नमस्कार,
यूं तो महिलाओं की सुरक्षा और समाज में उनकी स्थिति को लेकर न जाने कितने ही ऐसे लेटर मेरी जैसी न जाने कितनी महिलाओं ने लिखे हैं...लेकिन ये लेटर अक्सर बस यूं ही आए-गए हो जाते हैं...खैर, इसमें किसी की भी क्या ही गलती है क्योंकि जब कोई महिला इस तरह के लेटर लिखती है, तो उनमें अक्सर वो उन बातों का जिक्र करती है, जिनके बारे में बात करना हमारी सोसाइटी को कुछ खास पसंद नहीं है। कभी बात उन बातों के बारे में होती है, जो महिलाओं के दिल में सालों से दबी हैं पर कोई उन्हें सुनना ही नहीं चाहता, तो कभी समाज की उस सोच पर सवाल उठते हैं, जो महिलाओं को न जाने कितनी सीख दे देती है, पर पुरुषों को..उफ्फ..उन्हें तो कुछ कह भी पाना बड़ा मुश्किल हो जाता है, तो कभी इस तरह के खत उन लोगों के मुंह पर एक तमाचा होते हैं, जो महिलाओं के साथ होने वाले अपराधों का जिम्मेदार भी महिलाओं को ही ठहरा देते हैं। अब ये सब होना भी लाजमी ही है। आखिर हम एक पितृसत्तात्मक देश का हिस्सा जो हैं और यही वो एक शब्द है, जिसने मुझे आज यह खुला खत लिखने को मजबूर किया है।
दरअसल, हमारी केंद्रीय वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने पितृसत्ता को लेकर एक बयान दिया है और लाख कोशिशों के बाद भी वह बयान मुझे हजम नहीं हो पा रहा है। लेकिन, इसमें गलती मेरी नहीं है। असल में उनका यह बयान, समाज में महिलाओं की स्थिति से मेल ही नहीं खा रहा है और इसलिए, कुछ सवाल है जो इस ओपन लेटर के जरिए, मैं पूछना चाहती हूं।
बेंगलुरु के सीएमएस बिजनेस स्कूल में स्टूडेंट्स से बातचीत के दौरान, निर्मला सीतारमण ने पितृसत्ता को लेकर अपनी राय रखी। बेशक यह उनकी निजी राय है और इसे गलत-सही के तराजू में नहीं तोला जा सकता है लेकिन, उनका बयान असल में कई सवाल खड़े कर गया। निर्मला जी ने कहा कि अगर पितृसत्ता भारत में महिलाओं को अपनी इच्छाओं को पूरा करने से रोकती, तो फिर इंदिरा गांधी कैसे प्रधानमंत्री बन पाईं? साथ ही, उन्होंने पितृसत्ता को राजनैतिक जामा पहनाते हुए इसे लेफ्टिस्ट पार्टियों का बनाया हुआ कॉन्सेप्ट बताया। साथ ही, उन्होंने महिलाओं को यह सलाह भी दी कि उन्हें जटिल शब्दों के बहकावे में आने की जरूरत नहीं है। अगर वे अपने लिए खड़ी होती हैं और सही तरीके से अपनी बात रखती हैं, तो पितृसत्ता उन्हें उनके सपने पूरे करने से नहीं रोक सकती है। हालांकि, उन्होंने यह भी माना कि हमारे देश में महिलाओं के लिए पर्याप्त सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं और इनमें बदलाव की जरूरत है।
वित्त मंत्री जी के बयान के बाद मेरे मन में कई सवाल उठ रहे हैं कि क्या वाकई पितृसत्ता का सिध्दान्त उतना ही है, जितना उन्होंने जिक्र किया। क्या वाकई यह महिलाओं को आगे बढ़ने से नहीं रोकता है। माफ कीजिएगा, मैं इस बात से जरा इत्तेफाक नहीं रखती हूं और इसके लिए मेरी अपनी वजह हैं या यूं कहूं कुछ सवाल हैं, जो मुझे ये मानने नहीं दे रहे हैं कि पितृसत्ता वाकई इतनी बड़ी बात नहीं है।
ऐसे न जाने कितने ही सवाल हैं, जिनके जवाब कम से कम मुझे तो नहीं मिल पा रहे हैं और यही वजह है कि मैं इस बयान से जरा इत्तेफाक नहीं रख पा रही हूं। पितसृ्त्ता सिर्फ एक अवधारणा नहीं है बल्कि यह महिलाओं के पांव की वह बेड़ी है, जो आज भी न जाने उनके कितने सपनों को कुचल देती है। असल में आज आजादी के इतने साल बाद भी भारत में महिलाओं की स्थिति तो कम से कम हमारी वित्त मंत्री के बयान से मेल नहीं खाती है।
यकीन मानिए यह लिखते हुए मुझे बिल्कुल भी अच्छा नहीं लग रहा लेकिन, भारत में महिलाओं के साथ हो रहे अपराधों की फेहरिस्त बहुत लंबी है। घरेलू हिंसा, रेप, मैरिटल रेप और दहेज के लिए हत्या के मामले बताते हैं कि हमारे देश में महिलाओं की सुरक्षा और समानता बस सवाल ही हैं।ह मारे देश में हर घंटे 3 महिलाएं रेप का शिकार हो रही हैं, न जाने कितनी ही बेटियां गर्भ में बेटी होने की वजह से ही मार दी जाती हैं। यह देश जहां पुरुष, मां लक्ष्मी और दुर्गा के आगे सिर झुकाते हैं..वहीं, महिलाओं को गलत नजर से देखने में या घर में बेटी पैदा होने पर त्यौरियां चढ़ाने में जरा भी नहीं झिझकते हैं।
जब महिलाएं पितृसत्ता की बेड़ियों के बीच, खुद को साबित करने घर से बाहर निकलती हैं, तो बाहर भी समाज उन्हें बराबरी का हक देने में दिक्कत होती है। कभी वर्कप्लेस पर होने वाला हैरेसमेंट उन्हें परेशान करता है, तो कभी प्रमोशन होने पर कलीग ही उनके प्रमोशन की वजह, उनके काम को नहीं, बल्कि उनके लड़की होने को बताने लगते हैं।
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लाख मुश्किलों के बीच महिलाएं जी तोड़ कोशिश कर हर कदम पर खुद को साबित कर रही हैं तबकि मेरा मानना है कि यह जो खुद को साबित करने का जुनून महिलाओं के अंदर है न, यह भी पितृ्सत्ता की वजह से ही है वरना यह बहुत साधारण सी बात है कि पुरुष और महिला एक समान है और हर कदम पर महिलाओं को इसे प्रूफ करने की जरूरत नहीं है। पर हमें इसे भी मानने से गुरेज है। यही कारण है कि महिलाओं को खुद के लिए बराबरी की जगह पाने के लिए भी जद्दोजहद करनी पड़ती है पर ऐसे में कम से कम पितृसत्ता के सिध्दान्त को इस तरह परिभाषित तो न करें।
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