कुछ डिशेज होती हैं, जो आपका पेट भरती हैं और कुछ डिशेज आपकी आत्मा को प्यार और अपनेपन से भर देती हैं। मां के हाथों का बना हुआ खाना, ऐसा ही होता है। जिस आत्मीयता से मां हमारे लिए हमारी फेवरेट चीजें बनाती हैं, वो हमारे साथ ताउम्र रह जाती हैं। मां की बनाई हुईं खास डिशेज सिर्फ रेसिपी नोट नहीं होता। वे ममता भरी परंपरा होती है, जिसे हर मां बड़ी खूबसूरती से निभाती है।
आप किसी से पूछिए कि वह सबसे ज्यादा क्या मिस करता है, तो वह मां के हाथों से बने गर्म-गर्म खाने का जिक्र करेगा। काम के सिलसिले में घर से बाहर निकले हुए बच्चे हों,ब्याह दी गईं बेटियां हों या फिर बॉर्डर पर देश के लिए लड़ रहा सिपाही...हर किसी की जुबान पर बस यही शब्द होते हैं।
मेरे लिए भी मां के हाथ से बनी रोटियां अमृत जैसी हैं। मैं बाहर की रोटियां खा ही नहीं सकती। कितनी भूख लगी हो, लेकिन पेट ही नहीं भरता। मगर जब घर जाती हूं और मां के हाथ से बना खाना खाती हूं, तो एक निवाले में भूख मिट जाती है।
कोई मां के जाने पर आज भी उन डिशेज को खाने के लिए तरसता है, जो मां बनाया करती थी। कोई मां की याद में उन रेसिपीज को बार-बार बनाता है। इसी तरह कुछ खास डिशेज आज भी हमें मां की सबसे ज्यादा याद दिलाती हैं।
इस मदर्स डे पर, मेरी कोशिश है कि इस लेख के जरिए, हम उन मोमेंट्स को फिर से जी सकें। इस लेख के जरिए हम उन खाने की यादों का जश्न मना रहे हैं जो आज भी हमारे दिल में बसी हैं। वह डिश जो आज भी मम्मी की जादू की झप्पी जैसी लगती है, उनके बारे में बात कर रहे हैं।
घर जैसा सोया चाप खाने को तरसती हूं
नोएडा की रहने वाली महिमा भटनागर को सोया चाप बहुत पसंद है, लेकिन वह उस स्वाद के लिए तरसती हैं, जो मां के हाथों से आता था। वह कहती हैं, "मुझे मां के हाथ से बनी सोया चाप बहुत पसंद थी। वह बिल्कुल वैसे बनाती थीं, जैसे ढाबे में मिलती है। उनके द्वारा बनाई गई चाप के आगे बाजार में मिलने वाली चाप भी फेल थी।"
महिमा की मम्मी अब इस दुनिया में नहीं हैं, लेकिन यह डिश आज भी उन्हें मां की जादू की झप्पी जैसी लगती है। वह आते कहती हैं, "ड्राई चाप हो या ग्रेवी वाली सब्जी, मां दोनों बहुत स्वादिष्ट बनाती थीं। जब-जब वह स्वाद ज़ुबान पर आता है, ऐसा लगता है जैसे मां ने फिर से गले लगा लिया हो।"
मां (स्व.) श्रीमती गीता भटनागर के साथ महिमा भटनागर
इसे भी पढ़ें: Mother's Day Special: किसी कुकबुक से नहीं मम्मी से सीखी मैंने ये रेसिपीज
बेस्ट लगती है घर की थाली
