International Men’s Day वैसे तो कई कारणों से खास है और बेशक इसे पूरी अहमियत मिलनी चाहिए। लेकिन, यह असल में हमें यह बात याद दिलाने के लिए भी जरूरी है कि पारंपरिक तौर पर मर्दानगी के जो नेगेटिव और नुकसान पहुंचाने वाले मतलब हमें समझाए और बताए गए हैं, असल में समाज में सही बदलाव लाने के लिए उन्हें बदलना और सही तरीरे से समझना बहुत जरूरी है। भारत में, जहां पारंपरिक रूप से जेंडर रोल में पुरुषों को अधिक महत्व दिया गया है, वहां पुरुषत्व या मर्दानगी को सही तरह से समझना और इसके मायने को बदलना, विकास के लिए बहुत जरूरी है। हर जिंदगी बदलेगी, जब मर्द बदलेगा, यह वाक्य असल में समाज के प्रति, परिवार के प्रति और खासतौर पर महिलाओं के प्रति, पुरुषों की सही भागीदारी पर जोर देता है। जब मर्द, मर्दानगी के पुराने और टॉक्सिक आदर्शों से खुद को दूर रखते हैं और करुणा, समानता और सम्मान जैसी वैल्यूज को अपनाते हैं, जो वे महिलाओ, परिवार, समाज और देश में बदलाव लाने में अहम भूमिका निभाते हैं।
मर्दानगी के सही मायने समझना है जरूरी
पीढ़ियों से, भारत में पुरुषत्व को डॉमिनेंस, कोमलता से दूर रहने और बेरूखी से जोड़ा गया है। इन स्टीरियोटाइप्स ने न केवल, पुरुषों को अपनी भावनाओं को व्यक्त करने से रोका है बल्कि लैंगिक असमानता को भी बढ़ावा दिया है, जो सामाजिक प्रगति को कमजोर करती है।
इस तरह की बातें, घर पर, वर्कप्लेस पर और समाज में होने वाली हर बातचीत में नजर आती हैं और इनसे एक ऐसा माहौल बनता है, जहां भावनात्मक खुलेपन को दबा दिया जाता है और आपसी सम्मान की अहमियत को नजरअंदाज कर दिया जाता है।
मर्दों की मेंटल हेल्थ पर होता है इस बात का असर
मर्दों पर हमेशा अपनी भावनाओं को दबाने का और मजबूत दिखने का प्रेशर होता है। इस इमोशनल प्रेशर की वजह से मर्दों की मेंटल हेल्थ पर भी असर होता है। इसकी वजह से इमोशल इश्यूज होने लगते हैं और सुसाइड रेट भी बढ़ते हैं। नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो की साल 2022 की रिपोर्ट्स के अनुसार, भारत में होने वाली आत्महत्याओं में 72 प्रतिशत सुसाइड पुरुषों ने किया था।
असली चुनौती यह है कि कैसे ये पारंपरिक आदर्श कई प्रकार की सामाजिक असमानताओं को कायम रखते हैं। उदाहरण के तौर पप, भारत में अंतर्राष्ट्रीय पुरुष और लिंग समानता सर्वेक्षण (IMAGES) द्वारा मर्दानगी और स्वास्थ्य अध्ययन से पता चला है कि जो पुरुष, पारंपरिक मर्दानी की स्टीरियोटाइप से जुड़े हैं, वे जेंडर इक्वैलिटी को सपोर्ट करने या घर की जिम्मेदारियों को बांटने से पीछे हटते हैं। यह पितृसत्तात्मक चक्र, उन जेंड नॉर्म्स को मजबूती देता है, जो सभी के फ्रीडम को रोकता है।
उदाहरण के लिए, जब पुरुष परिवार नियोजन की ज़िम्मेदारियां साझा नहीं करते हैं, तो इसका बोझ पूरी तरह से महिलाओं पर पड़ता है। एनएफएचएस-5 डेटा इस बात पर प्रकाश डालता है कि एक तिहाई पुरुष अभी भी कॉन्ट्रासेप्शन को महिलाओं का मुद्दा मानते हैं।
मर्दों को दी जाती है डिसीजन मेकिंग की पॉवर
