दिल्ली उर्फ दिल वालों का शहर। मिर्जा गालिब की मानें तो यहां के हर घर में मोहब्बत है। किताबों और कहानियों में दिल्ली को बहुत ही खास दर्जा मिला हुआ है। पर असलियत तो जनाब इतनी अनोखी है कि दिल्ली को देश का रेप कैपिटल भी कहा जाता है। इससे पहले कि आप मुझे टोके और ये कहें कि यहां रेप की बात क्यों हो रही है मैं अपने इरादे साफ कर दूं। मैं यहां दिल्ली की बात करने आई हूं और अपने ख्याल इस बारे में बताना चाहती हूं कि 2012 से लेकर 2022 तक क्या बदला है।
हो सकता है कि आपको मेरी बातें चुभें क्योंकि सच तो चुभता ही है। दिल्ली लोगों को बहुत पसंद हो सकता है, लेकिन असल मायने में इसकी सच्चाई सभी को पता है। ये वो शहर है जो रात 8 बजे के बाद सो जाता है और यहां सो जाने से मेरा मतलब ये है कि इस शहर को महिलाओं के साथ होते अपराध दिखते ही नहीं हैं। पूरा शहर बस आंख मूंदे अपना सन्नाटा पसारे रहता है।
दिसंबर को दिल्ली के लिए एक बहुत ही अच्छा महीना माना जाता है, लेकिन दिल्ली के दामन पर तो इस महीने ने दो दाग लगा दिए हैं। नहीं-नहीं मैं यहां शायराना होने की कोशिश नहीं कर रही हूं बल्कि मैं तो यहां उन दो कांड के बारे में बात करने जा रही हूं जो ये बताते हैं कि महिलाओं की सुरक्षा यहां कितने मायने रखती है।
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16 दिसंबर 2012: काली तारीख
इस तारीख को हम कभी नहीं भूल सकते और मेरी मानिए तो कभी भूलना भी नहीं चाहिए। निर्भया के साथ जिस तरह का जघन्य अपराध हुआ था वो इंसानियत को शर्मसार करने वाला था। उसका गैंगरेप करना, लोहे के सरिए से शरीर को डैमेज करना और फिर सड़क पर बिना कपड़ों के फेंक देना। निर्भया को सड़क के किनारे पड़ा देखकर कई लोगों ने आंखें घुमा ली थीं। उसके साथ जो दरिंदगी हुई थी उसके बारे में बात भी नहीं की जा सकती।
जब निर्भया कांड दिल्ली में हुआ उसके बाद तत्कालीन चीफ मिनिस्टर शीला दीक्षित ने बैठक बुलाई थी। कैंडिल मार्च निकाले गए थे। निर्भया ऐप से लेकर निर्भया फंड तक बहुत कुछ बनाया गया था। दिल्ली-एनसीआर में सुरक्षा दलों को बढ़ाया गया था और रात में ज्यादा पुलिसकर्मियों को तैनात किया गया था।
जिस तरह की उठापटक और सियासत उस दौरान की गई थी उसने ये बताया था कि 16 दिसंबर की रात दोबारा ना दोहराई जाए इसके लिए कड़े कदम उठाए गए हैं। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत में हुए इस रेप कांड को उछाला गया था और भारत को उसके बाद से महिलाओं के लिए सबसे असुरक्षित देशों में से एक गिना जाने लगा था।
31 दिसंबर 2022: खौफनाक एक्सीडेंट
अब बात करते हैं हालिया मामले की। एक लड़की न्यू इयर ईव की दरमियानी रात अपनी सहेली के साथ आ रही थी। रोड पर एक कार उसे टक्कर मारती है (बुनियादी जांच यही कहती है)। दोस्त डरकर भाग जाती है और लड़की कार के पहिये में फंसकर 13 किलोमीटर तक सड़क पर घसिटती जाती है। चश्मदीद पुलिस को फोन करते हैं, नशे में धुत लोग ये तक नहीं समझते कि उन्होंने एक लड़की की जान ले ली है। वो जिस तरह से खिंचती जाती है उसके शरीर पर मांस नहीं बचता और हड्डियां तक घिस जाती हैं। शरीर पर एक कपड़ा नहीं बचता।
जब तक इस मामले का संज्ञान लिया जाता है लड़की के लगभग कंकाल हो चुके शरीर को कंझावला में छोड़कर दरिंदे भाग जाते हैं। इसे हिट एंड रन कहा जाएगा या कुछ और ये तो अभी तक पुलिस ही तय नहीं कर पाई है।
हां, बुनियादी रिपोर्ट कहती है कि लड़की के साथ कोई सेक्सुअल असॉल्ट नहीं हुआ ये महज एक्सीडेंट था, लेकिन क्या 'महज एक्सीडेंट' क्रूरता की मिसाल नहीं है?