देहरादून की रहने वाली वैजयंति रावत पिछले 4 साल से कैलिफोर्निया में हैं। इन चार सालों में वह बस दो बार घर आ पाई हैं। ऐसे में उन्हें मां के हाथ का खाना सबसे ज्यादा याद आता है। वह कहती हैं, "मेरे लिए वो डिश है- जीरे की तड़के वाली पीली दाल और चावल। मेरी मम्मी कई सारी चीजें बहुत अच्छी बनाती हैं, लेकिन मेरे लिए कम्फर्ट फूड सिंपल पीली दाल और चावल है।"
मां इसे तब बनाती थीं जब मुझे बुखार होता था। तब मुझे यह बिल्कुल पसंद नहीं थी, लेकिन धीरे-धीरे यह मेरा कम्फर्ट फूड बन गया। अब क्योंकि मैं काम के सिलसिले में इंडिया से बाहर रहती हूं, तो दिल को सुकून पहुंचाने के लिए कभी-कभी यही दाल बनाती हूं। इसे बनाना बहुत आसान है, लेकिन फिर भी हर बार मां को फोन करके परेशान करती हूं। उनसे सीखने के बाद भी, आज तक इसमें मां के हाथ वाला स्वाद नहीं आ पाया।
मां से दूर रहकर समझ आया कि बात सिर्फ मसालों या रेसिपी की नहीं थी। बात मां की मौजूदगी की है और वो स्वाद, वही एहसास… बस मां के हाथों से ही आता था।
मां के हाथ की तहरी
लखनऊ की वर्षा अब बैंगलोर में रहती हैं। शादी के बाद उन्हें पति के साथ बैंगलोर शिफ्ट होना पड़ा, तो उन्होंने अपनी मम्मी से हैंड रिटन रेसिपी नोट्स बनवाए थे। वर्षा को अपनी मम्मी के हाथ की तहरी बहुत अच्छी लगती है। वह कहती हैं-
"बारिश के दिनों में मां तहरी बनाती थीं, चावल में आलू, मटर,नमक और हल्दी डालकर झटपट तहरी तैयार हो जाती थी। पूरा घर बस उसकी खुशबू से भर जाता था। मैं मदद करने का नाटक करती थी, लेकिन असल में तो बस तले हुए आलू चुराती रहती थी।
अब जब मन उदास होता है या रोटी-सब्जी बनाने का मन नहीं करता, तो मैं वही तहरी बनाती हूं। अब तो मेरे हसबैंड को भी तहरी इतनी पसंद है कि वह कुछ हफ्ते में दो बार तहरी बनाने के लिए कह देते हैं। स्वाद मां के हाथों जैसा नहीं होता, लेकिन दिल को तसल्ली मिलती है। लगता है जैसे मां पास ही हैं, बस पीछे मुड़ते ही दिख जाएंगी।"
वर्षा सिंह, बैंग्लोर
आलू-पूड़ी, छोले और पनीर का लजीज स्वाद याद आता है
दिल्ली की गलियों में स्वाद की कमी नहीं, मगर समृद्धि के लिए असली स्वाद तो मम्मी की रसोई से आता था। उनकी मम्मी, कामिनी ब्रेजा, जितनी फूडी थीं, उतनी ही शानदार कुक भी। समृद्धि बताती हैं, "कोविड के दिनों में जब सब थम गया था, तब मैंने मम्मी के साथ रसोई में वक्त बिताया। छोले-भटूरे, गोलगप्पे, टोस्ट पिज्जा, आदि मैंने बहुत कुछ बनाया, पर वो जो स्वाद मां के हाथों में था, वो मेरे हाथों में कहां!"
