साल 2012 का निर्भया कांड हो या फिर 2024 का कोलकाता रेप-मर्डर कांड, महिलाओं की स्थिति में कोई भी बदलाव नहीं आया है। दुनिया भर के कई समुदायों में, जब भी महिलाओं के खिलाफ हिंसा के मुद्दे को संबोधित करने की बारी आती है, तो लोग चुप्पी साध लेते हैं। हमारे सामाजिक मानदंडों और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों में गहराई से छुपी यह चुप्पी हिंसा, अन्याय और महिलाओं के प्रति बदतमीजी की एक खतरनाक चक्र को कायम रखती है।
यहां पर मैं सिर्फ इस बारे में बात नहीं कर रही हूं कि हमें इन मुद्दों के खिलाफ बोलना चाहिए, क्योंकि बातें तो बहुत ज्यादा हो चुकी हैं। यह हम उस जवाबदेही की बात कर रहे हैं, जहां पर हिंसा को सामान्य बता दिया जाता है। जहां पर एक पीड़ित को ही दोषी ठहरा दिया जाता है। यहां पर उस जवाबदेही की बात हो रही है, जहां पर अपराधियों छुपा दिया जाता है।
पति ने मारा, तो चुप रहो घर की बात है, बाहर लड़कों ने छेड़ा, तो तुम बाहर निकलना बंद कर दो, किसी ने कुछ कह दिया, तो तुमने उकसाया होगा... इस तरह के ताने और नसीहत हर बार एक महिला को ही दी जाती है। इन चीजों को देखकर कहा जा सकता है कि यह समाज का रवैया ही है, जो बदलने की जरूरत है। ऐसे ही माहौल के कारण हम महिलाएं खतरे में रहती हैं। जरूरी है कि इस चक्र को तोड़ने के लिए इसे बनाए रखने वाले सामज के घटिया दृष्टिकोण का सीधे सामना करना और उन्हें चुनौती देना महत्वपूर्ण है।
पितृसत्तात्मक मानदंड हैं दोषी
इसका सबसे बड़ा कारण है पितृसत्तात्मक मानदंड, जो पुरुष अधिकार और प्रभुत्व को प्राथमिकता देते हैं। ये मानदंड हमारे समाज के ताने-बाने में इतनी गहराई से जुड़े हुए हैं जिसकी कोई कल्पना भी नहीं कर सकता है। ये घटिया मानदंड ही हैं जो महिलाओं के आचरण से लेकर उनके पहनावे तक के लिए दिशा-निर्देश निर्धारित करते हैं और उन्हें दोषी ठहराते हैं। अगर हमने इन मानदंडों की उपेक्षा की, तो फिर हमारे साथ होने वाली हिंसा के लिए जिम्मेदार भी हम हो जाते हैं। यह दोष न केवल हमारी आवाज को दबाता है, बल्कि हमें न्याय के आगे बढ़ने से रोकता है। यह दकियानूसी सोच हम महिलाओं के पैरों में जंजीर जैसी है और यह हमें एहसास दिलाता है कि हमारे खिलाफ हो रही किसी भी हिंसा को रोकने के लिए चंडी और काली का रूप हमें ही दिखाना होगा।
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'पति ने मारा तो क्या हुआ?' जैसी बेहूदी सोच देती है हिंसा को बढ़ावा
बॉयफ्रेंड ने कहीं जाने से रोक दिया, तो प्रोटेक्टिव है...पति ने मारा तो प्यार है... यह एक टॉक्सिक प्रवृत्ति है न कि आपके प्रति प्यार और सम्मान। सबसे गलत तरीका है कि इस तरह की हिंसा को रोमांटिक बनाकर पेश करना। कई मामलों में, घरेलू हिंसा को निजी मामला माना जाता है। नसीहत दी जाती है कि उसे बंद दरवाजों के पीछे ही रखा जाना चाहिए। यह मान लेना कि घर पर होने वाली हिंसा प्यार के समान है और उसे दरवाजे के पीछे ही रहना चाहिए, डिनायल को दर्शाता है। यह एक पीड़ित महिला पर दबाव बनाता है कि उसे मदद मांगने की जगह सब कुछ सह लेना चाहिए।
