वास्तव में हम बचपन से एक ही पट्टी पढ़ते चले आ रहे हैं कि मां को हमेशा सुपरमॉम ही होना चाहिए। अरे अब क्या बताएं उस त्याग की मूर्ति को अपने लिए न तो कुछ करने का अधिकार है और न ही उससे किसी गलती की उम्मीद की जा सकती है।
सच बताऊं तो हम सभी के मन में कुछ ऐसी ही छवि बनी हुई है एक मां की। हमारी इस धारणा के लिए कभी घर के ही लोग, तो कभी टीवी, सिनेमा और न्यूजपेपर जिम्मेदार रहे हैं। समाज की इसी रूढ़िवादी सोच पर कुछ सवाल उठाने और मां की तस्वीर को एक नया रूप देने के लिए हरजिंदगी एक ऐसा कैम्पेन 'Maa Beyond Stereotypes', लेकर आया है।
इसमें हम बात करेंगे समाज की मां के लिए रूढ़िवादी सोच की, मां को लेकर एक स्टीरियोटाइप नजरिये की और कुछ ऐसी माओं की जिन्होंने समाज की सोच को बदलने के लिए खुद को दूसरों से अलग साबित किया।
आइए यहां हम आपको कुछ ऐसी ही माओं की कहानी उन्हीं की जुबानी बताएं जिन्होंने समाज के लोगों के कचोटने वाले तानों को तवज्जो न देकर अपने सपनों को उड़ान दी और बच्चों का पालन-पोषण भी बखूबी किया।
अपने ही दम पर बच्चे के साथ करियर को किया बैलेंस
कई बार आप सभी को कोई ऐसी बात सुनने को मिल जाती होगी जो आपके दिल को कचोट जाती है। कुछ ऐसी ही है नीलम माथुर की कहानी। नीलम बताती हैं कि जब मैं मां बनने वाली थी उसी समय से मेरे मन में अपने नन्हे-मुन्ने को देखने और उसे प्यार से गले लगाने की इच्छा जागृत होने लगी थी। परिवार में सभी लोग वैसे तो सपोर्टिव थे, लेकिन कहीं न कहीं ये सोच थी कि बेटा हो तो वंश आगे बढ़ेगा। मैं तो मां ही थी और मेरे लिए बेटा और बेटी एक समान थे।
आखिर वो दिन आ ही गया और मैंने एक प्यारी सी बेटी को जन्म दिया। हम खुश थे, लेकिन घर के बड़े-बुजुर्ग थोड़े नाराज थे। मैं शुरुआत से ही कान्वेंट स्कूल की टीचर थी और बेटी के जन्म के समय मुझे सिर्फ 6 महीने की मैटरनिटी लीव मिली थी।
चूंकि मैंने बेटी को जन्म दिया था, इसलिए कोई मेरा साथ नहीं देना चाहता था। मुझे परिवार से कई बार ये सुनने को भी मिला कि एक टीचर ही तो हो, क्या करोगी नौकरी करके। उस समय मैंने बेटी के साथ अपने करियर पर फोकस करने की ठानी और बेटी को क्रच में रखकर अपनी जॉब पर फोकस किया। बच्ची का सारा काम सुबह जल्दी ही कर देती थी और उसका टिफिन बनाकर उसे क्रच छोड़ती थी। जीवन में भागदौड़ जरूर थी, लेकिन मैं उससे अपना एक मुकाम बनाने में सफल हुई।
ऑफिस के लंच टाइम में घर आकर बच्ची को फीड कराती थी
सॉफ्टवेयर इंजीनियर दीप्ति सारस्वत की कहानी भी कुछ अलग है। चार महीने की बच्ची को घर में केयर टेकर के भरोसे छोड़ना थोड़ा कठिन था, लेकिन दीप्ति में उसके लिए ऑफिस के पास में ही किराए का घर लिया।
घर और पड़ोसियों से कई बार सुनने को मिला कि नौकरी से भला इतना भी क्या प्यार करना कि दूध पीती बच्ची को अकेले केयर टेकर के भरोसे छोड़ दिया। दीप्ति बताती हैं कि उस समय मैंने किसी की एक न सुनी और अपने करियर को आगे बढ़ाने के बारे में सोचा।
मैं जब भी ऑफिस से थोड़ा सा फ्री होती थी घर आ जाती थी और अपनी बच्ची को दूध पिलाकर वापस ऑफिस चली जाती थी। हालांकि, मुझे मेरे पति और ऑफिस के लोगों का पूरा सपोर्ट मिला और मैंने करियर और बच्चे दोनों की जिम्मेदारी को बखूबी निभाया।
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बच्चे की परवरिश के लिए की नाइट शिफ्ट
