"आओ सुनाएं गाथा उनकी,क्रांति के जो वीर हुए,
इतिहास कथा के पन्नों पर, छपे नहीं पर साहसी शूरवीर हुए।"
आजादी के बाद से हर साल हम 15 अगस्त को स्वतंत्रता दिवस धूमधाम से मनाते हैं। भारत की आजादी की लड़ाई उधार की नहीं है, बल्कि यह हमारे स्वतंत्रता सेनानियों के वर्षों के संघर्ष का परिणाम है, जिन्होंने ब्रिटिश शासन से आजादी दिलाने के लिए अपना सब कुछ न्योछावर कर दिया। वहीं कई महिलाओं ने समाज की बेड़ियों को तोड़कर बहादुरी, त्याग और समर्पण से देश को आजादी दिलाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। मगर कई महिला स्वतंत्रता सेनानियों के नाम इतिहास के पन्नों में कहीं गुमनाम रह गए, उसमें से एक नाम भारत की पहली महिला जासूस सरस्वती राजामणि का भी है।
समृद्ध परिवार में जन्मीं थी राजामणि
साल 1972 में रंगून(म्यांमार)के एक बहुत अमीर व्यापारी के घर जन्मीं राजामणि का एक होनहार बच्चे से एक निडर स्वतंत्रता सेनानी बनने का सफ़र, आजादी की लड़ाई के दौरान भारत के युवाओं के अदम्य साहस का प्रतीक है।
जिस समय भारत आजादी की लड़ाई लड़ रहा था, उस समय राजामणि के पिता रामनाथन रंगून आकर बस गए थे। राजामणि के पिता एक खनन व्यवसायी थे और वह रंगून से ही स्वतंत्रता आंदोलन के लिए बड़ी रकम दान करते थे। राजामणि का पूरा परिवार गांधीजी के आदर्शों का पालन करता था। जब राजामणि 10 साल की थीं, तब एक बार गांधीजी रंगून आए और वह राजामणि के परिवार से मिले।
नेताजी के विचारों से प्रभावित थीं राजामणि
गांधी जी ने जब राजामणि के छोटे हाथों में खिलौने वाली बंदूक देखी, तो उन्होंने पूछा," तुम शूटिंग का अभ्यास क्यों कर रही हो?" तब छोटी-सी राजामणि ने कहा था," मुझे अंग्रेजों को गोली मारनी है।" यह सुनकर गांधी जी चौंक गए और उन्होंने बच्ची से कहा कि हिंसा स्वतंत्रता पाने का तरीका नहीं है। हालांकि छोटी-सी राजामणि ने बापू के सामने तो बंदूक को रख दी, लेकिन उसका मानना था कि अहिंसा से देश को आजादी नहीं मिल सकती है।
बचपन से राजामणि नेताजी सुभाष चंद्र बोस की बहुत बड़ी प्रशंसक थीं, क्योंकि उनके विचार नेताजी से बहुत मेल खाते थे। जब भी वह सुभाष चंद्र बोस के भाषण सुनती थीं, तो उनके अंदर देशभक्ति की भावना जाग जाती थी। राजामणि नेताजी के आंदोलन का हिस्सा बनना चाहती थीं।
जनवरी 1944 में नेताजी सुभाष चंद्र बोस ने रंगून का दौरा किया था और वहां रहने वाले भारतीय समुदाय से भारतीय राष्ट्रीय सेना (INA) की मदद के लिए अपील की थी। वहां एक शिविर लगाया गया था, जिसमें लोग जाकर अपने हिसाब से पैसा दान कर सकते थे। उस समय युवा राजामणि ने एक थैले में अपने सारे सोने-चांदी के जेवरातों को भरकर दान में दे दिया था। जब धन इकट्ठा करने वाले ने उसका नाम और पता लिखा और दान देखा, तो वह चौंक गया। उसने जाकर यह बात नेताजी को बताई।
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कैसे पड़ा सरस्वती राजामणि नाम?