घर-परिवार के कामों में जिम्मेदारी शेयर न करने के बावजूद भी, पुरुषों को घरों में डिसीजन मेकिंग की पूरी पॉवर होती है। ये अंसतुलन न केवल महिलाओं के रिप्रोडक्टिव राइट्स पर असर डालता है बल्कि महिलाओं की पुरुषों पर सामाजिक और आर्थिक निर्भरता को भी बढ़ाता है। ऐसा मान लिया जाता है कि पुरुषों के पास डिसीजन लेने का अधिकार है, वहीं, महिलाओं को पूरी तरह से उसे मानना होगा।
महिलाओं के विकास में बाधा केवल फिजिकल तौर पर ही नहीं होती बल्कि ये हमारी सोशल वैल्यू, नॉर्म्स और उम्मीदों में छिपी है। चाहे इस स्टीरियोटाइप की बात करें कि महिलाओं को लीडरशिप रोल नहीं करने चाहिए या फिर इस सोच की कि महिलाओं के लिए सबसे पहली जिम्मेदारी उनका घर है, ये कुछ ऐसी बातें हैं, जो पीढ़ियों से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में जा रही हैं।
दुनिया के ज्यादातर हिस्सों में, महिलाएं और लड़कियां एक ऐसे सोशल सिस्टम में जन्म ले रही हैं, जो असमानता और भेदभाव में डूबा हुआ है। इसलिए, जेंडर इक्वैलिटी में पुरुषों की भागीदारी बहुत जरूरी है। पुरुषों को इस बदलाव को लाने में एक एक्टिव रोल निभाना होगा। हालांकि, सच्ची भागीदारी साधारण भागीदारी से परे होती है। इसके लिए हमने जो सीखा हुआ है, उसे भुलाने और सही भागीदारी की नई परिभाषा के मायने समझना जरूरी है।
सही बदलाव हैं जरूरी
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया का बनाया आर्टिफिशियल इंटेलिजेंस चैटबोट्स जैसे SnehAI युवओं और किशोरों को एक सेफ और नॉन-जजमेंटल स्पेस देता है, जिसमें वे सेक्शुअल हेल्थ और रिप्रोडक्टिव हेल्थ, रिलेशनशिप, कंसेट और मेंटल हेल्थ जैसे विषयों को समझ सके।
हालांकि, ये बदलाव उम्र के हिसाब से नहीं होते हैं। ये सभी के लिए हमेशा चलने वाला एक सफर है। टॉक्सिक मर्दानगी से फ्री होने के लिए न केवल खुद पर बल्कि आस-पास के लोगों पर इसके प्रभाव को समझने की जरूरत है।
पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की पहल मैं कुछ भी कर सकती हूं(MKBKSH) जैसे इनिटिएटिव दिखाते हैं कि कैसे मीडिया, पुरुषों को सोशल और पुराने विश्वासों को सवाल करने की हिम्मत देते हैं।
MKBKSH देखने के बाद, छतरपुर, मध्य प्रदेश में पुरुषों के group of men in Chhatarpur, Madhya Pradesh, नाम के एक ग्रुप ने लैंगिक समानता के लिए सक्रिय रूप से वकालत की, पुरुषों को नसबंदी अपनाने और दूसरे बच्चे के जन्म में देरी करने जैसी प्रथाओं के लिए प्रोत्साहित करने के लिए गीत गाए।
यह संदेश पूरी तरह से साफ है- हर जिंदगी बदलेगी, जब मर्द बदलेगा। यह बदलाव परिवार के अंदर शुरू होता है, फिर कम्यूनिटी तक और फिर धीरे-धीरे पूरे देश में फैलता है जहां महिला और पुरुष एक समान भागीदारी रखते हैं। इसमें पहली बात यह समझना है कि महिलाओं के मुद्दे, महिलाओं के नहीं है, ये मर्दों के भी हैं और सोसाइटी के भी हैं।
नोट- यह लेख,पूनम मुत्तरेजा, द्वारा लिखा गया है। वह पॉपुलेशन फाउंडेशन ऑफ इंडिया की एग्जीक्यूटिव डायरेक्टर हैं।
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