अभी कुछ दिन पहले सियाचिन में शहीद हुए अंशुमान सिंह की पत्नि को राष्ट्रपति द्रौपदी मुर्मू ने सम्मानित किया था। हालांकि इसके तुरंत बाद, उन्हें कंट्रोवर्सी में घेर लिया गया।
स्मृति सिंह के मामले ने हमारे समाज में वॉर विडोज के सामने आने वाली चुनौतियों के बारे में एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा किया है। उन पर लगे आरोपों ने केवल उनके जैसी महिलाओं के संघर्षों को उजागर ही नहीं किया, बल्कि इन चुनौतियों को बनाए रखने वाले ब्रॉडर सिस्टमैटिक इश्यूज पर भी प्रकाश डाला है। ये वीर नारियां बलिदान का एक मार्मिक प्रतीक हैं।
अपने पतियों को खोने के बाद उनकी यात्रा अक्सर बाधाओं से भरी होती है। अंशुमान के माता-पिता का बहू पर आरोप और उनकी ट्रोलिंग ने इस सवाल को भी खड़ा किया है कि सेना में शहीद हुए जवानों की पत्नियों के साथ ऐसा होना क्या सही है? चलिए इस आर्टिकल में जानें कि स्मृति सिंह पर क्या आरोप लगे थे और उनकी जैसी तमाम वीर नारियों की जिंदगी पति की शहादत के बाद कैसे बदल जाती है।
क्या था अंशुमान सिंह के परिवार के बहू पर आरोप
पिछले साल 19 जुलाई को सियाचिन में शहीद हुए कैप्टन अंशुमान सिंह को कुछ दिन पहले राष्ट्रपति भवन में आयोजित एक कार्यक्रम के दौरान कीर्ति चक्र से सम्मानित किया गया था। यह सम्मान अंशुमान की पत्नी स्मृति सिंह और उनकी मां ने ग्रहण किया था।
सम्मान ग्रहण करने के कुछ दिन बाद ही अंशुमान के माता-पिता का दर्द छलका और उन्होंने अपनी बहू पर आरोप लगाए कि बेटे का कीर्ति चक्र बहू ने उन्हें छूने तक नहीं दिया गया।
इतना ही नहीं, उन्होंने अपनी बहू पर यह इल्जाम भी लगाए थे कि व बेटे के कपड़े, उसका एटीएम और तमाम चीजें अपने साथ लेकर जा चुकी है। इसके साथ ही शहीद के माता-पिता ने 'नेक्स्ट टू किन' की पॉलिसी में भी बदलाव करने की गुहार लगाई थी।
हालांकि, इसके बाद आर्मी के सूत्रों ने एक स्टेटमेंट जारी कर कहा था कि शहीद को मिलने वाला पैसा माता-पिता और बहू दोनों को बराबर रूप से बांटा गया था। इतना ही नहीं, उनकी पत्नी स्मृति को पेंशन भी मिलेगी, क्योंकि अंशुमान ने उन्हें नॉमिनी बनाया था।
अब इस मुद्दे के बाद, स्मृति को ट्रोल भी किया गया, लेकिन सवाल है कि यह ट्रोलिंग सही है? यह मुद्दा वीर नारियों को उनके अधिकारों तक पहुंचने और सरकार और समाज से पर्याप्त सहायता प्राप्त करने में आने वाली कठिनाइयों के इर्द-गिर्द भी घूमता है।
एक महिला के लिए अपने पति को खोना शायद दुनिया का सबसे बड़ा दर्द है। इसके बावजूद, कई महिलाओ को कई लाभ को प्राप्त करने में देरी का सामना करना पड़ता है।
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वीर नारियों पर पड़ता है बड़ा प्रभाव?
अपने जीवनसाथी को खोने के बाद वीर नारियों के लिए जीवन एकदम बद जाता है। भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक नुकसान से परे, उन्हें वित्तीय स्थिरता, अकेले घर का प्रबंधन और अपने बच्चों की शिक्षा और कल्याण पर ध्यान देने जैसी चुनौतियों का सामना करना पड़ता है।
सेना से मिलने वाला वित्तीय मुआवजा अक्सर वीर नारियों और उनके परिवारों की चल रही जरूरतों और आकांक्षाओं को पूरा करने में कम पड़ जाता है। आवास सुविधाएं हमेशा पर्याप्त या आसानी से उपलब्ध नहीं हो सकती हैं और स्वास्थ्य सेवा लाभ सभी आवश्यक चिकित्सा खर्चों को कवर नहीं कर सकते हैं। इसके अलावा, उनके प्रति सामाजिक दृष्टिकोण उनकी दुर्दशा में जटिलता की एक और परत जोड़ देता है। यह दर्द उन्हें कई बार दुनिया से अलग-थलग कर देता है। इतना ही नहीं, समाज में फिर से शामिल होना उनके लिए कठिन हो जाता है।
क्या है आर्मी के दिए अधिकार और वास्तविकताएं
भारतीय सेना वीर महिलाओं को उनके बलिदान के सम्मान में कुछ अधिकार प्रदान करती है। वित्तीय मुआवजा, तत्काल वित्तीय दबावों को कम करने के लिए दिया जाता है।
