एक दौर था जब एकता कपूर के टीवी सीरियल्स ने पूरी एंटरटेनमेंट इंडस्ट्री पर अपना कब्जा जमा लिया था। छोटे पर्दे की क्वीन कही जाने वाली एकता कपूर ने हमेशा से ही अपने टीवी सीरियल्स की प्लानिंग पर बहुत ध्यान दिया और ऐसे सीरियल्स की झड़ी लगा दी जहां महिलाएं झंडा उठाकर आगे बढ़ती हैं और पूरे परिवार की जिम्मेदारी उनके कंधों पर होती है। ये एक तरह से सही भी है क्योंकि भारतीय समाज में आज भी महिलाओं पर ही बहुत सारी जिम्मेदारियां होती हैं और उनसे ये उम्मीद की जाती है कि वो अपने काम के साथ-साथ पूरे परिवार का ध्यान रखने का काम बखूबी करेंगी।
यकीनन महिलाओं को सुपरवुमन के तौर पर इन टीवी सीरियल्स में दिखाया जाता है जो अपने काम को कुछ ऐसे करती हैं कि उनकी हर जगह तारीफ होती है। ये सुबह से लेकर रात ढलने तक सिर्फ अपने परिवार और अपनी जिम्मेदारियों के बारे में सोचती है। ये सुपरवुमन त्याग करना जानती है और इतना त्याग करती है कि वो भले ही खुद रो ले, उसे भले ही चोट लगी हो, भले ही उसका दिल कितना भी दुखा हो, लेकिन वो इस बारे में अपने परिवार से कुछ नहीं कहती और हर सीरियल में कहीं न कहीं सालों से संजोए परिवार को छोड़कर जाने को भी तैयार हो जाती है।
कहीं न कहीं सबसे बड़ी समस्या भी यही है कि हम लोग अपने घरों में महिलाओं को सुपरवुमन का तमगा दे देते हैं और फिर उनसे यही उम्मीद की जाती है कि वो जिंदगी भर सिर्फ अपनी जिम्मेदारियों को जिएं।
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टीवी सीरियल्स में त्याग को इतना महत्व आखिर क्यों?
भारतीय समाज में अब त्याग को ग्लोरिफाई किया जा रहा है। जी हां, उसका इस तरह से महिमामंडन किया जाता है कि इस समय सबसे लोकप्रिय टीवी सीरियल 'अनुपमा' में भी फीमेल लीड को हमेशा त्याग और महानता के तराजू में तौला जाता है। उसके पति ने बेवफाई की फिर भी ये उसकी जिम्मेदारी है कि वो अपने ससुराल में रहकर घर वालों को संभाले। पति की दूसरी पत्नी को भी अपने घर में रखे।
चलिए 'अनुपमा' सीरियल की ही बात कर लेते हैं। इसमें पति की बेवफाई के बाद महिला को हिम्मत करते हुए और तलाक का फैसला लेते हुए दिखाया गया है। तलाक लेने का स्टेप बहुत अच्छा दिखाया गया है, लेकिन तलाक के बाद भी अनुपमा का किरदार निभाने वाली रुपाली गांगुली की ही पूरी जिम्मेदारी है कि वो सारा काम करें, सारे घर के कपड़े, बर्तन, खाना, झाड़ू-पोंछा, अचार-पापड़ बनाए, डांस क्लास चलाए, पति के डूबते करियर को उठाने के लिए कुछ करे, बच्चों की जिम्मेदारी संभाले, बूढ़े सास-ससुर को दवा दे और फिर भी अपने बारे में न सोचे।
कैंसर के ऑपरेशन के बाद भी अनुपमा इतनी ही मेहनत करते हुए दिखाई गई है क्योंकि वो महान है और ये प्यार और परिवार के लिए त्याग है। यही नहीं जब अनुपमा की मां बीमार हो जाती है और उसे उनकी सेवा में जाना होता है तो भी सुबह 4.30 बजे उठकर अनुपमा सारा काम करके जाती है। परिवार वाले मदद करने की कोशिश करते हैं, लेकिन कर नहीं पाते।
क्या ये त्याग दिखाना जरूरी है? क्या अनुपमा को इतना महान दिखाना जरूरी है? हर रोज़ हमारे घरों में दादी, मां, चाची, ताई आदि को इसी तरह काम करते हम देखते हैं और उनसे ये उम्मीद करते हैं कि वो साल के 365 दिन ऐसे ही काम करे।