उनकी फेवरिट डिश? आलू-पूड़ी, जिसे समृद्धि 'मम्मी की सिग्नेचर रेसिपी' कहती हैं। "वह खूब सारे मसालों के बिना इतना टेस्टी बनाती थीं कि हर निवाला खास लगता था।"
और पनीर? न क्रीम, न काजू का पेस्ट फिर भी इतनी लजीज ग्रेवी बनती थी कि हर बाइट में मजा आ जाता था। "आज जब मैं वो रेसिपी ट्राय करती हूं, तो स्वाद तो अच्छा आता है... मगर मम्मी वाला जादू शायद हमेशा अधूरा ही रहेगा।"
मां श्रीमती कामिनी ब्रेजा के साथ समृद्धि ब्रेजा
मुझे भी मां की तरह पसंद चाय पीने का चस्का लगा
मेरी नानी और मम्मी को हर घंटे चाय मिल जाए, तो उनके लिए गजब हो जाता था। उन दोनों की बॉन्डिंग बढ़िया तो चाय पर चर्चा करते हुए होती थी।
मेरी नानी बढ़िया कुक थीं। उनके हाथों में जादू था। राजमा हो या अरहर की दाल, उनसे बेहतर कोई नहीं बना सकता था। हमारे घर आने वाले मेहमान उन दिनों लैंडलाइन पर फोन करके अपना पसंदीदा खाना बनवाते थे। किसी को उनके हाथ की मूली की थैच्वानी पसंद थी। कोई कफली खाने आता था। कोई आलू के गुटके पसंद करता था, तो कोई सिर्फ नानी के हाथ की पीली दाल खाता था।
मुझे चाय बहुत पसंद है और यह आदत मुझे मेरी मां से ही पड़ी। मैं बाहर से थकी हुई आती थी, तो मां अक्सर चाय भरकर स्टील का गिलास थमा देती थी। उनके हाथ से वो प्याला पकड़कर ही सारी थकान मिट जाती थी। किसी के लिए प्यार से चाय बनाना उनकी लव लैंग्वेज थी।
सुनीता बंगवाल, देहरादून
इसे भी पढ़ें: Mother's Day recipes: मां को दिखाएं अपने कुकिंग स्किल्स, ट्राई करें ये वेजिटेरियन डिशेज
क्यों मां के हाथ का खाना लगता है थेरेपी?
मां के हाथ का खाना महज एक थाली में परोसे गए व्यंजन नहीं होते, वह थाली में परोसती थीं गर्मागरम खिचड़ी के साथ सुकून। हमारे बीमार होने पर उनका खाना ठीक हो जाने का वादा होता था। सिर्फ मसालों से तैयार फैंसी डिशेज नहीं, बल्कि उनमें होता था मां का दुलार और प्यार, जिसे कोई कुकिंग शो नहीं सिखा सकता।
मैंने क्लीनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. भावना बर्मी से यह जानने की कोशिश की, कि माां के हाथ का बना खाना क्यों हमारे लिए थेरेपी होता है, तो उन्होंने बताया, "मां का बनाया खाना हमारी सबसे सुरक्षित यादों से जुड़ा होता है। हमारे मन में खाने की कुछ स्मृतियां गहराई से दर्ज होती हैं, खासकर जब वे देखभाल या प्यार से जुड़ी होती हैं। मां के हाथ का खाना एक तरह की 'इमोशनल एंकरिंग' करता है। जब हम वही स्वाद फिर से पाते हैं, तो वह हमारे अंदर सुरक्षित, प्यार भरे और नॉस्टैल्जिक भावों को जगा देता है, जो असल में एक तरह की थेरेपी की तरह काम करता है।"
शायद इसलिए तरह-तरह का खाना चखने पर भी हमारा मन घर की थाली पर टिक होता है। जब दिल उदास होता है या शरीर थक जाता है, तो क्रेविंग होती है सिर्फ उसी स्वाद की, जिसमें कोई 'सीक्रेट इंग्रीडिएंट' नहीं होता, बल्कि ममता होती है।
कभी-कभी किसी डिश का स्वाद दिल और ज़ुबान पर रह जाता है। कुछ व्यंजन ममता का पर्याय बन जाते हैं। इस मदर्स डे पर आप भी ऐसी डिशेज बनाकर या अपनी मां के साथ उन रेसिपी नोट्स पर चर्चा करके, उनके दिन को और भी खास बना सकते हैं।
हमें उम्मीद है कि यह लेख आपको पसंद आया होगा। इसे लाइक करें और फेसबुक पर शेयर करना न भूलें। ऐसे ही लेख पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
Image Credit: Freepik, Metaai
HerZindagi ऐप के साथ पाएं हेल्थ, फिटनेस और ब्यूटी से जुड़ी हर जानकारी, सीधे आपके फोन पर! आज ही डाउनलोड करें और बनाएं अपनी जिंदगी को और बेहतर!
कमेंट्स
सभी कमेंट्स (0)
बातचीत में शामिल हों