आर्मी द्वारा शहीद के परिवार के लिए 'नेक्स् टू किन' की पॉलिसी है। इसका अर्थ है- किसी व्यक्ति के जीवनसाथी, सबसे करीबी रिश्तेदार, परिवार के सदस्य या कानूनी अभिभावक को इस पॉलिसी में लिस्ट किया जाता है। इसके अनुसार, जब कोई कैडेट या अधिकारी शादी करता है, तो उसके माता-पिता के बजाय उसके जीवनसाथी का नाम उसके निकटतम परिजन के रूप में शामिल किया जाता है। अगर सेवा के दौरान जवान को कुछ हो जाए, तो अनुग्रह राशि NOK को दी जाती है।
आर्मी ग्रुप इंश्योरेंस फंड (AGIF), प्रॉविडेंट फंड (PF) सबसे करीबी नॉमिनी के नाम होता है। इंश्योरेंस फंड और प्रोविडेंट फंड के लिए एक से ज्यादा नॉमिनी दिए जा सकते हैं, लेकिन पेंशन के लिए ऐसा कोई विकल्प आर्मी की ओर से नहीं दिया जाता।
हालांकि, वास्तविकता अक्सर इन आकांक्षाओं से कम होती है। नौकरशाही की अक्षमताएं लाभ मिलने में देरी करती हैं, जिससे परिवार अपने सबसे कमजोर क्षणों में अधर में लटके रहते हैं।
एक मीडिया संस्थान की 2014 की रिपोर्ट के अनुसार, भारत में लगभग 25,000 युद्ध विधवाएं हैं, जो दुनिया में सबसे ज्यादा संख्या है। सरकार द्वारा संचालित सैनिक कल्याण विभाग (DSW) के मुताबिक, "ज्यादातर लोगों का मानना है कि चूंकि भारत में अभी युद्ध नहीं चल रहा है, इसलिए कोई भी पुरुष शहीद नहीं हुआ है। लेकिन सच्चाई यह है कि भारतीय सेना हमेशा विभिन्न विद्रोहों से निपटने के लिए विशेष अभियानों में शामिल रहती है, जिनका न तो राजनीतिकरण किया जाता है और न ही प्रचार किया जाता है। हर साल, हमारे पास नई कैजुअलटीज आती हैं और हर साल, इस भयानक त्रासदी का सामना करने वाली महिलाओं की संख्या बढ़ जाती है।"
DSW के डेटा के अनुसार, कम से कम 90 प्रतिशत सेना की विधवाएं ग्रामीण इलाकों में रहती हैं और या तो वे अशिक्षित हैं या उनकी शिक्षा का स्तर न्यूनतम है। इससे उनके रोजगार के अवसर सीमित हो जाते हैं और कुछ मामलों में, उन्हें अपने ससुराल वालों के कारण अपनी मासिक पेंशन खोने का जोखिम उठाना पड़ता है।
वीर नारियों की है दर्द भरी दास्तां...
उत्तराखंड में रहने वाले कुलदीप रावत ने 2014 में सेना ज्वॉइन की थी। वह 6th गढ़वाल राइफल में राइफलमैन के तौर पर तैनात हुए थे। साल 2016 में जम्मू एवं कश्मीर के तंगधार सेक्टर में हुई पाकिस्तानी रेंजर्स की गोलीबारी में वो शहीद हुए थे। कुलदीप की शादी 2015 में हुई थी और साल भर बाद ही उनके शहीद होने के बाद, उनके परिवार को अपने अधिकारों के लिए बहुत भटकना पड़ा था। सरकार की तरफ से मिलने वाले मुवाजा उनकी पत्नी के लिए काफी नहीं था।
उनकी पत्नी किरण रावत (बदला हुआ नाम) बताती हैं, "हमारी शादी को ज्यादा समय नहीं हुआ था और उनका अचानक चले जाने से मुझे कुछ समझ ही नहीं आया। मेरी दुनिया उजड़ गई थी और इसने मेरे जीवन को एक रात में बदल दिया था। मैं मेंटली बहुत ज्यादा डिस्टर्ब हो गई थी और इस एक हादसे ने मुझे अलग-थलग कर दिया था। लोगों की नजरें चुभती थीं, लेकिन थेरेपी की मदद से मैंने खुद को संभाला।
इसके साथ ही, सरकार से मिलने वाले अधिकारों के लिए इधर-उधर दौड़ना एक अलग स्ट्रगल था। सरकार की ओर से जो वादे किए गए थे वह उनके निधन के साल भर तक पूरे नहीं किए गए थे। तत्कालीन मंत्री ने कहा था कि मुझे सरकारी नौकरी मिलेगी, लेकिन इसके लिए मुझे दरदर भटकना पड़ा।"
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सिस्टमैटिक रिफॉर्म्स की है सख्त जरूरत
इन गहरी चुनौतियों से निपटने के लिए, सिस्टमैटिक रिफॉर्म्स की बहुत ज्यादा आवश्यकता है। तमाम लाभ के शीघ्र मिलने के लिए प्रशासनिक प्रक्रियाओं को सरल बनाना प्राथमिकतना होना चाहिए। वित्तीय मुआवजे का मिलना और दायरे को बढ़ाने से विधवाओं और उनके परिवारों के लिए अधिक स्टेबलिटी दी जा सकती है। स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच में सुधार और सामाजिक सहायता नेटवर्क को मजबूत करना भी महत्वपूर्ण कदम है, जिसके जरूरत ज्यादा है।
इन वीर नारियों के ये संघर्ष किसी को नहीं दिखते हैं। बड़ा आसान होता है, इन पर इल्जाम लगाना और इन्हें ट्रोल करना। एक समाज के रूप में, हमें उन बाधाओं का सामना करना चाहिए जो उन्हें हाशिए पर रखती हैं और ऐसी नीतियों की वकालत करनी चाहिए जो उनकी गरिमा को बनाए रखें और उनके बलिदानों का सम्मान करें।
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