ये दोनों ही मामले दिल्ली की सड़कों पर रात में हुए, इन दोनों ही मामलों के बीच 10 साल का अंतर है, लेकिन ये दोनों मामले बताते हैं कि दिल्ली की सड़कें कम से कम लड़कियों के लिए तो सुरक्षित नहीं है।
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10 साल में कितना बदला है दिल्ली का हाल?
इस सवाल का जवाब सीधा सा है। कागजी तौर पर तो दिल्ली में काफी कुछ बदल गया, लेकिन असलियत तो सामने है। हां, मैं पुलिस की मुस्तैदी को सलाम करती हूं कि इतनी जल्दी गुनहगारों को धर दबोचा गया, लेकिन अभी भी सवाल वहीं हैं। शराब पीकर गाड़ी चलाना कानूनन अपराध है तो फिर इतनी आसानी से तेज म्यूजिक के बीच भला कैसे इतने घंटों तक गाड़ी चलती रही? निर्भया कांड में भी शराब को मुख्य आरोपी माना गया था और रिपोर्ट्स आई थीं कि वो सभी नशे में थे।
पर उन लड़कियों की क्या गलती जो इस 'नशे में थे' वाक्य की बली चढ़ गईं? दिल्ली की सड़कों पर एक स्कूल जाती हुई बच्ची पर एसिड अटैक होता है जो कुछ दिनों पहले की घटना है, दिल्ली में विदेशी टूरिस्ट का रेप होता है जो कुछ महीनों पहले की घटना है, दिल्ली में हर दिन 10 बलात्कार के मामले दर्ज होते हैं।
निर्भया कांड के बाद से Daughters of Mother India (2015), India’s Daughter (2015), Anatomy of Violence (2016), Delhi Crime (2019) जैसी कई डॉक्युमेंट्रीज और क्राइम सीरीज बनी हैं जिसमें निर्भया कांड का जिक्र था, लेकिन सही मायने में इनमें से कई में बलात्कारियों का एंगल भी दिखाया गया था।
मेरा बस एक सीधा सा सवाल है कि आखिर क्यों हम उन लोगों को ह्यूमन मान रहे हैं जिन्होंने मानवता को ही शर्मसार किया है। निर्भया मामले के आरोपियों को आखिरकार सजा मिली, लेकिन उनका क्या जो रोजाना इस तरह की बर्बरता कर रहे हैं?
लिखने, कहने और बोलने को बहुत कुछ है, लेकिन बस इतना ही लिख पा रही हूं कि मैं खुद 6 साल से दिल्ली-एनसीआर में रहते हुए भी रात में बाहर निकलने से डरती हूं। रात में ही नहीं दिन में भी अगर कोई सुनसान इलाका हो तो फोन ऑन कर देती हूं, ओला-ऊबर का लोकेशन अपने घर वालों से शेयर करती हूं। यही है सच्चाई कि कागजों में भले ही कितनी भी पॉलिसी बनी हों, लेकिन असलियत में महिला सुरक्षा एक बड़ा सवाल है।
बतौर समाज हम फेल ही हुए हैं जहां हम अपनी बेटियों को सुरक्षा नहीं दे पा रहे हैं।
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