एक ऐसी ही मां हैं शिप्रा शर्मा। वो बताती हैं जिस दिन मेरे बेटे का जन्म हुआ घर में सभी बहुत खुश थे, लेकिन एक कहावत है न कि 'मां आखिर मां' ही होती है। घर के सभी लोग बच्चे के साथ खेलते थे और अपना मनोरंजन करते थे, लेकिन जब मैंने जॉब रीज्वाइन करने की बात की तो मेरी सासु मां ने एक बात बोली कि जिसका बच्चा है वही संभाले, नौकरी का क्या है वो तो बाद में भी मिल जाएगी।
मैटरनिटी लीव से पहले मैं एक सॉफ्टवेयर कंपनी में एजीएम के प्रोफाइल पर थी और करियर में ब्रेक लेना मुझे गंवारा न था। आखिर कौन कहता है कि बच्चे होने पर आपको अपना सब कुछ उसकी देखभाल के लिए न्योछावर कर देना चाहिए।
एक मां के भी तो कुछ सपने हो सकते हैं। यही सोचकर अपने सपनों को पूरा करने के लिए मैंने ऑफिस की नाइट शिफ्ट ली। मैं पूरे दिन अपने बच्चे की देखभाल करती थी और रात में उसके सोने के बाद ऑफिस जाती थी। मेरे लिए एक अच्छी बात ये साबित हुई कि ऑफिस हाइब्रिड मॉडल पे था और हफ्ते में 3 दिन ऑफिस जाना पड़ता था।
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पति की मौत के बाद बच्चे के पालन के लिए शुरू किया बिजनेस
कहा जाता है कि बच्चे का पालन-पोषण करना माता-पिता दोनों की जिम्मेदारी होती है। बिजनेस वुमन श्वेता की जिंदगी में बेटी के जन्म के बाद सब ठीक चल रहा था। हालांकि उन्हें उनके ससुराल के लोगों का साथ नहीं मिला क्योंकि बेटी ने जन्म लिया था, लेकिन पति का पूरा सपोर्ट था और वो एक बड़े बिजनेस मैन थे।
उनके दिल्ली एन सी आर में कई रेस्टोरेंट और कोचिंग इंस्टिट्यूट थे, लेकिन समय हमेशा एक जैसा नहीं रहता है और एक दिन अचानक ही श्वेता के पति की कोरोना की वजह से मृत्यु हो गई। श्वेता के लिए समय खराब था और उनको ससुराल से ताने मिलने लगे कि वो और उनकी बेटी ही सभी मुसीबतों की जड़ हैं। उस समय श्वेता ने अपनी बेटी के लिए पति के बिजनेस को आगे बढ़ाने की ठानी और सबको मुंह तोड़ जवाब दिया। आज श्वेता बखूबी अपना बिजनेस संभाल रही हैं और बेटी को मां और पिता दोनों का प्यार दे रही हैं।
मां की छवि आपके दिमाग में चाहे जो भी हो, लेकिन उसके भी कुछ सपने हो सकते हैं। मां अगर अपने सपनों को पंख दे तो क्या वो सुपरमॉम नहीं है? क्या एक मां को अपनी पसंद का खाने और पहनने की छूट नहीं है? क्या अगर एक मां बच्चे को जन्म देने के बाद भी करियर पर फोकस करती है तो वो एक अच्छी मां नहीं है? मेरी तरह ही कई माओं को शायद कभी बस स्टॉप पर, तो कभी बच्चे के स्कूल की पी टी एम में ऐसा कुछ सुनने को मिला होगा कि ऐसी नौकरी का क्या फायदा कि बच्चे को पूरा टाइम ही नहीं दे पा रही हो। समाज की इस रूढ़िवादी सोच को बदलने की जरूरत है जिससे मां की छवि सिर्फ एक मां तक ही सीमित न हो जाए बल्कि मां एक टीचर, मैनेजर, अफसर, बिजनेस वुमन और परफेक्ट वर्किंग वूमेन की पहचान के साथ भी आगे बढ़े।
अगर आपके पास भी कोई ऐसी स्टोरी है जो मां की स्टीरियोटाइप छवि से परे हो तो हमें कमेंट बॉक्स में लिखकर जरूर भेजें। आपको यह स्टोरी अच्छी लगी हो तो इसे फेसबुक पर शेयर और लाइक जरूर करें। इसी तरह और भी आर्टिकल पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से।
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Images: Freepik.com, unsplash.com
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