आखिर क्यों महाभारत युद्ध के बाद शकुनि को मिला था स्वर्ग और पांडव गए थे नर्क?

महाभारत के युद्ध में शकुनि और कौरवों ने अधर्म किया और पांडव धर्म की तरफ थे फिर भी शकुनि और दुर्योधन को स्वर्ग मिला और युधिष्ठिर को नर्क, लेकिन ऐसा क्यों?

Shakuni and Yudhishthir story mahabharat

स्वर्ग और नर्क का रास्ता हमारे कर्मों से होकर गुजरता है। बचपन से लेकर अभी तक हमें यही सिखाया गया है कि अगर हम अच्छे कर्म करेंगे, तो हमें स्वर्ग जाने को मिलेगा और अगर हम बुरे कर्म करेंगे, तो नर्क का द्वारा हमारे लिए खुल जाएगा। यही साधारण सा कॉन्सेप्ट हमें शुरुआत से अंत तक अच्छे और बुरे कर्म करने के लिए प्रेरित करता है। हम सभी ने महाभारत पढ़ी, देखी या सुनी है और पता भी होगा कि पांडव धर्म की तरफ थे और कौरवों ने अधर्म किया था, लेकिन क्या आपको पता है कि युधिष्ठिर जब स्वर्ग पहुंचे थे, तब उन्होंने स्वर्ग में दुर्योधन, दुशासन (दु:शासन) और शकुनि को विराजमान देखा था, लेकिन उनके भाई और द्रौपदी सभी नर्क में थे।

इसके पीछे महाभारत की एक महान कथा है जिसके बारे में ज्यादा लोगों को नहीं पता है।

आखिर क्यों शकुनि पहुंचे थे स्वर्ग?

इसके पीछे भी महाभारत की ही एक कथा है। दरअसल, शकुनि ने कभी अपने स्वार्थ लिए कोई पाप नहीं किया था। वह सिर्फ अपने परिवार के खिलाफ हुए अपराधों का बदला ले रहे थे। गांधारी अपने समय में अखंड भारत की सबसे खूबसूरत राजकुमारी मानी जाती थीं और जब वह पैदा हुई थीं तब पंडितों ने कहा था कि उनके पति की उम्र कम होगी। यही कारण है कि गांधारी के पिता महाराज सुबला ने एक बकरी से गांधारी की शादी कराकर उस बकरी को मार दिया था, ताकि दोष कम हो जाए।

गांधारी से शकुनि बहुत प्यार करते थे और जब उन्हें पता चला कि गांधारी का विवाह राज्य की रक्षा के लिए जन्मांध धृतराष्ट्र से किया जा रहा है, तब उन्हें बहुत क्रोध आया। धृतराष्ट्र को राजगद्दी भी नहीं मिली। इसके बाद भीष्म पितामह को गांधारी और बकरी के विवाह के बारे में पता चल गया। उन्हें बहुत क्रोध आया कि राज परिवार की बहु एक विधवा को बनाया गया। इसलिए उन्होंने, महाराज सुबला और उनके पूरे परिवार को जेल में डाल दिया। उस वक्त प्रत्येक व्यक्ति को खाने के लिए एक अन्न का दाना दिया जाता था। महाराज सुबला और उनके परिवार ने अपना राशन भी शकुनि को दिया ताकि वह उनकी मौत का बदला ले सके। एक के बाद एक सभी शकुनि के सामने मरते गए और शकुनि ने अपने पिता की अस्थियों से ही वो जादुई पासे बनाए थे जो हमेशा शकुनि की बात मानते थे।

mahabharat character shakuni and swarga

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शकुनि हमेशा अपने परिवार के लिए जिए इसलिए उन्हें अपने पापों के बाद भी कुछ समय के लिए स्वर्ग मिला।

जहां तक पांडवों की बात है, तो उन्होंने धर्म का रास्ता जरूर चुना, लेकिन हर किसी ने कुछ ना कुछ गलत किया।

इस कथा को लेकर धर्मगुरू सदगुरू ने अपने वीडियो में बताया है। उन्होंने महाभारत की इस कथा का ठीक तरह से वर्णन किया है।

पांडवों के नर्क जाने का कारण

महाभारत का युद्ध जीतने के बाद पांडवों ने हस्तिनापुर में राज करना शुरू कर दिया। युधिष्ठिर धर्म को मानने वाले राजा थे और उन्होंने 36 सालों तक राज किया। इसके बाद उत्तरा और अभिमन्यु के पुत्र परीक्षित को अपना राज-पाठ सौंपकर वह स्वर्ग की ओर चल दिए। रास्ते में उन्होंने कई चीजों को देखा और जब वह पर्वत पर पहुंचे तब सबसे पहले द्रौपदी गिर गईं और मृत्यु को प्राप्त हुईं। इसपर अर्जुन, भीम, नकुल और सहदेव ने पीछे पलट कर देखा, लेकिन युधिष्ठिर ने नहीं। जब भाई ने सवाल किया तब युधिष्ठिर ने कहा कि द्रौपदी ने हम पांचों को अपना पति माना, लेकिन सिर्फ अर्जुन से ही वह सबसे अधिक स्नेह कर पाईं। ऐसे में उन्होंने अपने धर्म का पालन नहीं किया।

