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100, 200, 500 और 2000 रुपए के एक नोट को छापने में खर्च होते हैं इतने रुपए

क्या आप जानते हैं कि एक 10 रुपए के नोट को प्रिंट करने के लिए सरकार और रिजर्व बैंक को कितने रुपए खर्च करने पड़ते हैं? जानिए नोटों की प्रिंटिंग का पूरा प्रोसेस। 
Editorial
Updated:- 2021-07-06, 10:54 IST

एक नोट की कीमत महज उसपर लिखे अक्षरों से तय कर दी जाती है। 200 रुपए के नोट में वैसे तो एक 0 और जोड़कर उसे 2000 रुपए का बनाया जा सकता है, लेकिन ये प्रोसेस इतना आसान नहीं होता। दरअसल, नोटों की छपाई और उसकी तैयारी के लिए रिजर्व बैंक को अलग से एक रिजर्व तैयार करना पड़ता है जिसके बिना नोटों की छपाई का काम नहीं हो सकता है।

अधिकतर लोगों को लगता है कि सरकार जितने चाहे उतने नोट छाप सकती है तो फिर वो गरीबों को नोट क्यों नहीं दे देती? यकीन मानिए ये सवाल मैंने टीनएजर्स से ही नहीं बल्कि कई एडल्ट्स के मुंह से भी सुना है। इस सवाल का जवाब भी हम आपको इस आर्टिकल में देंगे और ये जानकारी आपकी नॉलेज बढ़ाने के बहुत काम आ सकती है। तो इस आर्टिकल को अंत तक पढ़िएगा।

कैसे होती है नोटों की छपाई?

कुछ समय पहले सोशल मीडिया पर एक फोटो फॉरवर्ड हो रही थी जिसमें कहा जा रहा था कि भारतीय नोटों की छपाई चीन में होती है। ऐसा बिल्कुल भी नहीं है, ये पूरी तरह से भारतीय प्रोसेस है और इसे कड़ी सुरक्षा के बीच किया जाता है। हर फाइनेंशियल ईयर में रिजर्व बैंक और फाइनेंस मिनिस्ट्री मिलकर ये तय करते हैं कि आखिर इस साल भारत में करेंसी का सर्कुलेशन किस तरह और कितना होगा। ये प्रोसेस बहुत जरूरी है क्योंकि ज्यादा करेंसी का फ्लो अर्थव्यवस्था के लिए बहुत खतरनाक साबित हो सकता है।

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नोटों की छपाई के लिए भारत में 1956 से ही 'मिनिमम रिजर्व सिस्टम' का पालन हो रहा है। जिसके तहत RBI को अपने कोष में 200 करोड़ या उससे अधिक रुपए नोटों की छपाई के लिए हमेशा रिजर्व रखने होते हैं।

भारत में नोटों की छपाई का काम 4 प्रिंटिंग प्रेस में होता है। इसमें से दो केंद्र सरकार के अंतर्गत आती हैं जो नासिक और देवास में हैं और अन्य दो को रिजर्व बैंक की सब्सिडरी 'भारतीय रिजर्व बैंक नोट मुद्रण' कंट्रोल करती है जो मैसूर और सालबोनी (पश्चिम बंगाल) में हैं।

इन चार प्रिंटिंग प्रेस को ऑर्डर्स मिलते हैं और नोटों की छपाई यहीं से शुरू होती है। इन ऑर्डर्स को इंडेंट (Indent) कहते हैं। ये साफतौर पर बताते हैं कि नोट कितने छापने हैं और कैसे छापने हैं।

