जब मीठे की बात आती है तो हम रबड़ी को कैसे भूल सकते हैं। यह प्राचीन समय से हमारे देश की शान बनी हुई है। बनारस के घाट में बैठिए तो बिना इमरती-रबड़ी के तो आप बैठ ही नहीं सकते। मथुरा की गलियों की रबड़ी आपने न खाई, तो भैया कैसा मथुरा दर्शन किया? बंगाल गए और रबड़ी न चखी तो फिर क्या किया? ये सारी भावनाएं ही हैं, जो रबड़ी के लिए लोगों के दिल में उमड़ती है।
क्या आपको पता है कि रबड़ी ने अपना इतना लंब सफर कैसे तय किया? आइए आपको रबड़ी के बारे में आज कुछ खास बताएं। मथुरा में इसके जीवन और फिर बंगाल में इसकी लोकप्रियता का किस्सा सुनाएं।
मथुरा से बनारस की गलियों तक कैसे पहुंची रबड़ी?
कई रिपोर्ट्स और कहानियों पर भरोसा किया जाए तो माना जाता है कि रबड़ी का ताल्लुक शुरू से कृष्णा की पवित्र धरती मथुरा-वृंदावन से रहा। दूध को खिटाकर इसे मथुरा में बनाया जाने लगा, लेकिन फिर यह बनारस तक जा पहुंची। बनारस में इसके स्वाद और फ्लेवर में बिल्कुल नयापन आ गया। दूध को पकाकर मलाई और रबड़ी दोनों बनाई जाने लगी। यहां के कई यादव बिहार से थे और पहली बार मलाई और रबड़ी जैसी क्लासिक मिठाइयां इस समय बनाई गई थीं।
बनारस में भांग के बाद अगर कुछ सबसे ज्यादा लोकप्रिय हुआ तो वो रबड़ी ही थी। इसी तरह सादी सी रबड़ी में स्वाद के लिए ड्राई फ्रूट्स भी पड़ने लगे। रबड़ी की लोकप्रियता बढ़ने लगी और वहां से लखनऊ, गुजरात और महाराष्ट्र अलग-अलग वेरिएशन में बनने लगी।
बंगाल में क्यों पॉपुलर हुई रबड़ी?
क्या आपने कभी सोचा है कि किसी को रबड़ी इतनी पसंद होगी कि उसके नाम पर एक गांव ही समर्पित हो सकता है? बंगाल से रबड़ी का रिश्ता बहुत गहरा है। ऐसा कहते हैं कि बंगाली उस समय मथुरा, वृंदावन और बनारस से बहुत ज्यादा कनेक्टेड थे और वहीं उन्होंने रबड़ी के पहली बार दर्शन किए। ये बात है साल 1400 की, जब बंगाल के चर्चित साहित्य चंडीमंगला में इसका उल्लेख मिलता है (बनारस घूमने का ऐसे करें प्लान)।
बंगालियों को रबड़ी इतनी पसंद आई कि एक पूरा गांव जिसका नाम पहले गंगपुर होता था, आज रबड़ीग्राम से जाना जाता है।
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क्या है रबड़ीग्राम?
रबड़ीग्राम और कुछ नहीं बस रबड़ी प्रेमियों का गांव है। यह गांव पहले गंगपुर नाम से जाना जाता था। हुगली से कुछ 90-95 मिनट की दूरी यह गांव है।
कुछ कहानियों के के मुताबिक, एक दिन एक गांव वाला कोलकाता के बाजार में गया और वहां से रबड़ी की कला सीखकर गांव लौटा। उसने धीरे-धीरे रबड़ी बनानी शुरू की और उसे कोलकाता की दुकानों में बेचना शुरू किया।
इस तरह धीरे-धीरे पुरे गांव ने इस कला को सीखा और अपनाया और आज पिछले कई वर्षों से पूरा गांव सिर्फ रबड़ी बनाता है।
जब कोलकाता में बैन हुई थी रबड़ी
यह भी बड़ी दिलचस्प बात है कि जहां रबड़ी के लिए पूरा गांव समर्पित हो, वहां आखिर रबड़ी को बैन कैसे किया जा सकता है? मगर यह सच है। रबड़ी (ऐसे बनाएं रबड़ी) बनाने के लिए चूंकि बहुत दूध की जरूरत होती है, तो एक वक्त ऐसा आया जब आर्थिक मंदी ने अपने पैर पसारे। साल 1965 की बात है, जब दूध के अत्याधिक उपयोग के कारण रबड़ी पर बैन लगा दिया गया। हालांकि यह रोक बहुत लंबे समय तक नहीं चली थी। कुछ मिठाई वालों ने जंग छेड़ी और इस फैसले को बदलने के लिए कलकत्ता हाई कोर्ट को मजबूर किया। उसके बाद साल भर के अंदर ही इस रोक को हटा दिया गया था।
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आज रबड़ी के कुछ 25-30 वेरिएशन हैं और अलग-अलग जगहों पर इसे बिल्कुल अलग तरह से बनाया जाता है। हर स्टेट में इसने रंग और रूप बदले और साथ ही इसके स्वाद में भी बदलाव हुआ।
आपको रबड़ी की यह दिलचस्प कहानी कैसी लगी, हमें कमेंट कर जरूर बताएं। अगर आपको लेख पसंद आया तो इसे लाइक और शेयर करें और ऐसे ही रोचक लेख पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी के साथ।
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