुमार बाजी राव द्वितीय ने खुद अंग्रेजी कर्नल जे.ब्रिज्स को दिया था। ब्रिज्स ने इसे फ्रांसिस रॉडन-हास्टिंग्स को दिया। हास्टिंग्स ने ही पेशवा के खिलाफ मिलिट्री ऑपरेशन्स शुरू किए थे। हास्टिंग्स ने इस हीरे को ईस्ट इंडिया कंपनी को दे दिया और फिर यह हीरा इंग्लैंड लाया गया। यहीं इसे 1818 में लंदन के डायमंड मार्केट में बेच दिया गया था।

nassak diamond original shape

साल 1818 के बाद बदला नसाक का रूप

लंदन मार्केट में जब यह हीरा पहुंचा तब इसका वजन 89 कैरेट था, लेकिन इसे तराशा गया। हिलबर्ट टिलैंडर (Herbert Tillander) की किताब "Diamond Cuts in Historic Jewelry – 1381 to 1910" में इस हीरे का जिक्र है और इसे उस वक्त 3000 पाउंड में रंडल एंड ब्रिज नामक ब्रिटिश ज्वेलरी फर्म को बेचा गया। उस वक्त इस हीरे को बहुत अच्छा नहीं माना गया था क्योंकि इसकी सतह चमकदार नहीं थी।

इसके बाद इस हीरे को अलग-अलग खरीदार मिले। कुछ समय के लिए यह हीरा ड्यूक ऑफ वेस्टमिनिस्टर की तलवार में भी था। इस हीरे को देखने के लिए कई लोग उत्साहित रहते थे। पर कहानियां बताती हैं कि इसके बाद उनकी सत्ता भी खत्म होने लगी, घरेलू कलह से उनकी हालत खराब हो गई और तब से ही इस हीरे के शापित होने की बातें सामने आने लगीं।

नसाक जिसके हाथ भी लगा कभी नहीं टिका

हीरे को लेकर इस तरह की कहानियां प्रचलित होने लगीं कि यह जहां भी जाएगा विनाश ही होगा। ड्यूक ने यह हीरा फारसी जौहरी जॉर्ज मौबुसीन को बेच दिया। इस हीरे को 100 साल से ज्यादा समय पहले निकाला गया था और यूएस लॉ मानता था कि इसे टैक्स फ्री इम्पोर्ट किया जा सकता था। पर जैसे ही मौबुसीन ने यह हीरा खरीदा उसके दुशमन और अमेरिकी होलसेल डायमंड डीलर एफ. बेंडलर ने इसके खिलाफ केस कर दिया।

1927 तक मौबुसीन ने इसे बेचने की कोशिश की और स्पेन के मार्शल के साथ सौदा भी पक्का हो गया, लेकिन यह बिक्री कभी नहीं हुई और केस चलता रहा।

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इस हीरे को चुराने की कोशिश भी की गई पर चोर सफल नहीं हुए। इसके बाद मौबुसीन की फर्म ने न्यूयॉर्क में एक स्टोर भी खोला, लेकिन स्टॉक मार्केट क्रैश होने के बाद उसे बंद करना पड़ा। आखिर 1930 में इस हीरे पर केस का फैसला आया और मौबुसीन को इसपर फिर 20% टैक्स देना पड़ा।

ऐसा भी माना जाता है कि जेपी मॉर्गन के बेटे जेपी मॉर्गन जूनियर ने इस हीरे को एक बार अपनी पत्नी को तोहफे के तौर पर दिया था, लेकिन उनका हाल भी ड्यूक की तरह हुआ और घरेलू कलह के कारण उनकी हालत खराब हो गई।

दूसरे विश्व युद्ध के समय नसाक को हिटलर से बचाने के लिए छुपाया भी गया, लेकिन आखिर में यह अमेरिका में ही मिला। इसे इसका मौजूदा रूप दिया जौहरी हैरी विंस्टन ने और 1970 मकी एक बोली में इसे 4 करोड़ से भी अधिक कीमत में खरीदा गया।

माना जाता है कि 1977 में सऊदी के राजा ने इसे एक प्राइवेट कलेक्टर को बेचा था। मौजूदा समय में नसाक को भारत वापस लाने की मांग होती रहती है और इसका हाल वैसा ही है जैसा कोहिनूर का।

नसाक अभी लेबनान के एक म्यूजियम में रखा हुआ है और ऐसा माना जाता है कि यह हीरा अपनी यात्रा पूरी करके किसी ना किसी दिन वापस अपने स्थान त्र्यंबकेश्वर मंदिर पहुंच ही जाएगा। तब दोबारा भारत का नया युग शुरू होगा।

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