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नोटों की डिजाइनिंग-

नोटों की डिजाइनिंग के लिए एक खास तरह के सुरक्षा पेपर की जरूरत होती है जिसमें नोटों की छपाई का काम होता है। ये हिंदुस्तान में सिर्फ दो ही जगहों पर होता है जहां सिक्योरिटी पेपर मिल है। ये हैं मध्यप्रदेश के होशंगाबाद और कर्नाटक के मैसूर में। भारतीय मुद्रा जिस पेपर में छपती है उसमें कई सुरक्षा फीचर्स सामने आते हैं जैसे 3D वाटरमार्क, माइक्रो लेटर्स, सिक्योरिटी धागे आदि। इन सब को एक टीम द्वारा डिजाइन किया जाता है और इस पूरे प्रोसेस में सिर्फ भारतीय नागरिक ही शामिल होते हैं।

नोटों की प्रिंटिंग-

एक बार नोटों की डिजाइनिंग का काम पूरा हो गया तो नोटों की पूरी शीट्स तैयार होती हैं, इसमें अलग-अलग सिक्योरिटी फीचर्स होते हैं। एक नोट शीट से 2000 के नोट के लगभग 20 नोट निकल सकते हैं। 2000 का नोट भारतीय मुद्रा का सबसे बड़ा नोट है। ये न सिर्फ वैल्यू में बड़ा है बल्कि ये लंबाई-चौड़ाई में भी सबसे बड़ा है।

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कितना खर्च होता है एक नोट की छपाई में?

भारतीय करेंसी में अलग-अलग तरह के नोट हैं जिनकी छपाई का खर्च भी अलग होता है। ये सारा डेटा RBI के आंकड़ों के हिसाब से ही है-

  • 10 रुपए के नोट को छापने में 0.96 रुपए का खर्च आता है।
  • 20 रुपए का नोट छापने में 1.5 रुपए का खर्च आता है।
  • 50 रुपए का नोट छापने में 1.81 रुपए का खर्च आता है।
  • 100 रुपए का नोट छापने में 1.79 रुपए का खर्च आता है।
  • 200 रुपए का नोट छापने में 2.93 रुपए का खर्च आता है।
  • 500 रुपए का नोट छापने में 2.94 रुपए का खर्च आता है।
  • 2000 रुपए का नोट छापने में 3.54 रुपए का खर्च आता है।

अब बारी उस सवाल की आती है जहां लोग ये पूछा करते हैं कि अगर एक नोट की छपाई में इतना कम खर्च होता है तो आखिर सरकार गरीबों को नोट क्यों नहीं दे देती? क्या इससे गरीबी खत्म नहीं हो सकती?

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आखिर क्यों जरूरत से ज्यादा नोट नहीं छाप सकती है सरकार?

क्या आपने वेनेजुएला या जिम्बाब्वे जैसे देशों के बारे में सुना है? ये देश जो प्राकृतिक संसाधनों से भरपूर हैं और वेनेजुएला के पास तो तेल के कुएं हैं वो आखिर गरीब कैसे हो गए? इतने गरीब कि वहां के लोगों के पास खाने-पीने के पैसे तक नहीं बचे और लोग भुखमरी का शिकार होने लगे। ये सब कुछ हुआ हाइपर इन्फ्लेशन (Hyper Inflation) के कारण। ऐसा तब होता है जब देश में पेपर करेंसी बहुत बढ़ जाती है और चीज़ों की डिमांड से ज्यादा हो जाती है। ऐसे में चीज़ों के दाम बढ़ने लगते हैं और कुछ सालों में ही 40 रुपए में मिलने वाली चीज़ 4 लाख की हो जाती है। आपको बता दूं कि जिम्बाब्वे और वेनेजुएला में एक कप कॉफी की कीमत 2.5 लाख रुपए से 10 लाख रुपए तक होती है। वहां लोगों के पास लाखों रुपए घरों में रखे होने के बाद भी रोज़ का खर्च चलाना मुश्किल होता है।

इसलिए पेपर करंसी अगर देश में ज्यादा हो जाए तो ये अर्थव्यवस्था पर बहुत भारी बोझ डालती है। अगर आपको ये स्टोरी अच्छी लगी तो इसे शेयर जरूर करें। ऐसी ही अन्य स्टोरी पढ़ने के लिए जुड़े रहें हरजिंदगी से।

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