आजादी को कितने साल हो गए, लेकिन आज भी भारतीयों के दिलों में उन लोगों के लिए इज्जत कम नहीं हुई है, जिन्होंने आजादी की लड़ाई में अहम भूमिका निभाई थी। आज भी स्वतंत्रता दिवस पर लोग एकत्रित हो कर इस आजाद जीवन के लिए उन स्वतंत्रता सेनानियों का शुक्रिया अदा करते हैं।
हैरानी की बात तो यह है कि इस जंग में अपने क्षेत्रों, मतभेदों को भुलाकर सभी वर्ग फिर चाहे वो अमीर हो या गरीब, महिलाएं हों या पुरुष, बच्चे हों या फिर बुजुर्ग सभी एकजुट हुए और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया। उन साहसी लोगों या स्वतंत्रता सेनानियों से जुड़ी सम्मान, साहस और देशभक्ति की कहानियां आज भी हमारी आंखों को नम कर देती हैं।
हमारा इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलती आई हैं। इसलिए आज हम पुरुषों के बारे में नहीं, बल्कि उन महिलाओं पर एक नजर डालते हैं जिन्होंने देश को आजादी दिलाने में अहम योगदान दिया था।
मातंगिनी हाजरा (Matangini Hazra)
आजादी की जंग में हिस्सेदारी की बात हो और मातंगिनी हाजरा का नाम शामिल न किया जाए...ऐसा हो ही नहीं सकता। यह एक ऐसी महिला रही हैं, जिनके साहस की मिसाल आज भी बड़े गर्व से दी जाती है। इसलिए इन्हें गांधी बरी के नाम से भी जाना जाता था। गांधी बरी ने भारत छोड़ो आंदोलन और असहयोग आंदोलन में बढ़-चढ़कर भाग लिया था।
कहा जाता है कि वो एक जुलूस के दौरान तीन बार गोली खाने के बाद भी भारतीय ध्वज के साथ नेतृत्व करती रहीं और वंदे मातरम के नारे लगाती रहीं। कोलकाता में साल 1977 में पहली महिला की मूर्ति जो लगाई गई थी, वह हाजरा की थी। तो हम इस बात से अंदाजा लगा सकते हैं, कि मातंगिनी हाजरा का इतिहास में कितना बड़ा योगदान है।
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अरुणा आसफ अली (Aruna Asaf Ali)
इनका नाम भी इतिहास के पन्नों में दर्ज है, जिन्हें 'द ग्रैंड ओल्ड लेडी' की उपाधि दी गई है। यह आजादी की जंग में सबसे सहासी महिलाओं में से एक थीं, इन्होंने नमक सत्याग्रह आंदोलन के साथ-साथ अन्य विरोध मार्च में भी भाग लिया था। साथ ही, अरुणा भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान अंग्रेजों के विरुद्ध सभा आयोजित कर, उन्हें खुली चुनौती देने वाली पहली महिला बनीं।
जब 1932 में अरुणा को तिहाड़ जेल भेजा गया था, तब उन्होंने जेल में बंद राजनैतिक कैदियों के साथ होने वाले बुरे बर्ताव के विरोध में भूख हड़ताल भी की थी। इन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान बॉम्बे के गोवालिया टैंक मैदान में भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस का झंडा फहराने के लिए जाना जाता है।
कनकलता बरुआ (Kanaklata Barua)
कनकलता बरुआ को बीरबाला के नाम से भी जाना जाता है। वह असम की एक भारतीय स्वतंत्रता सेनानी थीं। उन्होंने 1942 में बारंगाबाड़ी में भारत छोड़ो आंदोलन में अहम भूमिका निभाई और हाथ में राष्ट्रीय ध्वज लेकर महिला स्वयंसेवकों की कतार में सबसे आगे खड़ी रहीं। उनका लक्ष्य भारत से अंग्रेजों को वापस भेजना था। (भारत की पहली महिला रेल मंत्री के बारे में कुछ खास बातें)
इसलिए उन्होंने 'ब्रिटिश साम्राज्यवादियों वापस जाओ' के नारे भी लगाकर गोहपुर पुलिस स्टेशन पर झंडा फहराने की कोशिश की थी, लेकिन अंग्रेजों ने उन्हें रोक दिया था। हालांकि उन्होंने यह समझाने की कोशिश की, कि उनके इरादे नेक हैं, ब्रिटिश पुलिस ने उन्हें गोली मार दी और 18 साल की उम्र में उन्होंने देश के लिए अपना जीवन बलिदान कर दिया।
भीकाजी कामा (Bhikaiji Cama)
इसमें कोई शक नहीं कि भीकाजी कामा भारतीय स्वतंत्रता संघर्ष के इतिहास में सबसे बहादुर महिला थीं। साथ ही, उन्होंने कई क्रांतिकारी साहित्य लिखे और मिस्त्र में लिंग समानता पर उन्होंने कई भाषण भी दिए। बता दें कि इनका जन्म 24 सितंबर, 1861 को मुंबई में एक पारसी परिवार में भीकाजी रुस्तम कामा के रूप में हुआ था। वह एक अच्छे परिवार से थीं, जिनके पिता सोराबजी फ्रामजी पटेल पारसी समुदाय के एक शक्तिशाली सदस्य थे।
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उन्होंने पुरुषों और महिलाओं के बीच समानता पर जोर दिया। युवा लड़कियों के लिए एक अनाथालय की मदद के लिए अपनी सारी संपत्ति दे दी। एक भारतीय राजदूत के रूप में, उन्होंने 1907 में भारतीय राष्ट्रीय ध्वज फहराने के लिए जर्मनी की यात्रा भी की।
तो, ये हैं भूली-बिसरी वे महिला स्वतंत्रता सेनानी, जो हमारे लिए प्रेरणा हैं। उम्मीद है आपको यह आर्टिकल पसंद आया होगा। ऐसी इंस्पिरेशनल स्टोरीज पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
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