नेताजी ने नाम पढ़ा और वह राजामणि के घर उनके सारे गहने वापस करने पहुंच गए। शाम को जब वह घर आईं, तो राजामणि ने नेताजी को देखा और वह बहुत खुश हुईं। लेकिन जब नेताजी उनके पिता को गहनों से भरी थैली वापस करने लगे, तो वह क्रोधित हो गईं और थैली को नेताजी के सामने बढ़ाते हुए कहा," ये मेरे गहने हैं और मुझे इन्हें दान देने के लिए पिता जी की अनुमित की जरूरत नहीं है।" नेताजी ने उन्हें समझाने की बहुत कोशिश की लेकिन राजामणि नहीं मानी। फिर उन्होंने सुभाष चंद्र बोस के सामने एक शर्त रखते हुए कहा कि अगर आप मुझे INA में शामिल करेंगे, तो मैं ये सब वापस ले लूंगी।
राजामणि की बात सुनकर नेताजी ने मुस्कुराते हुए कहा," हां, तुमको मैं INA में शामिल करता हूं। लक्ष्मी तो आती-जाती रहती है, लेकिन जब सरस्वती किसी इंसान के पास आती है, तो वह जीवन भर साथ ही रहती है। तुम बहुत बुद्धिमान हो और तुम पर सरस्वती माता मेहरबान हैं। इसलिए, मैं तुमको आज से सरस्वती राजामणि कहूंगा।" और तब से सरस्वती नाम भी उनके साथ जुड़ गया।
INA में नर्स के रूप में शामिल हुईं
शुरुआत में सरस्वती INA में एक नर्स के रूप में शामिल हुईं। जब दूसरा विश्व युद्ध चल रहा था और अंग्रेजी हुकूमत ने जापानियों पर हमला कर दिया था, तब सरस्वती को घायल सैनिकों के इलाज की जिम्मेदारी सौंपी गई थी। एक दिन, सरस्वती ने देखा कि कुछ जापानी नागरिक छिपकर एक ब्रिटिश सैनिक के पास जा रहे थे और उन्हें जानकारी दे रहे थे। उन्हें कुछ सही नहीं लगा और वह सीधा नेताजी के पास चली गईं। उन्होंने, जो भी देखा उसकी पूरी रिपोर्ट दी और जब नेताजी ने मामले की जांच करवाई, तो वह सच निकली। दरअसल अंग्रेजों को जापानी आंदोलनों के बारे में जानकारी पैसों के बदले दी जा रही थी।
जब नेताजी ने सरस्वती राजामणि की चुतराई और साहस को देखा और सरस्वती समेत उनकी 4 सहेलियों को INA के लिए जासूस बना दिया। लड़कियों की उम्र मात्र 16 साल की थी, इसलिए उनके माता-पिता काफी चिंतित थे। सरस्वती समेत सभी लड़कियों को स्वामीनाथन की अगुवाई वाली रानी झांसी रेजिमेंट में शामिल कर लिया गया। उन्हें दौड़ना, चढ़ाई करना और कई तरह के सैन्य प्रशिक्षण दिए गए। उन्हें कई तरह की बंदूकें चलाने की भी ट्रेनिंग दी गई। इसके बाद उन्हें रंगून से लगभग 700 किमी दूर मैम्यो भेजा गया।
जब सरस्वती राजामणि जासूस बन गईं, तो उनके बाल लड़कों की तरह काट दिए गए और उन्हें लड़कों के कपड़े पहनाकर और भेष बदलकर ब्रिटिश अधिकारियों के घरों में काम करने के लिए भेज दिया गया। राजामणि ने अपने इस मिशन का नाम 'मणि' रखा। उनका काम अंग्रेजों के घरों में जाकर छोटे-मोटे काम करना था, लेकिन उनकी आंखें और कान हमेशा खुले रहते थे कि अधिकारी क्या बोल रहे हैं और क्या बातें कर रहे हैं। जब भी कोई महत्वपूर्ण जानकारी मिलती थी, तो वे मुखबिरों के जरिए नेताजी तक पहुंचा दिया करती थीं। लेकिन एक दिन सरस्वती की सहेली दुर्गा को अंग्रेजों ने रंगे हाथों पकड़ लिया और उसे जेल में डाल दिया।
जब सरस्वती को इस बात का पता चला, तो वह अपनी सहेली को आजाद करने के लिए बर्मी पोशाक पहनकर सफाई कर्मचारी के रूप में पहुंच गईं। जब जेलर किसी दूसरे जेलर से बात करने गया, तो उसने चाबी को टेबल पर छोड़ दिया और सरस्वती ने इस मौके का फायदा उठाया। उन्होंने जेल का दरवाजा खोला और दोनों भाग निकलीं।
