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हिंदू धर्म में कन्यादान के बिना क्यों मानी जाती है शादी अधूरी?

हिंदू धर्म की शादियों में तमाम रस्मे और रिवाज निभाने के बाद ही विवाह को पूर्ण माना जाता है।
Her Zindagi Editorial
Updated:- 2019-01-09, 18:10 IST

हिंदू धर्म की शादियों में तमाम रस्मे और रिवाज निभाने के बाद ही विवाह को पूर्ण माना जाता है। ऐसा माना जाता है कि शादी से जुड़ी तमाम रस्मों को पूरा करने के बाद ही एक लड़का और लड़की, पति-पत्नी बनते हैं। इन्हीं तमाम रस्मों में सबसे महत्वपूर्ण रस्म होती है ‘कन्यादान’। 

कन्यांदान का अर्थ होता है ‘कन्यार का दान’ अर्थात माता-पिता अपनी पुत्री का हाथ वर के हाथ में सौंपता है। इसके बाद से कन्या  की सारी जिम्मे्दारियां वर को निभानी होती हैं। वर कन्या के पिता को उसे जिंदगी भर खुश रखने का वचन देता है। 

साथ ही ऐसा भी माना जाता है कि जब कन्यार के माता-पिता शास्त्रों  में बताए गए विधि-विधान के अनुसार कन्याीदान की रस्मा निभाते हैं तो कन्याि के माता-पिता और परिवार को भी सौभाग्यं की प्राप्ति होती है। हिंदू शास्त्रों में कन्यादान को सबसे बड़ा दान माना गया है। तो चलिए इस सबसे बड़े दान के महत्व के बारे में जानते हैं। 

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कन्यादान का महत्व

हिंदू शास्त्रों के अनुसार विवाह के दौरान वर को भगवान विष्णुत का स्वारूप माना जाता है। विष्णु  रूपी वर कन्याू के पिता की हर बात मानकर उन्हेंन यह आश्वा सन देता है कि वह उनकी पुत्री को खुश रखेगा और उस पर कभी आंच नहीं आने देगा। 

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हिंदू शास्त्रों में कन्यांदान को सबसे बड़ा दान माना गया है इसलिए ऐसा कहा जाता है कि जिन माता-पिता को कन्या दान का सौभाग्या प्राप्तस होता है उनके लिए इससे बड़ा पुण्य  कुछ नहीं है। यह दान उनके लिए मोक्ष की प्राप्ति का रास्ताा भी खोल देता है। 

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कन्यादान कहां से हुआ शुरू 

पौराणिक कथाओं के अनुसार दक्ष प्रजापति ने अपनी कन्याओं का विवाह करने के बाद कन्यादान किया था। 27 नक्षत्रों को प्रजापति की पुत्री कहा गया है जिनका विवाह चंद्रमा से हुआ था। 

इन्होंने ही सबसे पहले अपनी कन्याओं को चंद्रमा को सौंपा था ताकि सृष्टि का संचालन आगे बढ़े और संस्कृति का विकास हो। इन्हीं की पुत्री देवी सती भी थीं जिनका विवाह भगवान शिव से हुआ था। 

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ऐसे किया जाता है कन्यादान 

कन्यादान करते समय माता-पिता कन्या के हाथ हल्दी से पीले करके कन्या के हाथ में गुप्तदान धन और फूल रखकर संकल्प बोलते है और उसके हाथों को वर के हाथों में सौंप देते हैं। इसके बाद वर कन्या के हाथों को जिम्मेदारी के साथ अपने हाथों में पकड़ कर स्वीकार करता है कि वो कन्या की जिम्मेदारी लेता है और उसे जिंदगी भर खुश रखने का वचन देता है। माता-पिता कन्या के रूप में अपनी पुत्री पूरी तरह से वर को सौंप देते हैं। 

 

 

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