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टॉप टीवी सीरियल्स की सबसे बड़ी समस्याएं-
'अनुपमा, इमली, गुम है किसी के प्यार में, मेहंदी है रचने वाली' आदि सभी मौजूदा समय में सबसे ज्यादा चलने वाले टीवी सीरियल्स हैं, लेकिन उनकी समस्याएं अभी भी 'क्योंकि सास भी कभी बहू थी' के समय वाली ही हैं। जरा एक बार उनकी समानताओं पर गौर करते हैं-
- सभी टीवी सीरियल्स की मेन एक्ट्रेस त्याग की देवी होती है।
- परिवार की खुशियों के लिए वो अपने हक को छोड़कर भी जुल्म सहती है।
- ये एक्ट्रेस हर काम में कुशल एक परफेक्ट गृहणी होती है।
- अपने करियर के साथ-साथ इसे ये ध्यान रखना होता है कि कहीं इसके करियर की वजह से परिवार का संतुलन तो नहीं बिगड़ रहा।
- घर के सारे सदस्य चाहें वो किसी भी उम्र के हों वो इसी पर निर्भर करते हैं।
- इसे नए जमाने की सोच के साथ तो चलना होता है, लेकिन साथ ही साथ हर छोटी से छोटी बात पर इसे सुनाया जाता है और इसका काम होता है चुपचाप अपने साथ होने वाले किसी भी तरह के अन्याय को सहना, क्योंकि वो अन्याय करने वाले इसके परिवार के सदस्य होते हैं।
- टीवी सीरियल की हर एक्ट्रेस को पहले बहुत दुख सहने पड़ते हैं पर उसे धैर्य रखना होता है और अपने प्यार और सद्भाव से दुख सहते हुए वो सभी का दिल जीत लेती है।
अब आप इन टीवी सीरियल्स की दुनिया को छोड़ असल दुनिया में आएं और ये सोचने की कोशिश करें कि क्या एक महिला पर इतनी सारी जिम्मेदारी हम डाल रहे हैं वो सही है? जहां एक ओर समाज की कुरीतियों को तोड़ने के लिए इन सीरियल्स को आगे आना चाहिए वहीं ये एक सुपरवुमन सिंड्रोम को बढ़ावा दे रहे हैं। ये सीरियल्स ये समझाने की कोशिश कर रहे हैं कि जो महिला दुख सहेगी उसी को बाद में चलकर प्यार और परिवार का साथ मिलेगा और ससुराल या मायके में दुख सहना तो आम बात है, ये तो हर किसी के साथ होता है।
बेटी को ये सिखाया जाता है कि ससुराल में खाना बनाना, सबकी बात सुनना, घर के बाकी काम काज करना आगे के समय में काम आएगा, लेकिन क्या कभी ये सिखाया जाता है कि उसे अपने हक के लिए लड़ना भी आना चाहिए और किसी की गलत बात को नहीं सहना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से वो अपनी जिंदगी को खराब कर लेगी।
जहां तक सीख की बात है तो टीवी सीरियल्स ये सीख तो जरूर दे रहे हैं कि प्यार, परिवार, संस्कार, मर्यादा, हमारे घरों की इज्जत बहुत बड़ी चीज़ है, लेकिन साथ ही ये सीख भी दे रहे हैं कि इसके लिए अगर आपको मरना भी पड़े तो भी ये गलत नहीं होगा। आज की डेट में जहां डोमेस्टिक वॉयलेंस इतनी बढ़ गई है और आए दिन महिलाओं के साथ अत्याचार हो रहे हैं वहां ये सुपरवुमन सिंड्रोम कितना हानिकारक साबित हो सकता है ये तो आप समझ ही गए होंगे।
यकीनन हमें आगे बढ़ना चाहिए और ये सोचना चाहिए कि समाज में रहने वाली वो महिला जिसे हम देवी बनाने पर तुले हुए हैं आखिर वो भी एक इंसान है। अगर आपको ये स्टोरी अच्छी लगी तो इसे शेयर जरूर करें। ऐसी ही अन्य स्टोरी पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से।
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