महिलाओं की जनसंख्या पुरुषों के बराबर ही होती है और फिर भी लगभग हर जगह महिलाओं की कमी महसूस होती है। नहीं-नहीं मैं सड़क पर चलने वाले लोगों की बात नहीं कर रही हूं बल्कि संसद से लेकर बड़े ऑफिस तक में इस तरह की स्थिति की बात कर रही हूं। आपको बता दें कि 2013 की एक रिपोर्ट के हिसाब से तो लोक सभा में सिर्फ 11% महिलाएं थीं और राज्य सभा में 10.6% इसके बाद महिलाओं का रिजर्वेशन 33% करने की बात पर भी जोर दिया जा रहा है।
अब एक सवाल जो मन में आता है वो ये कि आखिर महिलाओं की जनसंख्या बराबर होने के बाद भी उनकी संख्या संसद में इतनी कम क्यों है? ये वो स्थिति है जब महिलाओं के बारे में फैसला लेने के लिए ही महिलाएं मौजूद नहीं होती हैं। हाल ही में लड़कियों की विवाह की लीगल एज पर फैसला होना है। इसके लिए एक पैनल बनाया गया है जिसमें 30 पुरुष और सिर्फ 1 ही महिला है।
लड़कियों के विवाह पर फैसला लेने के लिए क्यों नहीं है महिलाएं मौजूद?
अभी तक बाल विवाह को 18 साल से कम उम्र का विवाह माना जाता था, लेकिन अब अगर लीगल एज ही 21 हो जाती है तो इसे लेकर परिभाषा बदल सकती है। ये लड़कों के लिए तो 21 ही है, लेकिन लड़कियों के लिए ये 18 है और अभी फैसला लड़कियों को लेकर ही होना है।(महिलाओं के समान अधिकार के लिए लड़ने वाली डॉ. हंसा)
इस फैसले के लिए बिल तो पास हो चुका है, लेकिन अभी पैनल बनाया गया है जो ये तय करेगा कि इसे कैसे किया जाए और ये सही भी होगा या नहीं।
इसे लेकर सभी तरह के पक्षों को रखा जाएगा और इस पैनल में 31 सदस्य हैं, लेकिन सिर्फ 1 ही महिला है जो हैं राज्य सभा सदस्य टीएमसी एमपी सुष्मिता देव। सुष्मिता देव का कहना है कि वो सभी पहलुओं पर ध्यान देंगी और ये कोशिश करेंगी और चेयरमैन के सामने अपना पक्ष रखेंगी। उनके हिसाब से भी इस कमेटी में ज्यादा सदस्य होने चाहिए थे।
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क्यों ये कानून है बहुत जरूरी?
ये बिल संसद में शीत सत्र के दौरान पास हुआ था और इसे लेकर काफी पॉजिटिव रिस्पॉन्स मिला है। एक बार अगर ये बिल कानून बन जाता है तो ये देश के हर शहर में लागू कर दिया जाएगा। भारतीय ईसाई मैरिज एक्ट, पारसी मैरिज एंड डाइवोर्स एक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ (शरीयत), स्पेशल मैरिज एक्ट, हिंदू मैरिज एक्ट, फॉरेन मैरिज एक्ट आदि सभी कानूनों में बदलाव किया जाएगा। सभी में शादी की लीगल एज बदल सकती है।
दरअसल, मैटरनल मोर्टेलिटी रेट (MMR) को बेहतर बनाने के लिए एक कमेटी का गठन किया गया था और उस 10 सदस्यों वाली कमेटी ने ये फैसला लिया था लड़कियों के शरीर में न्यूट्रिशनल स्टैंडर्ड बढ़ाना और उनकी कम उम्र में शादी को रोकना बहुत जरूरी हो गया है। इस कमेटी में माना गया कि अगर महिलाओं की लीगल शादी करने की उम्र बढ़ा दी जाती है तो ये नवजात बच्चों के लिए भी अच्छा होगा।
पर अगर ये महिलाओं के लिए इतना जरूरी है तो फिर क्यों महिलाएं ही शामिल नहीं हैं?
पैनल नहीं मैनल का रहा है ट्रेंड-
ये पहली बार नहीं है जब किसी ऐसी जरूरी चीज़ के लिए महिलाओं को शामिल नहीं किया गया है। दरअसल, महिलाओं के बारे में जरूरी फैसले भी पुरुष ही लेते हैं।
जिन लोगों को मैनल्स (Manels) के बारे में नहीं पता मैं उन्हें बता दूं कि पुरुषों के पैनल या कमेटी को मैनल भी कहा जाने लगा है। ये किसी स्लैंग की तरह है जो ये दर्शाता है कि सिर्फ पुरुष ही किसी जरूरी फैसले को लेने के लिए मौजूद रहते हैं। अधिकतर जगहों पर तो ये होता है कि किसी जरूरी कमेटी में एक भी महिला को नहीं रखा जाता है।
पब्लिक इवेंट, पॉलिसी मीटिंग, हेल्थ इकोनॉमिक्स, वाद-संवाद, अंतरराष्ट्रीय रिलेशन्स आदि में पुरुष ही मौजूद रहते हैं। इसे कई लोग कई तरह के तर्कों से वाजिब बताने की कोशिश करेंगे जैसे 'इस फील्ड में महिलाएं कम हैं, महिलाओं को ज्यादा फील्ड वर्क नहीं करना होगा, लीगल फैक्ट्स को महिलाएं कम समझेंगी और ना जाने क्या-क्या', लेकिन एक बात जो मैनल्स के बारे में कही जा सकती है वो ये कि ये सेक्सिस्ट हैं और ये उस दुनिया को नहीं दिखाते जिसमें हम रहते हैं।
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महिलाएं अगर इस दुनिया में बराबरी में मौजूद हैं तो केवल पुरुषों को ही क्यों एक्सपर्ट्स की तरह पेश किया जाता है ये बात समझ से परे है। सोचने वाली बात ये है कि अगर महिलाओं के लिए फैसले लेने के लिए भी पुरुष ही मौजूद रहेंगे तो फिर ऐसा हम किस बिनाह पर कह सकते हैं कि वो फैसले महिलाओं के हक में होंगे या सही ही होंगे।
2022 में भी अगर ये हो रहा है तो हम कैसे इसे सही मान सकते हैं। महिला सशक्तिकरण पर बड़ी-बड़ी बातें करना आसान है, लेकिन असल में उसके लिए काम करना बहुत मुश्किल।
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