भारत में लिव-इन रिलेशनशिप को बहुत ही गलत नजर से देखा जाता है, लेकिन यह कानूनी रूप से पूरी तरह से लीगल है। जिस तरह भारत में शादीशुदा जोड़ों के कुछ अधिकार हैं, उसी तरह कुछ अधिकार लिव-इन पार्टनर के भी होते हैं। हां, किसी मैरिज एक्ट के तहत मिलने वाले अधिकार लिव-इन पार्टनर्स के लिए नहीं होते हैं। हालांकि, लिव-इन पार्टनर और उनके प्रोटेक्शन के लिए भी कुछ खास कानून हैं।
हमने इसके बारे में जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट के वकील दीपक श्रीवास्तव और इंदौर हाई कोर्ट की वकील जागृति ठाकर से बात की। इन दोनों की राय के आधार पर ही इस स्टोरी को लिखा गया है।
दीपक श्रीवास्तव का कहना है कि हिंदू मैरिज एक्ट, स्पेशल मैरिज एक्ट, मुस्लिम पर्सनल लॉ आदि में कहीं भी लिव-इन पार्टनर्स का जिक्र नहीं है, लेकिन फिर भी भारत का कानून अब उन्हें ज्यादा फ्रीडम देता है। 2022 में भी सुप्रीम कोर्ट ने एक ऐसा ही जजमेंट पास किया था। एक मामले की सुनवाई में सुप्रीम कोर्ट की तरफ से स्टेमेंट आया था, "लंबे समय तक एक साथ रहने वाले जोड़ों के बीच शादी जैसी स्थिति मानी जाएगी और इस रिश्ते से पैदा हुए बच्चों को जायज माना जाएगा।"
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इसका जवाब है हां, भारतीय नियम यह मानता है कि लिव-इन पार्टनर्स के कोई परेशान नहीं कर सकता है। अगर दो वयस्क अपनी मर्जी से साथ रहना चाहें, तो उन्हें ऐसा करने की इजाजत कानून देता है। यह पर्सनल लिबर्टी के अंतर्गत आता है। भारतीय संविधान यह मानता है कि हर इंसान को अपने हिसाब से रहने की इजाजत है और उन्हें बिना किसी डर के यह सुविधा मिलनी चाहिए।
नहीं, लिव-इन रिलेशनशिप को लेकर कोई एक्ट या कानून अभी तक नहीं बनाया गया है, लेकिन साल दर साल अलग-अलग मामलों में दिए गए जजमेंट्स के आधार पर लिव-इन कपल्स के लिए कुछ नियम और अधिकार निर्धारित कर दिए गए हैं। ऐसा ही सुप्रीम कोर्ट का एक जजमेंट था ( Badri Prasad Vs Dy. Director of Consolidation (1978)) जिसमें यह बताया गया था कि भारत में लिव-इन रिलेशनशिप लीगल तो हैं, लेकिन इसमें शादी, कंसेंट, उम्र, जगह, रिलीजन आदि बहुत सारी चीजें मायने रखती हैं।
यहां गौर करने वाली बात यह है कि भारत में व्याभिचार से जुड़ा कानून भी अब जुर्म के अंतर्गत नहीं आता है और ऐसे में दो हेटेरोसेक्सुअल एडल्ट्स अपनी मर्जी से लिव-इन रिलेशनशिप में रह सकते हैं।
भारतीय संविधान का आर्टिकल 21 इसकी गारंटी देता है कि किसी भी भारतीय नागरिक को जान और माल की रक्षा का अधिकार है। यही लिव-इन कपल्स के मामले में भी लागू होता है। आर्टिकल 21 राइट टू लाइफ (Right to Life Article 21) ही यह मानता है कि एक इंसान अपनी पसंद के पार्टनर के साथ बिना शादी किए रह सकता है।
एडवोकेट दीपक श्रीवास्तव के मुताबिक, डोमेस्टिक वॉयलेंस एक्ट, 2005 (Domestic Violence Act, 2005) हर महिला की रक्षा कर सकता है। किसी भी घरेलू रिश्ते से हुई हिंसा इसके अंतर्गत आती है। भले ही हिंसा लिव-इन पार्टनर द्वारा की गई हो, महिला को प्रोटेक्शन जरूर मिलेगा।
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यहां मामला कोर्ट के जजमेंट के आधार पर निर्भर करेगा। लिव-इन पार्टनर्स के पास मेंटेनेंस, प्रॉपर्टी या एलिमनी जैसा कोई सीधा क्लेम नहीं होता है। अगर जोड़ा अलग होता है, तो आर्थिक मदद आपसी सहमति से की जा सकती है। हालांकि, अगर मामला कोर्ट में जाए और यह साबित किया जा सके कि लिव-इन रिलेशनशिप कई सालों तक चली है और फाइनेंशियल इंटरडिपेंडेंस का कोई वादा या सबूत हो, तब कोर्ट मेंटेनेंस या फाइनेंशियल सपोर्ट की सुविधा के तहत फैसला सुना सकता है।
लिव-इन पार्टनर्स के पास पेरेंटल राइट्स होते हैं और अगर उनके मामले में कोई कोर्ट केस होता है, तो गार्डियन एंड वार्ड्स एक्ट, 1890 (The Guardians and Wards Act, 1890) के तहत दोनों को ही कस्टडी और विजिटेशन राइट्स मिल सकते हैं। ऐसे मामलों में कोर्ट अधिकतर बच्चे के हक के आधार पर फैसला करता है।
वैसे तो लिव-इन पार्टनर्स के पास कई अधिकार होते हैं, लेकिन फिर भी अभी लिव-इन के मामलों को लेकर कानून में संशोधन किया जाना बाकी है। अगर आपको अपने अधिकारों को लेकर किसी भी तरह की शंका है या फिर किसी मामले में मदद चाहिए, तो लीगल प्रोफेशनल से संपर्क करें।
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