कोलकाता में हाल ही में हुए रेप-मर्डर केस के 12 दिन बीत चुके हैं। इस दौरान न्यूज़ चैनल, अखबार और सोशल मीडिया पर इस मामले की खबरें और अन्य जघन्य रेप वारदातों की रिपोर्ट लगातार आ रही हैं। इन खबरों को पढ़कर मन बहुत दुखी होता है, लेकिन उससे भी अधिक हैरान करने वाली बात यह है कि कैसे इतने सारे महिला सुरक्षा नियम और कानून की खुलेआम धज्जियां उड़ाई जा रही हैं।
इस तरह की घटनाएं कोई नई नहीं हैं। वर्षों से बच्चियों, लड़कियों और महिलाओं के साथ इस तरह की दरिंदगी होती आ रही है, और समय के साथ इनमें और भी ज्यादा क्रूरता देखी जा रही है। यह घटनाएं सिर्फ रोष ही नहीं, बल्कि डर और चिंता को भी जन्म देती हैं। खासकर, एक मां के दिल में अपनी बेटी की सुरक्षा को लेकर जो बेचैनी होती है, उसे केवल मां ही समझ सकती है।
चाहे बेटी एक वर्ष की हो या 30 वर्ष की, मां की चिंता कभी कम नहीं होती। ऐसे मामलों की खबरें उनके डर को और बढ़ा देती हैं। बेटी की सुरक्षा के लिए अब माएं अपने गुस्से और चिंता को साथ लेकर सक्रिय कदम उठाने की तैयारी भी कर रही हैं। वे अब अपनी बेटियों को केवल यही सलाह नहीं देतीं कि "अपनी सुरक्षा अपने हाथों में हैं," बल्कि वे ठान चुकी हैं कि अपनी बेटियों को शारीरिक और मानसिक रूप से मजबूत बनाने के लिए ठोस कदम उठाना होगा।
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हरजिंदगी की टीम को ऐसा ही महसूस हुआ जब अपने फाइट बैक कैंपेन के तहत हमने कुछ ऐसी ही मांओं से बातचीत की और जानने की कोशिश की कि ये घटनाएं उन पर क्या प्रभाव डाल रही हैं और अब बेटियों की सुरक्षा को लेकर उनका एक्शन ऑफ प्लान क्या है।
बेटी की मां की चिंता
जालंधर में रहने वाली 3 वर्ष की बेटी की मां और बिजनेस वुमन रुचि सिंह गौड़ कहती हैं, " जब मैं खुद को ही महफूज नहीं हूं तो अपनी बेटी को सुरक्षित कैसे मान सकती हूं। घर के बाहर तो छोड़िए घर के अंदर ही महिलाएं सुरक्षित नहीं है। बाल शोषण और शारीरिक शोषण के ज्यादातर केस घर में ही परिवार के लोगों के द्वारा किए जाते हैं। बहुत जरूरी है कि हम अपने बच्चों के पालन पोषण में समानता रखें। लड़का हो या लड़की दोनों की परवरिश एक जैसी होनी चाहिए। बेटी लड़की है इसलिए उसके रहन-सहन पर सवाल नहीं खड़े करने चाहिए।"
यकीनन आप भी रुचि की बातों से सरोकार रखती होंगी क्योंकि हम महिलाओं को बचपन से ही लड़की होने पर अलग-अलग रूप में सजा मिलती रहती है। कभी सजा के रूप में हमारे ऊपर तमाम बंदिशें लगा दी जाती, तो कभी ढेरों रोक-टोक के कारण हमारी लाइफ जहन्नुम बन जाती है। इस बात से इत्तेफाक रखते हुए अहमदाबाद की रहने वाली वर्किंग वुमन आभा गुप्ता ने भी अपने विचार हमसे साझा किए। वह कहती हैं, "भारतीय होने पर मुझे गर्व है, मगर एक 8 वर्ष की बेटी की मां होने के नाते में इस बात से इंकार नहीं कर सकती हूं कि यह देश महिलाओं के लिए सुरक्षित है। मेरा बचपन हमेशा ही एक डर और चिंता के साथ बीता है।
यह डर और चिंता तब मुझे अपने लिए थी क्योंकि मैं एक लड़की थी और मुझे अपनी सुरक्षा को लेकर एक भय था। अब वही डर मैं अपनी बेटी के लिए महसूस करती हूं। मेरी बेटी घर से बाहर जाती है, तो मेरे मन में हमेशा ही नकारात्मक विचार आते हैं, जो मुझे परेशान करते हैं। हम हमेशा समाज की बात करते हैं, मगर यही समाज कभी भी हमारे दुख में खड़ा नहीं होता है। तो फिर इस समाज के बारे में इतना सोच कर अपनी बेटियों को बेबुनियाद नियमों की जंजीरों में हम क्यों बांधते हैं। बल्कि हमें तो अपनी बेटियों को सशक्त बनने के लिए उनकी परवरिश, पढ़ाई और अन्य चीजों पर फोकस करना चाहिए ताकि अपने अच्छे बुरे का वे खुद फैसला कर पाएं।"
