जब देश में हर रोज महिलाओं के खिलाफ अत्याचार, यौन हिंसा और बलात्कार की खबरें आती हैं, तब न्यायपालिका ही वो अंतिम दीवार बनती है जो सच और झूठ के बीच का फर्क करती है। लेकिन इसी दीवार पर कुछ ऐसे मुकदमे भी दस्तक देते हैं, जो न केवल कानून की भावना के खिलाफ होते हैं, बल्कि उन असल पीड़िताओं की लड़ाई को भी कमजोर कर देते हैं जो हर दिन न्याय की उम्मीद में जीती हैं।
झूठे वादों, अधूरे इश्क और कानूनी दांव-पेंचों से जुड़ी एक अहम याचिका पर सुप्रीम कोर्ट ने हाल ही में फैसला सुनाया है, जो कई झूठे रेप मामलों पर सीधा असर डाल सकता है। अदालत ने स्पष्ट किया कि यदि कोई महिला किसी विवाहित पुरुष के साथ उसकी वैवाहिक स्थिति की जानकारी होने के बावजूद सहमति से शारीरिक संबंध बनाती है, तो उसे ‘झूठे वादे पर रेप’ नहीं कहा जा सकता।
यह फैसला उस मामले में आया, जिसमें एक पूर्व न्यायिक अधिकारी पर एक महिला ने शादी का झांसा देकर बलात्कार का आरोप लगाया था। हालांकि, महिला को पहले से पता था कि वह व्यक्ति विवाहित है और अलग रह रहा है। सुप्रीम कोर्ट ने यह मानते हुए कि यह संबंध आपसी सहमति से बना था, अभियोग को खारिज कर दिया।
देखा जाए तो यह फैसला कानूनी दृष्टि से इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि इसमें ‘सहमति’, ‘भ्रम की स्थिति’ और ‘झूठे वादे’ की गहराई से व्याख्या की गई है।
यह सवाल खड़ा करता है कि क्या जो रिश्ता जो टूट जाए, उसे रेप का मुकदमा बना देना सही है? क्या हर प्रेम संबंध जिसमें शादी नहीं हुई, उसमें महिला को विक्टिम की भूमिका दे देना उचित है? नहीं। सहमति तब भी सहमति होती है जब वह कठिन फैसलों के साथ आती है।
ऐसे मुकदमे उन असली पीड़िताओं को भी नुकसान पहुंचाते हैं जिनकी चीखें सिस्टम में दब जाती हैं। जब कोई झूठा केस सामने आता है, तो पूरे समाज में यह भ्रम फैलता है कि हर महिला की शिकायत झूठी हो सकती है। यह अविश्वास उन सैकड़ों-हजारों महिलाओं पर सीधा वार करता है जो वाकई में पीड़ित हैं।
आखिर क्या था पूरा मामला?
14 दिसंबर 2015 को अपीलकर्ता पर महिला थाना, हल्दिया में एफआईआर दर्ज की गई थी। वह अब रिटायर्ड सिविल जज (सीनियर डिवीजन) हैं। आपको बता दें कि यह मामला भारतीय दंड संहिता की धारा 376 (बलात्कार), 417 (धोखाधड़ी) और 506 (धमकी) के तहत दर्ज हुआ।
शिकायतकर्ता उस वक्त तलाक की प्रक्रिया से गुजर रही थीं। उन्होंने आरोप लगाया कि उनकी मुलाकात हल्दिया में तैनात तत्कालीन एसीजेएम (जूडिशियल मजिस्ट्रेट) से हुई, जिन्होंने उन्हें शादी का भरोसा दिलाया और उनके साथ-साथ उनके बेटे की भी जिम्मेदारी लेने की बात कही। इसी भरोसे पर महिला ने उनके साथ शारीरिक संबंध बना लिए।
शिकायत में यह भी कहा गया कि आरोपी ने उन्हें एक किराये का मकान दिलवाया, बेटे का स्कूल में दाखिला करवाया और रोजमर्रा के खर्चों के लिए पैसे भी भेजते रहे। लेकिन जब महिला का तलाक फाइनल हो गया, तो आरोपी ने दूरी बनानी शुरू कर दी, बातचीत बंद कर दी और अपने सुरक्षा गार्ड को कह दिया कि वह महिला से मिलने न दें।
30 अप्रैल 2020 को इस मामले में चार्जशीट दाखिल की गई और मजिस्ट्रेट ने 1 मई 2020 को इसका संज्ञान लिया। इसके बाद आरोपी ने सीआरपीसी की धारा 227 के तहत खुद को आरोपमुक्त करने की अर्जी दी, जिसे 4 जनवरी 2024 को सेशन कोर्ट ने खारिज कर दिया। यह फैसला कोलकाता हाई कोर्ट ने भी सही ठहराया और राहत नहीं दी।
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जानकारी के बाद भी रिश्ता साल भर चला
अपीलकर्ता की ओर से वकील ने कोर्ट में कहा कि दोनों के बीच शारीरिक संबंध आपसी सहमति से बने थे और यह रिश्ता करीब एक साल तक चला। वकील ने ये भी तर्क दिया कि महिला को पूरी जानकारी थी कि अपीलकर्ता अपनी पत्नी से अलग रह रहे हैं, लेकिन उनका तलाक नहीं हुआ है।
ऐसे में अगर शादी का कोई वादा किया भी गया था, तो वह सिर्फ एक आश्वासन था, जिसकी कानूनी तौर पर कोई वैधता नहीं थी। इसलिए इसे बलात्कार का मामला नहीं माना जा सकता। उन्होंने यह भी कहा कि इसमें कोई धोखा या धमकी जैसी बात नहीं थी, इसलिए IPC की धारा 417 और 506 भी लागू नहीं होती।
