कभी मैला उठाती थीं ऊषा चौमर, जानें कैसे जीता पद्मश्री अवार्ड

मैला उठाने वाली ऊषा चौमर की कहानी काफी कुछ सिखाती है। आज हम आपको उन्ही के बारे में बताने वाले हैं। 

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हमारे समाज में आज जो स्वतंत्रता और सुविधाएं मौजूद हैं वो सालों पहले तक नहीं थी। हम सभी को ढेर सारी रूढ़ियों और प्रथाओं ने जकड़ा हुआ था। इसमें से एक प्रथा मैला ढोने की भी थी। मैला ढोने वाले लोग घर-घर जाकर शौचालयों की सफाई करते थे।

आज हम आपके लिए लेकर आए हैं ऊषा चौमर की कहानी जिन्होंने अपने जीवन के दौरान लंबे समय तक मैला ढोने का काम किया। चलिए जानते हैं ऊषा चौमर (Usha Chaumar) का फर्श से अर्श तक का सफर।

मैला ढोना ही था जीवन

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राजस्थान के अलवर जिले की रहने वाली ऊषा चौमर बताती है कि उन्होंने बचपन से ही मैला ढोने का काम शुरू कर दिया था। वह बताती हैं कि वो अपनी मां के साथ लोगों के घर-घर जाकर इस काम को करती देखती थीं। यह काम आगे भी चलता रहा और उन्हें शादी के बाद खुद यह काम करना पड़ा।

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लोग क्यों करते थे बुरा बर्ताव?

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  • मैला ढोने के अलावा ऊषा चौमर के पास कोई और विकल्प नहीं था। वह बताती है कि मैं शुरू से ही मैला ढो रही थी इसलिए कोई और काम करने का मेरे पास अवसर नहीं था। वह कहती है कि अगर मैं सब्जी बेचना शुरू करती तो कोई भी नहीं खरीदता और मैं पार्लर का काम करती तो कोई मुझे अपने आप को छूने नहीं देता।
  • इतना ही नहीं जिन लोगों के घर में ऊषा चौमार काम करती थी वो भी उन्हें दूर से पैसे फेंक करदेते थे। अलग बर्तन में खाना और किसी भी चीज को छूने ना देने जैसे कई भेदभाव का उन्होंने सामना किया था।

2003 में आया बड़ा बदलाव

  • ऊषा चौमर ने इसी काम को अपनी जिंदगी और मजबूरी समझा हुआ था लेकिन ऐसा नहीं था। साल 2003 में उनकी मुलाकात सुलभ इंटरनेशनल के संस्थापक डॉ. पाठक से हुई जिन्होंने उन्हें इस काम को छोड़ कुछ और करने की सलाह दी।
  • इसके बाद ऊषा चौमर के पास दिल्ली जाने का अवसर था लेकिन उनके लिए अपने घर वालों को मनाना आसान नहीं था। हालांकि इस दौरान उनके पति ने मदद की और दिल्ली जाने के लिए परिवार को मनाया।

नया काम...नया सफर..नया जीवन

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ऊषा दिल्ली गई और उन्होंने वहां खूब सम्मान पाया जो उन्हें 2003 से पहले कभी नहीं मिला था। उनका परिवार अलवर में था इसलिए वो दिल्ली में ना रहकर वापिस अलवर आईं।इसके बाद उन्होंने मैला ढोने का काम छोड़ नई दिशा सेंटर में काम सिखना शुरू किया। इस सेंटर में महिलाओं को आचार बनाना, बुनाई, कढ़ाई और ऐसे ही कई कामों के ट्रेनिंग दी जाती थी।

अब प्रश्न यह था कि इन सामान को खरीदेगा कौन? ऐसे में उन्हें सुलभ इंटरनेशनल संस्थान की मदद मिली। ऊषा चौमर ने इस मुलाकात को अपने जीवन में उमंग के रूप में देखा। ऊषा चौमर के साथ-साथ और भी कई मैला ढोने वाली महिलाएं नई दिशा सेंटर के साथ जुड़ी हुई हैं।

विदेश तक का तय किया सफर

आज ऊषा चौमर को ना सिर्फ भारत बल्कि विदेश में जाना जाता है। वो भारत के अलग-अलग राज्यों समेत लंदन, अमेरिका और साउथ अफ्रीका जैसे कई देशों की यात्रा कर चुकी हैं।

मिला पद्मश्री अवार्ड

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उषा चौमर को साल 2020 के लिए भारत के माननीय राष्ट्रपति द्वारा प्रतिष्ठित पद्म श्री पुरस्कार से सम्मानित किया गया। स्वच्छता और सामाजिक सुधार के लिए उनका योगदान काफी सराहनीय है।

बताया अब और पहले की जिंदगी में अंतर

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ऊषा चोमर बताती हैं कि पहले लोग उनके साथ भेदभाव करते थे लेकिन अब ऐसा नहीं है। जिन लोगों के घर में वो मैला ढोने का काम करती थी आज उसी घर के लोग उन्हें सम्मान के साथ देखते हैं।

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उन्होंने बताया कि पहले उन्हें जिन मंदिरों में जाने की अनुमति नहीं थी आज उसी मंदिर के पंडित उन्हें अपने बच्चों की शादी के लिए आंमत्रित करते हैं। वह वाराणसी समेत भारत के तमाम बड़े मंदिरों में दर्शन कर चुकी हैं।

'लहरों से डर कर नौका पार नहीं होती और कोशिश करने वालों की कभी हार नहीं होती।' इस पंक्ति को सुन ऐसा लगता है कि जैसे यह पंक्ति ऊषा चौमर के लिए ही लिखी गई है। वहीं उनका जीवन बताता है कि शौच और अच्छी सोच दोनों बहुत अहम है।

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Photo Credit: Twitter

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