विवाहित महिलाओं को संरक्षण देने वाले और एडल्टरी कानून पर सुनवाई जारी है। इस पर कॉस्टीट्यूशनल बेंच ने कहा, 'एडल्टरी के लिए सिविल लायबिलिटीज हैं और सामाजिक स्तर पर इसके गंभीर नतीजे होते हैं। लेकिन इसे सिर्फ पुरुषों के लिए अपराध घोषित किए जाने पर यह आर्टिकल 14 (स्वतंत्रता का अधिकार) के विरुद्ध जाएगा। अब सवाल यह उठता है कि एडल्टरी को अपराध माना ही क्यों जाना चाहिए।' इस कॉस्टीट्यूशनल बेंच में जस्टिस आर एफ नरिमन, ए एम खानविलकर, डी वाई चंद्रचूड और इंदु मल्होत्रा शामिल हैं।
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आईपीसी का सेक्शन 497 कहता है कि अगर पुरुष किसी विवाहित महिला के साथ संबंध बनाता है, तो वह एडल्टरी का दोषी होगा, इस मामले में दोषी पाए जाने पर पांच साल की जेल और जुर्माना या दोनों लगाए जा सकते हैं। इसमें यह भी कहा गया कि इसमें शामिल महिलाओं को दंडित नहीं किया जाए।
इस धारा को एक एनआरआई जोसेफ शाइन ने चैंलेज किया था, उन्होंने इसे अन्यायपूर्ण, अवैध, मनमाना और नागरिकों के मौलिक अधिकार का हनन करने वाला बताया। जोसेफ ने इसे लिंगभेद करने वाला प्रोविजन करार दिया। इसे 1860 में लॉर्ड मैकॉले ने ड्राफ्ट किया था। जोसेफ ने सीआरपीसी के सेक्शन 198(2) को चुनौती दी, जिसमें पति उस आदमी के विरुद्ध केज दर्ज करा सकता है, जिसने उसकी पत्नी के साथ संबंध बनाए।
कॉस्टीट्यूशनल बेंच ने कहा कि अब सवाल एलल्टरी को सिर्फ जेंडर न्यूट्रल क्राइम बनाने का नहीं रह गया है। जोसेफ की तरफ से वरिष्ठ वकील कलीश्वरम राज ने कहा, 'एक आसान सा सवाल यह है कि एक पुरुष को इस बिना पर जेल भेजा जा सकता है कि उसने किसी महिला के साथ उसकी सहमति से संबंध बनाए। बेंच का कहना है कि अब यह मामला 7 जजों वाली बेंच देखेगी, क्योंकि पांच जजों की बेंच ने पहले ही सेक्शन 497 को जारी रखने का फैसला लिया है। लेकिन सीनियर काउंसिल मीनाक्षी अरोड़ा ने कहा, 'पहले अदालत के सामने सवाल यह था कि महिलाओं को दंडित किया जाए अथवा नहीं। इस प्रोविजन की वैधता को अब तक चैलेंज नहीं किया गया था और अब उनकी तरफ से अदालत में इस मामले पर प्रकाश डाला गया और अब अदालत इस मामले पर आगे की कार्रवाई करेगी।
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