वहीं पश्चिम बंगाल राज्य की तरफ से एक हलफनामा दाखिल किया गया, जिसमें कहा गया कि आरोपी ने एक न्यायिक अधिकारी होने का फायदा उठाकर महिला का भरोसा जीता और शादी का झूठा वादा करके उसका शारीरिक शोषण किया।
राज्य सरकार ने यह भी कहा कि आरोपी के सुरक्षा गार्ड और ड्राइवर के बयान इस पूरे घटनाक्रम में एक पैटर्न की ओर इशारा करते हैं और महिला के आरोपों की पुष्टि करते हैं।
राज्य की ओर से यह भी कहा गया कि इस मामले में पहली नजर में ही अपराध बनता है और हाई कोर्ट ने आरोपी को आरोपमुक्त न करके सही फैसला लिया था।
अब सुप्रीम कोर्ट ने सुनाया अपना फैसला
सुप्रीम कोर्ट की बेंच ने इस मामले में पहले से तय कानूनी फैसलों का हवाला दिया। उन्होंने प्रमोद सूर्यभान पवार बनाम महाराष्ट्र राज्य (2019) वाले केस का हवाला देकर अपना फैसला सुनाया। कोर्ट ने कहा कि अगर किसी महिला से शादी का झूठा वादा किया गया हो, तो उसे तभी बलात्कार माना जा सकता है जब वह वादा बुरी नीयत से किया गया हो और महिला का शारीरिक संबंध बनाने का फैसला सीधे उसी झूठे वादे से जुड़ा हो।
कोर्ट ने यह भी टिप्पणी की कि यह मानना मुश्किल है कि शिकायतकर्ता ने सिर्फ शादी के वादे के आधार पर ही शारीरिक संबंध बनाए थे।
इस आधार पर सुप्रीम कोर्ट ने माना कि दोनों के बीच बना रिश्ता आपसी सहमति से था और महिला के लगाए गए आरोप कानूनी रूप से उस स्तर पर नहीं पहुंचते कि उन पर बलात्कार या धोखाधड़ी जैसे गंभीर अपराध चलाए जाएं।
अंत में कोर्ट ने कहा कि यह मामला कानून की प्रक्रिया का गलत इस्तेमाल है और ऐसे मामलों में ट्रायल चलाना ठीक नहीं। इसलिए सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले में दर्ज आपराधिक कार्यवाही को रद्द कर दिया और कोलकाता हाई कोर्ट का पिछला आदेश भी खत्म कर दिया। इस अपील को स्वीकार कर लिया गया और किसी तरह का जुर्माना भी किसी पार्टी पर नहीं लगाया गया।
सिस्टम को आइना दिखाने वाला है फैसला
यह फैसला सिर्फ एक व्यक्ति को राहत देने वाला नहीं, बल्कि उस पूरे सिस्टम को आइना दिखाने वाला है, जहां कभी-कभी कानून को हथियार की तरह इस्तेमाल किया जाता है।
ऐसे केस न केवल बेगुनाह लोगों की छवि को मिट्टी में मिलाते हैं, बल्कि असली रेप सर्वाइवर्स की आवाज को भी कमजोर करते हैं। जब झूठे मामलों की तादाद बढ़ती है, तो पुलिस से लेकर कोर्ट तक हर जगह एक संदेह की दीवार खड़ी हो जाती है। और तब जब कोई सच में पीड़िता बनकर सामने आती है, तो उसे सबसे पहले 'विश्वास' नहीं बल्कि 'शक' की निगाहों से देखा जाता है।
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क्या सुप्रीम कोर्ट के ऐसे फैसले मिसाल बन सकते हैं?
सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला एक मिसाल जरूर बनेगा, लेकिन यह तभी असरदार होगा जब जांच एजेंसियां मामलों की गहराई से पड़ताल करें। बिना जांच के सिर्फ महिला के बयान के आधार पर चार्जशीट दाखिल करना बंद हो।
साथ ही, कोर्ट्स त्वरित सुनवाई करें, ताकि निर्दोष व्यक्ति सालों तक ट्रायल की यातना न झेले। वहीं, फर्जी केस साबित होने पर सख्त कार्रवाई होनी भी बेहद जरूरी है,ताकि झूठा केस दर्ज कराने वालों को भी सजा मिल सके।
जरूरी है कि लोगों के बीच लीगल अवेयरनेस बढ़ाई जाए, खासकर महिलाओं में कि सहमति से बने रिश्ते और जबरन बनाए गए रिश्तों में क्या फर्क होता है।
जेंडर न्यूट्रल लॉ की जरूरत पर दोबारा बहस शुरू होनी भी जरूरी है, क्योंकि आज के समाज में दोनों ही जेंडर किसी भी मोड़ पर विक्टिम बन सकते हैं।
हर महिला की बात सुनना और उस पर विश्वास करना जरूरी है, लेकिन हर बात का फैक्ट्स के साथ एनलाइज करना भी उतना ही आवश्यक है। सुप्रीम कोर्ट का यह फैसला बताता है कि कानून भावनाओं से नहीं, तथ्यों और न्याय से चलता है। अब वक्त है कि कानून का डर बनाए रखने के साथ-साथ उसके दुरुपयोग पर भी लगाम लगनी चाहिए, ताकि पीड़ित को न्याय मिले, लेकिन निर्दोष को सजा न मिले।
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