साहित्य हमेशा लोगों के बीच अमर रहता है। शायर य लेखक दुनिया को अलविदा कहकर चले जाते हैं, मगर उनकी रचनाएं आजीवन लोगों की जुबान पर रहती हैं। दुनिया में कई ऐसे रचनाकार हुए, जिन्होंने अपनी कलम से बदलाव की कहानी लिखी। इनमें से कुछ कलाकार ऐसे भी रहे, जिनकी कविताएं प्रोटेस्ट और सत्ता के खिलाफ विद्रोह में बढ़-चढ़कर सामने आईं। फैज अहमद फैज की नज्म भी उन खास रचनाओं में से एक है।
बीते सालों में यह नज्म भारत में हुए जुलूसों का हिस्सा रही है। चाहे वो सीएए एनआरसी का मुद्दा रहा हो या कश्मीर का, यह कविता लोगों की आवाज बन गई है। यही वजह है कि फिल्म ‘कश्मीर फाइल्स में भी, हमें यह नज्म गाने के रूप में नजर आती है। आज के इस आर्टिकल में हम आपको फैज अहमद फैज की इस नज्म से जुड़ी कई इंटरेस्टिंग बातें बताएंगे, जिनके बारे में आप शायद ही जानते हों।
फैज अहमद फैज से जुड़ी कुछ बातें-
मशहूर पाकिस्तानी शायर फैज अहमद फैज का जन्म 13 फरवरी 1911 में सियालकोट में हुआ था। उनके जीवन का ज्यादा समय सियालकोट में ही रहे। वह हमेशा से ही विद्रोह से भरी रचनाएं लिखा करते थे। फैज अपनी पत्नी एलिस से पहली बार अमृतसर में मिले थे, पहली मुलाकात में ही दोनों प्यार कर बैठे। दो साल की प्रेम कहानी के बाद आखिर में दोनों ने शादी कर ली। उस दौर में दोनों की शादी की रस्में शेख अब्दुल्ला ने निभाई थी।
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इकबाल बानो ने जब गाई थी गजल-
पाकिस्तान की मशहूर गायिका इकबाल बानो ने साल 1985 में अलहमरा ऑडिटोरियम, लाहौर में परफॉर्म कर रहीं थीं। उन्होंने इस लाइव कॉन्सर्ट में फैज अहमद फैज की यह मशहूर गजल ‘लाजिम है कि हम भी देखेंगे’ गाई थी। इकबाल बानो यह गजल गाना शुरू करती हैं और कुछ देर में पूरा ऑडिटोरियम उनके साथ-साथ गजल गाने लगता है। इतना ही नहीं जब इकबाल इस गजल को खत्म करना चाहती, तो लोग फिर से उठा लेते। काफी समय तक लोग इसे इकबाल बानो की गजल के रूप में जाना करते थे। हालांकि समय के साथ इस गजल पर जितना हक फैज का था, उतना ही इकबाल बानो का भी हो गया।
उन दिनों पाकिस्तान में बैन की गई थी साड़ी-
पाकिस्तान में एक दौर था जब जनरल जिया उल हक ने देश में तख्तापलट कर दिया। उस दौर में जनरल पाकिस्तान का इस्लामीकरण कर रहे थे, इस कारण उन्होंने देश में साड़ियों पर बैन लगा दिया था। जनरल का मानना था कि साड़ियां एक हिंदू लिबाज, ऐसे में मुस्लिम औरतों को इससे दूर रहना चाहिए। पाकिस्तान में साड़ी को लेकर विवाद बेहद गर्म था। लेकिन इकबाल बानो बेहद जिद्दी थी, उस दिन ऑडिटोरियम में इकबाल बानो ने काले रंग की साड़ी पहनकर फैज की इस बगावत से भरी नज्म लोगों के बीच गाई। माना जाता है कि इस नज्म को रात चोरी-छिपे रिकॉर्ड किया गया था और इसे एडिट करने के लिए दिल्ली भेजा गया था।
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साल 1979 में लिखी गई थी ये नज्म-
इस नज्म को फैज अहमद फैज ने 1979 में लिखा था। हालांकि कि इस नज्म के पीछे की कहानी 2 साल पहले साल 1977 से शुरू होती है। भारत में इमरजेंसी का खत्म हुई थी, लोग इंदिरा गांधी से बेहद नाराज थे। मोरारजी देसाई के नेतृत्व में लोकतंत्र की एक बार फिर से वापसी हुई थी। वहीं पड़ोसी मुल्क पाकिस्तान में आर्मी नें लोकतंत्र खत्म करके अपनी हुकूमत स्थापित की थी। इस घटने के बाद फैज अहमद फैज बेहद दुखी हुए थे, इस घटना के विरोध में ही उन्होंने ‘हम देखें’ नज्म लिखी थी। यह नज्म इस दौर में जिया उल हक की तानाशाही के खिलाफ विद्रोह का परचम बनी थी। अपने विद्रोही शब्दों के कारण इस नज्म पर बैन लगा दिया गया था, मगर बैन के कारण नज्म और चर्चा में आ गई।
मृत्यु के बाद और भी ज्यादा पढ़े गए फैज-
मृत्यु के बाद फैज और भी ज्यादा पढ़े गए। वो आज भी हुकूमत के खिलाफ बगावत और प्रतिरोध का प्रतीक माने जाते हैं। जो लोग फैज की इस नज्म का असली मतलब नहीं जानते हैं, वो इसे धर्म विरोधी मानते हैं, ऐसे में आपको ‘ हम देखेंगे’ के पीछे छिपा मतलब जरूर जानना चाहिए।
ये थी फैज अहमद फैज की नज्म से जुड़ी कुछ रोचक बातें। आपको हमारा यह आर्टिकल अगर पसंद आया हो तो इसे लाइक और शेयर करें, साथ ही ऐसी जानकारियों के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
Image Credit- Instagram and wikipedia
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