भागने पर जेलरों ने उनकी पीछा किया और एक जेलर ने गोली चला दी। गोली सीधा सरस्वती के दाहिने पैर पर जाकर लगी। पास में एक घना जंगल था और दोनों भागकर वहीं छिप गईं। दुर्गा एक पेड़ पर चढ़ गई और सरस्वती को भी खींचकर ऊपर ले लिया। गोली लगने की वजह से खून बहुत बह रहा था, लेकिन दो दिनों तक लड़कियां पेड़ से नीचे नहीं उतरी। लगातार दो दिनों तक अंग्रेजों ने जंगल की तलाशी ली, जब कुछ नहीं मिला तो उन्होंने तलाशी बंद कर दी।
देश की पहली महिला जासूस बनीं सरस्वती राजामणि
तीसरे दिन, सरस्वती और दुर्गा पेड़ से नीचे उतरीं और दुर्गा की मदद से घायल सरस्वती सड़क पर पहुंची। दोनों ने रंगून के लिए एक वैन पकड़ी। 8-10 घंटे के कठिन सफर के बाद दोनों INA शिविर पहुंचीं और नेताजी से मिलीं। सरस्वती को तुरंत मेडिकल रूम में भेजा गया, लेकिन इलाज में देरी के कारण उनका दाहिना पैर जीवन भर के लिए लंगड़ाता रहा। नेताजी सरस्वती राजामणि की बहादुरी से खुश हुए और उन्होंने उन्हें रानी झांसी रेजिमेंट में लेफ्टिनेंट का पद प्रदान किया। उन्हें एक प्रशंसा पत्र भी दिया गया, जिसमें उन्हें देश की पहली भारतीय महिला जासूस के रूप में संबोधित किया गया। इसके अलावा, जापानी सम्राट ने भी सरस्वती को उनकी बहादुरी के लिए पदक और नकद इनाम दिया।
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25 सालों तक स्वतंत्रता सेनानी पेंशन से रहीं वंचित
साल 1945 में जापान के हिरोशिमा और नागासाकी में परमाणु बमबारी हुई और दूसरा विश्व युद्ध खत्म हो गया। युद्ध खत्म होने के कुछ ही दिन बाद, नेताजी सुभाष चंद्र बोस की एक हवाई दुर्घटना में मृत्यु हो गई। सरस्वती और उनका परिवार 1957 को भारत वापस आ गया और चेन्नई में रहने लगा। पहली महिला जासूस को कभी भी स्वतंत्रता सेनानी पेंशन नहीं मिली। आजादी के लगभग 25 साल बाद उन्हें 1971 में पेंशन मिलनी शुरू हुई। समय के साथ-साथ भारत की पहली महिला जासूस के हालात बद से बदतर हो गए और एक समय ऐसा आया कि उनके पास रहने के लिए छत तक नहीं बची।
साल 2005 में जब तमिलनाडु की मुख्यमंत्री जयललिता को उनके बारे में पता चला, तो उन्होंने रोयापेट्टा में एक छोटा-सा अपार्टमेंट और 5 लाख रुपये की सहायता राशि दी। हालांकि, पहले सरस्वती राजामणि ने लेने से इनकार कर दिया, लेकिन बाद में आर्थिक स्थिति को देखते हुए मदद स्वीकार कर ली। साल 2004 में आई सुनामी के दौरान, सरस्वती राजामणि ने अपनी पेंशन, मुख्यमंत्री राहत कोष में दान कर दी थी। उन्होंने 2008 में INA की अपनी सभी यादगार वस्तुओं को कोलकाता में नेताजी के संग्रहालय में दान दे दिया था। जनवरी 2018 में दिल का दौरा पड़ने से राजामणि की मृत्यु हो गई।
ये थी गुमनाम महिला स्वतंत्रता सेनानी की प्रेरणादायक कहानी। उम्मीद है कि आपको यह आर्टिकल पसंद आया होगा। ऐसी इंस्पिरेशनल स्टोरीज पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
Image Credit -Homegrown, her circle, TimesContent
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