इसके पीछे कहीं न कहीं सिनेमा भी दोषी है, क्योंकि अक्सर वह अधिकार और नियंत्रण का महिमामंडन करता है, जिससे प्यार और दुर्व्यवहार के बीच की रेखाएं धुंधली हो जाती हैं। जब कोई पुरुष या महिला इस तरह के डायनेमिक्स को बढ़ते हुए देखते हैं, तो उन्हें यह सामान्य लगने लगता है। मगर एक बात जो हमें जान लेनी चाहिए वह यह है- 'रील और रियल लाइफ में अंतर होता है।'
'दो दिन चीखेगी और फिर चुप हो जाएगी'... यह रवैया अपराध को करता है जस्टिफाई
चुप रहने वाली महिलाओं को अगर दबा दिया जाता है, तो हमारा समाज सामने आने वाली महिलाओं के साथ भी बदतर व्यवहार करता है। जब महिलाएं आगे आती हैं, तो उन्हें अक्सर संदेह की नजरों से देखा जाता है। 'अरे, दो दिन बोलेगी, चिल्लाएगी और फिर चुप हो जाएगी'...यह रवैया आमतौर पर ऐसी महिलाओं पर हावी होता जाता है। जिस महिला के साथ यौन उत्पीड़न हुआ हो, यदि वह न्याय के लिए आगे आती है, तो उसे अक्रामक सवालों का सामना करना पड़ता है। उसका व्यवहार, उसके कपड़े और उसकी नियत पर खड़े होते सवाल अपराध को सही ठहराते हैं। यह प्रतिक्रिया न केवल न जाने कितनी महिलाओं को मूक-बधिर बनने में मजबूर कर देती है।
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ऑनलाइन हैरासमेंट हो गई है आम बात
डिजिटल दुनिया,जिसे सशक्तिकरण का केंद्र होना चाहिए थ, वह एक ऐसा प्लेटफॉर्म बन गया है, जहां आए दिन महिलाओं को हैरासमेंट का सामना करना पड़ता है। कोई ऐसी इंफ्लूएंसर, एक्ट्रेस या महिला शायद ही होगी, जिसने ऑनलाइन रेप और डेथ-थ्रेट्स का सामना न किया हो। यह ऑनलाइन उत्पीड़न, साइबरस्टॉकिंग और हिंसा की धमकियां तो आज आम हैं मगर फिर भी उन्हें अक्सर तुच्छ मानकर नजरअंदाज करने की सलाह दे दी जाती है। इंटरनेट में गुमनामी के बीच हैरास करने वालों की संख्या बढ़ती जा रही है और इसी के चलते महिलाओं को निशाना बनाने में उनका हौसला और भी ज्यादा बढ़ जाता है।
अब Fight Back का है वक्त
महिलाओं के प्रति होती हिंसा और उसे लेकर चुप्पी की संस्कृति को तोड़ने के लिए हमें उन सामाजिक मानदंडों और सांस्कृतिक दृष्टिकोणों को चुनौती देने की जरूरत है जो इसका समर्थन करते हैं। सबसे पहले तो हमें इस विचार को ही अपने दिमाग से निकाल फेंकना जरूरी है कि महिलाएं अपने उत्पीड़न के लिए जिम्मेदार हैं। इसके बजाय, जिम्मेदारी उन लोगों पर डाली जानी चाहिए जो अपराधी हैं, जो किसी भी तरह की हिंसा कर रहे हैं।
अंत में, हमें समाज के हर स्तर को इसके लिए जिम्मेदार होना चागिए। उन संस्थानों को भी चुनौती देना जरूरी है जो महिलाओं की सुरक्षा करने में विफल हुए हैं। कार्यस्थलों, शैक्षणिक संस्थानों और ऑनलाइन प्लेटफॉर्म को हिंसा और उत्पीड़न को संबोधित करने वाली नीतियों को लागू करना बहुत आवश्यक है।
ये बदलाव करने से और इस सोच को दिमाग से निकालने से कि एक महिला के साथ होने वाला दुर्व्यवहार उसकी गलती नहीं है, महिलाएं सुरक्षा की ओर एक कदम रख सकती हैं। मगर यह सब तभी संभव है, जब हम समाज के दृष्टिकोण को चुनौती देंगे और उसके खिलाफ लड़ेंगे।
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