झांसी नहीं बल्कि यहां शहीद हुई थी रानी लक्ष्‍मी बाई, सिर पर तलवार लगने से थम गईं थी सांसे

झांसी की रानी लक्ष्‍मी बाई से जुड़ी कई कहानियां आपने सुनी होगी। 18 जून को उनकी डेथ एनिवर्सरी है। हम आपको बताएंगे कि उन्‍होंने कहां आखरी सांसे ली थीं। 

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इतिहास के पन्‍नों को पलटा जाए तो आपको एक से बढ़ कर एक वीर योद्धाओं की वीरता के किस्‍से पढ़ने और सुनने को मिलेंगे। मगर, इन वीरों में एक नाम फौलादी इरादों और बुलंद हौसलों वाली महिला एवं झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई का भी मिलता है। झांसी की रानी लक्ष्‍मीबाई से जुड़ी कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की लिखी यह कविता भी मशहूर है, ‘सिंहासन हिल उठे राजवंशों ने भृकुटी तानी थी, बूढ़े भारत में आई फिर से नयी जवानी थी, गुमी हुई आज़ादी की कीमत सबने पहचानी थी, दूर फिरंगी को करने की सबने मन में ठानी थी। चमक उठी सन सत्तावन में, वह तलवार पुरानी थी, बुंदेले हरबोलों के मुँह से हमने सुनी कहानी थी, खूब लड़ी मर्दानी वह तो झाँसी वाली रानी थी।’ कविता की इन पंक्तियों से यह अंदाजा लगया जा सकता है कि रानी लक्ष्‍मीबाई का इतिहास कितना गौरवशाली है। मगर, क्‍या आप जानते हैं कि रानी लक्ष्‍मीबाई कैसे और कहां शहीद हुई थीं? अगर, नहीं जानते तो चलिए हम आपको बताते हैं।

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rani laxmi bai death day

वर्ष 1858 जून 18 को अपनी मात्रभूमि को रक्षा करते हुए रानी लक्ष्‍मीबाई शहीद हो गईं थीं। उन्‍होंने ने आखरी सांस झांसी में नहीं बल्कि झांसी से कुछ दूर स्थित ग्‍वालियर में ली थी। अदम्‍य साहस की मूरत लक्ष्‍मीबाई ने अंग्रेजों के आगे न तो घुटने टेके थे और न ही शहीद होने के बाद अपने शव को उनके हाथ लगने दिया था। अपने देश को आजाद कराने के लिए रानी लक्ष्‍मीबाई ने जो बलिदान दिया था, देश उसे आज भी याद करता है।

19 नवंबर 1828 को वाराणसी के एक मराठी ब्राह्मण परिवार में जन्‍मीं रानी लक्ष्‍मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था। जब वह 4 वर्ष की थीं तब ही उनकी मां का देहांत हो गया था। वह अपने पिता मोरोपंत के साथ बिठूर आ गईे। कानपुर शहर के समीप बिठूर में आज भी मराठाओं के शासनकाल की निशानियां मिल जाती हैं। मणिकर्णिका के पिता मोरोपंत पेशवाओं के लिए काम करते थे। इसलिए मणिकर्णिका की परवरिश भी पेशवाओं के बीच हुई। बचपन से ही मणिकर्णिका बहुत सहासी और तेज दिमाग की थीं। उनकी इसी काबलियत के चलते झांसी के राजा गंगाधर राव ने उनसे विवाह कर लिया। विवाह के बाद उन्‍होंने मणिकर्णिका का नाम बदलकर लक्ष्‍मीबाई रख दिया। लक्ष्‍मीबाई की उम्र राजा गंगाधर राव से काफी कम थी। शादी के बाद राजा की तबियत काफी खराब रहने लगी थी। राजपाट का सारा काम राजा ने रानी लक्ष्‍मीबाई के हाथों में सौंप दिया था।

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death anniversary of rani lakshmi bai

राजा के निधन से पहले ही अंग्रेजों ने भारत में पैर पसारने शुरू कर दिए थे। जब गंगाधर का निधन हुआ तो अंग्रोजों ने झांसी पर भी कब्‍जा जमाने का फैसला लिया। मगर, यह बात रानी लक्ष्‍मीबाई को मंजूर नहीं थी। रानी लक्ष्‍मीबाई के गोद लिए हुए पुत्र दामोदर को राजा के निधन के बाद गद्दी पर बैठाने की बात हुई तो अंग्रेजों ने उसे राजा मानने से इंकार कर दिया और रानी को महल खाली करके सालाना पेंशन लेने का प्रस्‍ताव भेजा। रानी लक्ष्‍मीबाई अंग्रेजों की नीयत समझ चुकी थीं। उन्‍होंने नारा लगाया, ‘मेरी झांसी को कोई नहीं छीन सकता’। इसके बाद उन्‍होंने अपनी फौज तैयार की और निकल पड़ीं अंग्रेजों का सामने करने।

रानी की छोटी सी सेना को अंग्रेजों के बड़ी सी सेना ने मैदान-ए-जंग में हरा दिया। रानी को रातों रात अपने पुत्र दामोदर के साथ जंग का मैदान छोड़ भागना पड़ा। वह ग्‍वालियर पहुंची ही थीं कि वहां पर अंग्रेजों की सेना ने उन पर पीछे से वार किया। पहले तलवार से उनके सिर पर वार किया। इससे उनकी एक आंख और आधा सिर लटक गया। मगर, रानी अपनी आखरी सांस तक भागती रहीं और एक मंदिर में पहुंची। यहां पर उन्‍होंने अपने साथियों से कहा, ‘मेरे शव को अंग्रेजों के हाथों मत लगने देना।’ इतना कह कर रानी ने प्राण त्‍याग दिए। रानी के कहे अनुसार उनके साथियों ने तुरंत ही कुछ लकडि़यों को उनके शव पर रख कर उनका अंतिम संस्‍कार कर दिया। जब अंग्रेजी फौज मंदिर तक पहुंची तो वहां उन्‍हें लक्ष्‍मीबाई का लगभग पूरे जल चुके शव की राख मिली थी।

रानी लक्ष्‍मीबाई ने जहां प्राण त्‍यागे थे वहां उनकी समाधी बनाई गई है। अंग्रेजों ने जंग के मैदान से रानी लक्ष्‍मीबाई के पुत्र दामोदर को सुरक्षित स्‍थान पर पहुंचाया और जीवन भर के जिए उन्‍हें पेंशन दी। 58 वर्ष उम्र में दामोदर ने अपने प्राण त्‍याग दिए। अब उनके वंशज इंदौर में रहते हैं। अपने आप को वह ‘झांसीवाले’ बताते हैं।

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