39 लाख साल पुरानी है होली...जानिए सतयुग और त्रेतायुग में कैसे मनाया जाता था रंगों का यह पर्व, कब शुरू हुई थी कलर खेलने की परंपरा

क्या आप जानते हैं कि होली का त्योहार 39 लाख साल पुराना है। होली द्वापरयुग से नहीं बल्कि सतयुग और त्रेतायुग में भी मनाई जाती थी। 
history of holi and know how it was celebrated in satyayug and tretayug

होली का त्योहार आने में कुछ ही दिन बाकी हैं और यह केवल रंगों का त्योहार नहीं, बल्कि सदियों से चली आ रही सांस्कृतिक और आध्यात्मिक परंपरा भी है। यह त्योहार बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक है। लेकिन, क्या आपने कभी सोचा है कि होली की शुरुआत कब और कैसे हुई थी और यह पर्व कितना पुराना है?

माना जाता है कि होली भगवान राम और कृष्ण के युग से भी पहले सतयुग में मनाई जाती थी। पौराणिक कथानुसार, सतयुग में होलिका दहन का जिक्र मिलता है। हिंदू धर्म में चार युग बताए गए हैं- सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग।

  • सतयुग – 17 लाख 28 हजार वर्ष
  • त्रेतायुग – 12 लाख 96 हजार वर्ष
  • द्वापरयुग – 8 लाख 64 हजार वर्ष
  • कलियुग – 4 लाख 32 हजार वर्ष

इस आधार पर कहा जा सकता है कि होली लगभग 39 लाख साल पुराना त्योहार है, जिसे सतयुग से मनाया जाता रहा है। कहा जाता है कि सतयुग के बाद त्रेतायुग में पहली बार भगवान श्रीराम ने होली खेली थी। वहीं, द्वापर युग में भगवान कृष्ण ने राधा और गोपियों के साथ रंगों की होली खेली थी। इसके अलावा, एक कहानी यह भी है कि श्रीकृष्ण ने महाभारत काल के दौरान युद्धिष्ठिर को सतयुग में कैसे होली मनाई थी, इसके बारे में बताया था।

सतयुग में होली खेलने की परंपरा

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भविष्य पुराण के अनुसार, एक दिन युद्धिष्ठिर ने श्रीकृष्ण से पूछा था कि फाल्गुन पूर्णिमा पर हर साल होलिका दहन क्यों किया जाता है और इसकी परंपरा कैसे शुरू हुई? इस पर भगवान कृष्ण ने बताया था कि होली का प्रारंभ सतयुग में हुआ था। उस समय एक राजा थे रघु, जो एक ढोंढा नाम की राक्षसी से बहुत परेशान थे। ढोंढा राक्षसी बहुत शक्तिशाली थी और छोटे बच्चों को मारकर खा जाती थी। उसे भगवान शिव से वरदान मिला हुआ था कि उसे कोई देवता या इंसान मार नहीं सकता था और न ही किसी अस्त्र-शस्त्र से वह मर सकती थी। साथ ही, उसे किसी भी मौसम में नहीं मारा जा सकता था। हालांकि, शिवजी ने राक्षसी को चेतावनी दी थी कि वह खेलते हुए और उत्सव मनाते हुए बच्चों से दूर रहें, क्योंकि वही उसकी मृत्यु का कारण बन सकते थे।

राजा रघु और उनकी प्रजा बहुत परेशान थी और डर के साए में सभी लोग जी रहे थे। समस्या का हल निकालने के लिए राजा ने एक विद्वान से सलाह लेनी सही समझी। उन्होंने विद्वान को बुलाया और शिवजी के वरदान के बारे में बताया। विद्वान ने राजा को समझाया कि फाल्गुन पूर्णिमा के दिन न गर्मी होती है, न सर्दी और न ही बारिश। यही सही समय होगा जब ढोंढा को हराया जा सकता है।

राजा रघु ने फाल्गुन पूर्णिमा के दिन सभी बच्चों को इकट्ठा किया और योजना बनाई। उन्होंने बच्चों को खेलने के लिए अबीर-गुलाल दे दिया और सेवकों से सूखी घास और लकड़ी के टुकड़े मंगवाए। बच्चों ने लकड़ी और घास का ढेर बनाकर उसमें आग लगा दी। इसके बाद, आग के चारों तरफ घूमने लगे और शोर मचाने लगे। जब ढोंढा ने बच्चों का शोरगुल सुना, तो उसकी शक्ति खत्म होने लगी। कमजोर पड़ते ही सभी बच्चों ने मिलकर उसे मार दिया। तब से फाल्गुन पूर्णिमा के दिन लकड़ी जलाने की परंपरा शुरू हुई।

त्रेतायुग में होली कैसे खेली जाती थी?

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शास्त्रों के अनुसार, त्रेतायुग में राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या में होली का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता था। उस समय होली रंगों से नहीं बल्कि कुश, हल्दी, चंदन और टेसू के फूलों से खेली जाती थी। अयोध्या की गलियों में लोग उत्साह से झूमते हुए शंख, ढोल-नगाड़ों और मृदंग के साथ होली मनाते थे।

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होली के दिन रंग खेलने की परंपरा की शुरुआत

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पौराणिक कथानुसार, रंगों से होली खेलने की परंपरा की शुरुआत द्वापरयुग में हुई थी। बचपन में भगवान कृष्ण अपने श्याम वर्ण को लेकर काफी चिंतित रहते थे। वह अक्सर अपनी मां यशोदा से राधा और गोपियों के श्वेत वर्ण को लेकर प्रश्न किया करते थे। एक दिन उन्होंने यशोदा माता से पूछा कि राधा और गोपियां के रंग को अगर बदलना हो, तो क्या किया जाए। इस पर यशोदा माता ने कहा कि वह राधा पर अपना पसंदीदा रंग लगा सकते हैं। यह बात सुनकर भगवान कृ्ष्ण ने चुपके से जाकर राधा और गोपियों के चेहरों पर रंग मल दिया। कहा जाता है कि यहीं से होली के दिन रंग खेलने की परंपरा की शुरुआत हुई थी।

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Image Credit - herzindagi, jagran, wikipedia

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