सुप्रीम कोर्ट के पांच जजों ने अपने ऐतिहासिक फैसले में समलैंगिकता को अपराध करार देने वाले कानून को आंशिक तौर पर समाप्त कर दिया और समलैंगिकों के सहमति से बने संबंधों को कानूनी स्वीकृति प्रदान कर दी है।
Three cheers to the judges of the Supreme Court. They have undone a disgraceful judgment by one of their own and shamed UPA and NDA Governments who put bigotry above humanity. https://t.co/YYcqnFQNqP
— Ramachandra Guha (@Ram_Guha) September 6, 2018
सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ में मुख्य न्यायाधीश दीपक मिश्रा, जस्टिस रोहिंटन नरीमन, जस्टिस एएम खानविलकर, जस्टिस डीवाई चंद्रचूड़ और जस्टिस इंदु मल्होत्रा शामिल हैं। दशकों की लंबी कानूनी लड़ाई के बाद एलजीबीटी एक्टिविटिस्ट्स के लिए यह एक बड़ी जीत मानी जा रही है।
ब्रिटिश काल का कानून आंशिक तौर पर खत्म
ब्रिटिश काल के समय के कानून धारा 377 के तहत समलैंगिकों के बीच संबंध बनाना प्रकृति के विरुद्ध बताया गया था और इसके लिए अधिकतम दंड आजीवन कारावास का था। कानून के जानकारों का मानना है कि समलैंगिकों के अधिकारों के लिए लड़ रहे वकील, जिन्होंने मामले पर कोर्ट में जिरह की ने आखिरकार समलैंगिकों के प्रति होने वाले अन्याय और कानूनी कार्रवाई खत्म करने का संदेश दिया है। हालांकि यह कानून पूरी तरह से लागू नहीं किया गया था, लेकिन इसके कारण समलैंगिक समुदाय में भय का माहौल था। अब इस कानून को खत्म किए जाने से समलैंगिकों में न्याय मिलने की आस जाग गई है।
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अब तक के मुख्य अपडेट्स
- इससे पहले 17 जुलाई को चीफ जस्टिस दीपक मिश्रा की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यों की संविधान पीठ ने धारा-377 की वैधता को चुनौती वाली याचिकाओं पर अपना फैसला सुरक्षित रख लिया था। उस समय उन्होंने स्प्ष्ट कर दिया था कि इस कानून को पूरी तरह से निरस्त नहीं किया जाएगा। कोर्ट ने कहा था कि यह दो समलैंगिक वयस्कों में सहमति से बनाए गए यौन संबंध तक ही सीमित रहेगा।
- पीठ ने कहा कि अगर धारा-377 को पूरी तरह खत्म कर दिया जाएगा तो अराजकता की स्थिति पैदा हो सकती है। हम सिर्फ दो समलैंगिक वयस्कों द्वारा सहमति से बनाए गए यौन संबंध पर विचार कर रहे हैं। यहां सहमति ही सबसे अहम है। केन्द्र सरकार ने इस कानून से जुड़े दंडात्मक प्रावधान की वैधता का मुद्दा शीर्ष अदालत के विवेक पर छोड़ दिया था।
- केंद्र सरकार की तरफ से कहा गया था कि नाबालिगों और जानवरों के संबंध में दंडात्मक प्रावधान के अन्य पहलुओं को कानून में रहने दिया जाना चाहिए। धारा 377 ‘अप्राकृतिक अपराधों’ से संबंधित है। इस प्रावधान के तहत किसी महिला, पुरुष या जानवरों के साथ अप्राकृतिक रूप से यौन संबंध बनाने वाले को आजीवन कारावास या दस साल तक के कारावास की सजा और जुर्माना हो सकता है।
- संविधान पीठ ने इससे पहले कहा था कि आप बिना दूसरे की सहमति से अपने यौन झुकाव को दूसरे पर नहीं थोप सकते। पीठ ने यह भी कहा कि अगर कोई भी कानून मौलिक अधिकारों को हनन करता है तो हम कानून को संशोधित करने के लिए बहुमत वाली सरकार के फैसले का इंतजार नहीं कर सकते।
- सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि अगर आप वैश्यावृति को लाइसेंस देते हैं तो आप इस पर नियंत्रण रखते हैं. अगर आप इसे छुपा कर करना चाहते हैं तो इससे स्वास्थ्य संबंधी परेशानी होती है. पीठ ने यह भी कहा कि असुरक्षित संबंध से एड्स का खतरा होता है न कि समलैंगिकता से।
- धारा 377 का मुद्दा पहली बार एनजीओ 'नाज फाउंडेशन' ने उठाया था। इस एनजीओ ने 2001 में दिल्ली हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी और अदालत ने समान लिंग के दो वयस्कों के बीच यौन संबंधों को अपराध घोषित करने वाले प्रावधान को 'गैरकानूनी' बताया था।
- इससे पहले सुप्रीम कोर्ट ने ही 11 दिसंबर 2013 को सुरेश कुमार कौशल बनाम नाज फाउंडेशन मामले में दिल्ली हाईकोर्ट के फैसले को पलटते हुए समलैंगिकता को अपराध करार दिया था। 2 जुलाई 2009 को दिल्ली हाईकोर्ट ने धारा 377 को अंसवैधानिक करार दिया था।
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