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बेटी की सुरक्षा के लिए कदम
महिलाओं की सुरक्षा के लिए बेशक देश के कानून ने बहुत सारे नियम और अधिनियम बनाए होंगे, मगर ये सभी एक बेटी की मां के दिल को तसल्ली देने में नाकामयाब रहे हैं। इसलिए आज की मां अपनी बेटियों की सुरक्षा को लेकर खुद ही कदम उठाने को तैयार है। एक ऐसी ही मां से हमारी बातचीत हुई दिल्ली की रहने वाली मीडिया प्रोफेशनल पुजा सिंहा, दो युवा बेटियों की मां हैं।
वह कहती हैं, "मेरी बेटी 5 मिनट फोन नहीं उठाती है, तो मुझे डर लगने लगता है बेशक वो अपने घर पर ही क्यों न हो। मगर मैं इस डर के साएं में कब तक जीयूं। इसलिए मैं इस बात पर नजर नहीं रखती कि मेरी बेटियां क्या कर रही हैं बल्कि मैं इस बात पर ज्यादा ध्यान देती हूं कि कहीं वो किसी बात से परेशान तो नहीं हैं। मैं ऐसी मां बनने की कोशिश कर रही हूं कि मेरी बेटियां मेरे से कुछ भी न छुपाएं।"
वाकई यह बहुत जरूरी है कि पेरेंट्स क्या कहेंगे या वो हमारी परेशानी को समझेंगे या हमें ही दोषी मान लेंगे, यह विचार बेटियों के मन में आ सकता है। इसलिए एक मां के लिए बहुत जरूरी है कि वो अपने व्यवहार को ऐसा बनाएं कि बेटियां उन्हें अपने दिल की बात बताने में न हिचकें। इस बाबत दिल्ली निवासी कंटेंट क्रिएटर नम्रता कोहली कहती हैं, "6 साल की लड़की हो या 60 साल की बुर्जुग महिला, कोई सेफ नहीं है। मगर हमें अपनी बेटियों के लिए इस समाज को सेफ बनाना है। इसलिए सबसे पहले तो हमें बेटियों को यही सिखाना है कि गलती छोटी हो या बड़ी, मुंह तोड़ जवाब देने से कभी पीछे नहीं हटें। जिस दिन हर महिला यह हुनर सीख लेगी उस दिन हम कैंडल मार्च नहीं निकाल लेंगे बल्कि आपराधिक विचारधारा को ही जला डालेंगे।"
कानून में बदलाव की मांग
वर्ष 2012 में जब निर्भया केस हुआ था, तब बहुत सारे कानून आए थे, जो इस बात का दावा कर रहे थी कि अब किसी की हिम्मत भी नहीं होगी महिलाओं पर बुरी नजर डालने की। मगर उन सभी कानूनों की धज्जियां उड़ चुकी हैं। लेकिन अब हम महिलाओं के सब्र का बांध भी टूट चुका है। इन महिला सुरक्षा कानून के भरोसे हम अपनी बेटियों की सुरक्षा को बली नहीं चढ़ा सकते हैं।
इस विषय पर आर्टिस्ट मनीषा गावड़े कहती हैं, " पेरेंट्स और टीचर्स की सबसे बड़ी जिम्मेदारी बनती है कि वो लड़कों को महिलाओं के सम्मान और उन्हें अपने ही समान समझने की शिक्षा दें। इसके अलावा आपराधिक सोच को किसी भी तरह से बढ़ावा देने से बचने के लिए परिवार के सदस्यों को इस बात की पहल करनी चाहिए कि लड़की और लड़के में कोई फर्क नहीं होता है। " इसी कड़ी में मूल रूप से भारतीय और आयरलैंड की राजधानी डबलिन में रहने वाली स्मिता गुप्ता कहती हैं, "मैं भारतीय हूं मगर अपनी बेटी को भारत लाने से डरती हूं। यहां की महिलाओं की सुरक्षा व्यवस्था कैसी है, उसका अंदाजा मुझे बचपन से है मगर मेरी बेटी इस देश में सेफ नहीं है। मुझे लगता है कि भारतीय कानून को इस तरह के मामलों को लेकर जल्द फैसले सुनाने और अपराधियों को सख्त सजा देने की जरूरत है। जब तक पुरुषों में सजा को लेकर डर नहीं होगा, लड़कियां सेफ नहीं हो सकती हैं। "
बेटी की माओं के अनुभव और उनकी सुरक्षा संबंधी चिंताओं ने इस मुद्दे को और अधिक स्पष्ट कर दिया है। उनका यह कहना कि "हमें अपनी बेटियों को सशक्त बनाने पर ध्यान देना चाहिए" सही दिशा में एक महत्वपूर्ण कदम है। इसके लिए हमें एक समाज के रूप में मिलकर काम करने की आवश्यकता है, जहां कानून, समाज, और परिवार सभी मिलकर महिलाओं की सुरक्षा सुनिश्चित कर सकें।
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