जगन्नाथ रथ यात्रा का हिंदू धर्म में विशेष महत्व है। इस रथ यात्रा का आयोजन प्रतिवर्ष उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर से होता है। यह रथ यात्रा हिंदू पंचांग के अनुसार हर साल आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को निकाली जाती है। ऐसा माना जाता है कि आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि के दिन भगवान श्री कृष्ण यानी कि भगवान जगन्नाथ अपने भाई बलभद्र और बहन देवी सुभद्रा के साथ 9 दिनों की यात्रा पर निकलते हैं। इस साल भी यह यात्रा 12 जुलाई, सोमवार से शुरू होकर आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी तिथि, यानी देवशयनी एकादशी 20 जुलाई, मंगलवार के दिन समाप्त होगी।
हर साल इस यात्रा में भक्तों का तांता लग जाता है, लेकिन इस बार कोरोना वायरस की वजह से भक्तों को इस यात्रा में शामिल होने का अवसर नहीं मिल पाएगा और मंदिर के कुछ सीमित पुजारियों के द्वारा इस रस्म को पूरा किया जाएगा। ऐसी मान्यता है कि भगवान जगन्नाथ जी का विशाल रथ 9 दिनों के लिए बाहर यात्रा पर निकलता है। इस यात्रा में सबसे आगे बलभद्र का रथ चलता है जिसे तालध्वज कहा जाता है। मध्य में सुभद्रा जी का रथ चलता है जिसे दर्पदलन या पद्म रथ कहा जाता है। सबसे अंत में भगवान जगन्नाथ का रथ चलता है जिसे नंदी घोष कहा जाता है। जगन्नाथ पुरी रथ यात्रा से जुड़ी कई बातों का पता लगाने और कई भ्रांतियों को दूर करने के लिए हमने वहां के मुख्य पंडित श्री माधव चंद्र महापात्रा जी से बात की, उन्होंने हमें जो बातें बताईं वो आप भी जानें।
मौसी के घर जाते हैं भगवान जगन्नाथ
मान्यतानुसार इस यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ मुख्य मंदिर से निकलकर अपनी मौसी के घर जाते हैं। पुरी स्थित गुंडिचा मंदिर को उनकी मौसी का घर माना जाता है। कहा जाता है कि इसी मंदिर में 9 दिन तक भगवान अपने भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा जी के साथ निवास करते हैं। पंडित श्री माधव चंद्र महापात्रा जी ने हमें बताया कि वास्तव में गुंडिचा मंदिर में ही भगवान जगन्नाथ जी का अवतरण हुआ था और ये उनका जन्म स्थल माना जाता है। रथ यात्रा के दौरान भगवान जगन्नाथ, भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा की मूर्तियों को तीन अलग-अलग दिव्य रथों पर रखकर नगर भ्रमण कराया जाता है। इस दौरान जगन्नाथ मंदिर में भगवान का स्थान खाली हो जाता है। केवल रुकमणी जी, जो माता लक्ष्मी का अवतार हैं वही मुख्य जगन्नाथ मंदिर में विराजमान रहती हैं। इन 9 दिनों में संपूर्ण पूजा पाठ गुंडिचा मंदिर में ही संपन्न होता है तथा भगवान वहीं निवास करते हैं।
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कैसी होती है रथ की संरचना
जगन्नाथ रथ यात्रा का रथ एक विचित्र संरचना का होता है। इन तीनों रथों में किसी तरह की धातु का इस्तेमाल नहीं किया जाता है। इनका निर्माण तीन प्रकार की पवित्र लकड़ियों से किया जाता है। रथ का निर्माण कार्य अक्षय तृतीया से शुरू किया जाता है। भगवान जगन्नाथ का रथ 16 पहियों का होता है। रथयात्रा में सबसे आगे ताल ध्वज पर श्री बलराम, उसके पीछे पद्म ध्वज रथ पर माता सुभद्रा व सुदर्शन चक्र और अन्त में गरुड़ ध्वज पर या नंदीघोष नाम के रथ पर श्री जगन्नाथ जी सबसे पीछे चलते हैं। तालध्वज रथ 65 फीट लंबा, 64 फीट चौड़ा और 45 फीट ऊंचा होता है। इसमें 7 फीट व्यास के 17 पहिये लगे होते हैं। बलभद्र जी का रथ तालध्वज और सुभद्रा जी के रथ जगन्नाथ जी के रथ से छोटे होते हैं। संध्याकाळ तक ये तीनों ही रथ गुंडिचा मंदिर में जा पहुंचते हैं। जगन्नाथ भगवान रथ से उतर कर मंदिर में प्रवेश करते हैं और 9 दिन वहीं रहते हैं। गुंडिचा मंदिरमें इन नौ दिनों में श्री जगन्नाथ जी के दर्शन को आड़प-दर्शन कहा जाता है और ऐसा माना जाता है कि रथ के दर्शन से भक्तों के सभी कष्ट दूर हो जाते हैं।
लगता है 7 समय भोग
श्री जगन्नाथ जी के प्रसाद को महाप्रसाद माना जाता है जबकि अन्य तीर्थों के प्रसाद को सामान्यतः प्रसाद ही कहा जाता है। जिस दौरान भगवान यात्रा पर निकलते हैं उस समय भी जगन्नाथ मंदिर और गुंडिचा मंदिर में विधि विधान से दिन में 7 बार भोग लगाया जाता है।
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रूठी हुई माता लक्ष्मी को मनाते हैं जगन्नाथ
पंडित श्री माधव चंद्र महापात्रा जी ने बताया कि जिस दौरान भगवान जगन्नाथ मुख्य मंदिर में माता लक्ष्मी को अकेला छोड़कर अपने भाई और बहन के साथ गुंडिचा मंदिर जाते हैं उसी दौरान माता लक्ष्मी रुष्ट हो जाती हैं। कहा जाता है कि रथ यात्रा के नौवें दिन माता लक्ष्मी गुंडिचा मंदिर पहुंचती हैं और क्रोधित होकर जगन्नाथ भगवान् के रथ के मुख्य सारथी का हाथ तोड़ देती हैं। रथ का सारथी कोई जीवित व्यक्ति न होकर मिट्टी का पुतला होता है। माता लक्ष्मी को क्रोधित देखकर भगवान जगन्नाथ उन्हें मनाते हैं और देवशयनी एकादशी के दिन वापस मुख्य जगन्नाथ मंदिरपहुंच जाते हैं।
इस प्रकार हर साल होने वाली जगन्नाथ रथ यात्रा बेहद रोचक मानी जाती है और इसके दर्शन से भक्तों की सभी मनोकामनाएं पूर्ण हो जाती हैं।
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