आगे चलकर नकुल भी गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो गए। उसमें युधिष्ठिर ने जवाब दिया कि युधिष्ठिर को अपने रूप पर बहुत गर्व था। वह खुद को संसार का सबसे सुंदर पुरुष मानते थे। यही घमंड उनका पाप था। थोड़ा और आगे चलने पर सहदेव भी गिरकर मृत्यु को प्राप्त हो गए। ऐसा होने पर जब अर्जुन ने युधिष्ठिर से पूछा, तब उन्होंने जवाब दिया कि युधिष्ठिर को घमंड था कि वह सबसे बुद्धिमान हैं और उनके सामने सब कुछ होता रहा फिर भी उन्होंने अपनी बुद्धि का इस्तेमाल नहीं किया और ना ही अधर्म पर कुछ बोला और ना ही उसे रोकने की कोशिश की। यही कारण है कि सहदेव आगे नहीं जा सके।

थोड़ा और आगे चलने पर भीम के साथ भी ऐसा ही हुआ तब अर्जुन ने पूछा कि भीम में तो कोई घमंड नहीं था फिर उनके साथ ऐसा क्यों हुआ? इसपर युधिष्ठिर ने कहा कि भीम को उनका लालच मार गया। भीम इंसान होते हुए भी किसी पुरुष की तरह खाते थे और खाना देख खुद को रोक नहीं पाते थे। इसके अलावा, वह दूसरों की विपत्ति में खुश होते थे। अगर कौरवों के साथ कुछ बुरा होता था, तो वह खुद ही प्रसन्न होते थे। इसलिए भीम आगे नहीं जा सके।

आखिर में अर्जुन गिरे और सवाल पूछने वाला कोई ना था। तब युधिष्ठिर ने कहा कि अर्जुन खुद को विश्व का सबसे अच्छा धनुर्धर मानते थे। वह अपनी कला में अच्छे थे, लेकिन सबसे श्रेष्ठ नहीं। इतना ही नहीं उन्हें हमेशा यह डर रहता था कि अगर उनसे बेहतर कोई आ गया, तो उनका क्या होगा। उनके मन का यही डर उन्हें आगे नहीं जाने दे रहा।

Mahabharat story of pandava swarg yatra

आखिर में युधिष्ठिर मेरू पर्वत (सुमेरू) के शिखर पर पहुंचे तब इंद्र ने अपना वाहन उन्हें लेने के लिए भेजा। अगर इस पर्वत के शिखर तक कोई संपूर्ण ज्ञान के साथ आ जाता है, तो उसे अपने शरीर के साथ ही स्वर्ग जाने को मिलता है। इंद्र के वाहन में जब युधिष्ठिर जाने लगे तब उन्होंने देखा कि हस्तिनापुर से एक कुत्ता उनके पीछे आ गया है। इंद्र ने बिना उसके जाने से मना कर दिया और इंद्र ने कहा कि ऐसा नहीं हो सकता। तब युधिष्ठिर ने कहा कि अगर यह इतनी लंबी यात्रा करके आया है, तो यह तय करने वाले हम नहीं होते कि वह आगे जाएगा या नहीं। उसने खुद को साबित कर दिया है।

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ऐसे में इंद्र को युधिष्ठिर को स्वर्ग लोक लेकर जाना ही पड़ा। इसके बाद स्वर्ग पहुंच कर युधिष्ठिर ने वहां दुर्योधन, शकुनि और दुशासन (दु:शासन) को देखा। युधिष्ठिर बहुत क्रोधित हुए और उन्होंने इंद्र से पूछा कि ये लोग यहां क्या कर रहे हैं। नारद मुनि ने समझाया कि युद्ध भूमि में वीरता से लड़कर मरने वाला हर व्यक्ति यहां मौजूद है। फिर युधिष्ठिर ने अपने भाई और पत्नी के बारे में पूछा तब उन्हें पता चला कि वह तो नर्क में है। युधिष्ठिर ने नर्क जाने का फैसला किया।

yudhishthir and swarg yatra

नर्क की आग में युधिष्ठिर ने बहुत सारी चीजें देखीं और यातनाएं पाते हुए अपने भाई और पत्नी को देखा। तब उन्होंने पूछा कि यह अधर्म क्यों? मुझे भी यहीं अपने परिवार के साथ रहना है और नहीं जाना स्वर्ग। तब इंद्र और अन्य देवता प्रकट हुए और उन्होंने कहा कि आपने अपने मन से सब कुछ त्याग दिया और खुद को इतना कठोर कर लिया कि अपने परिवार के मरने पर भी मुड़कर नहीं देखा, लेकिन स्वर्ग आते ही अपने अंदर के क्रोध को नहीं मिटा पाए। यहां आप क्रोध वश कौरवों को स्वर्ग में नहीं देख पाए। यही आपका पाप है।

तब युधिष्ठिर ने वहां बैठ अपने कर्मों के बारे में सोचा और अपने मन से नफरत को हटाया। तभी वह स्वर्ग जा पाए।

असल में कौरव सिर्फ कुछ ही क्षण के लिए स्वर्ग में थे और पांडव कुछ ही क्षण के लिए नर्क में। इंद्र का छलावा युधिष्ठिर को ज्ञान के बारे में बताने के लिए था।

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