क्यों जैन मुनियों के अंतिम संस्कार पर लगती है बोली? अलग तरह से ले जाते हैं शव

जैन मुनियों के अंतिम संस्कार की यात्रा बहुत ही अलग होती है और कई लोगों को इसके बारे में पता भी नहीं होता है। आज हम उनकी अंतिम यात्रा से जुड़ी बातें आपको बताएंगे। 

Last Rites of jain munis

जैन मुनियों के अंतिम संस्कार को लेकर इंटरनेट पर आपको बहुत सी जानकारी मिल जाएगी। अगर आपको याद है तो जैन मुनि तरुण सागर की अंतिम यात्रा को लेकर सोशल मीडिया पर तरह-तरह के कमेंट्स देखने को मिले थे। लोग ये कह रहे थे कि इस तरह से डेड बॉडी को क्यों ले जा रहे हैं, कई ट्वीट्स में इसे अमानवीय भी कहा गया था। पर जैन मुनियों की अंतिम यात्रा को लेकर बहुत सारी बातें हैं जिन्हें आम लोग नहीं जानते हैं। जैन मुनियों की अंतिम यात्रा जिस तरह से होती है वो हिंदू रीति-रिवाजों की तुलना में बिल्कुल अलग होता है।

इनकी अंतिम विदाई की बोली भी लगाई जाती है और साथ ही साथ इनकी अंतिम यात्रा में शव को बैठाया जाता है एक तख्त पर बांध दिया जाता है। जैन मुनियों की शव यात्रा को कई लोग देख नहीं पाते हैं, लेकिन इसे जैन धर्म में बहुत शुभ माना जाता है। आज हम आपको जैन मुनियों की अंतिम यात्रा के बारे में ही जानकारी देने जा रहे हैं।

आखिर जैन मुनियों की मौत कैसे होती है?

ये सवाल देखकर शायद आप चौंक जाएं, लेकिन ये सवाल काफी जरूरी है। दरअसल, जैन मुनियों की मौत को लेकर भी विवाद होते हैं। जो लोग इसके बारे में नहीं जानते हैं वो समझते नहीं हैं कि आखिर क्यों मौत से पहले जैन मुनि खाना पीना छोड़ देते हैं। इसे संथारा, सल्लेखना या फिर सम्हलना कहा जाता है। ये एक प्रक्रिया होती है जिसमें बहुत ज्यादा तबियत बिगड़ने पर या फिर मौत को करीब जानकर जैन मुनि खाना-पीना ही छोड़ देते हैं। ये एक धार्मिक प्रक्रिया है जिसमें शरीर को कमजोर करके उसे खत्म किया जाता है और इसे अंतिम साधना माना जाता है।

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एक उम्र के बाद जैन मुनि अपने खाने-पीने की आदतों को बदल देते हैं और सिर्फ उतना ही अन्न लिया जाता है जितना बिल्कुल आवश्यक हो। जैन मुनि अपनी खाने-पीने की आदतों को बदलकर अपनी अंतिम साधना की तैयारी करते हैं। अन्न-जल बिल्कुल त्यागने की स्थिति तब आती है जब उन्हें लगता है कि मौत उनके बहुत ही ज्यादा करीब है।

क्या है जैन मुनियों की अंतिम साधना और क्या लिखा है ग्रंथ में?

जैन धर्म के ग्रंथ को तत्वार्थ सूत्र कहा जाता है और इसमें जैन मुनियों की अंतिम यात्रा के बारे में बताया गया है। इसमें सल्लेखना का मतलब भी बताया गया है जो दो शब्दों से जुड़कर बना है सत्+लेखना- यानी एक प्रकार से काया को कमजोर करना।

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संथारा या सल्लेखना लेने वाला व्यक्ति अपनी इच्छा से ही भोजन बंद करता है और इसे लेकर कोई दबाव नहीं बनाया जाता है।

आखिर क्यों लगती है शव यात्रा की बोली?

शव यात्रा के हर पड़ाव की बोली लगती है जैसे मुखाग्नि देना, सिक्के उछालना, कंधा लगाने की बोली, गुलाल उछालने की बोली और लगभग हर रिवाज के लिए बोली लगाई जाती है। जैन मुनियों की अंतिम यात्रा में जिसकी बोली सबसे ज्यादा होती है उसे ही रिवाज पूरा करने दिया जाता है। ऐसा करके जो पैसा इकट्ठा होता है उसे किसी धार्मिक या सामाजिक कार्य में लगाया जाता है। इससे कई मंदिर, आश्रम आदि बनाए जाते हैं। ये बोली करोड़ों में लगती है और सारा पैसा एक साथ इकट्ठा होता है।

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आखिर क्यों तख्त पर बिठाया जाता है शव को?

अब बात करते हैं सबसे ज्यादा चौंकाने वाले रिवाज की। आखिर क्यों जैन मुनियों की शव यात्रा में शव को तख्त और रस्सियों से बांधा जाता है? दरअसल, इसका सीधा सा कारण है कि अंतिम यात्रा को अंतिम साधना माना जाता है और इसलिए शव को बिल्कुल उसी तरह से बिठाया जाता है जिस तरह से वो साधना करते थे। इसे प्रार्थना का तरीका माना जाता है और इसलिए उनके हाथों और पैरों को भी प्रार्थना की मुद्रा में रखा जाता है और साथ ही साथ उनके सिर को भी खड़ा रखा जाता है।

जैन मुनियों के धार्मिक संस्कार के बारे में क्या ये बातें आपको पता थीं? ऐसी ही किसी प्रथा के बारे में अगर आप जानना चाहते हैं तो अपने सवाल हमें आर्टिकल के नीचे दिए कमेंट बॉक्स में बताएं। हम अपनी स्टोरीज के जरिए उन सवालों के जवाब देने की कोशिश करेंगे। अगर आपको ये स्टोरी अच्छी लगी है तो इसे शेयर जरूर करें। ऐसी ही अन्य स्टोरी पढ़ने के लिए जुड़ी रहें हरजिंदगी से।

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