क्या आपकी सोच बड़े बदलाव ला सकती है? पढ़िए आरती की ज़िन्दगी का एक और चैप्टर

आप ही मेरी मदद कीजिये। मैं दादी के प्रकोप से कैसे बचूं? सच बोल दूं या बहाना बनाऊं, और बनाऊं भी तो क्या बहाना बनाऊं?

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Entry-8

मेरा लैपटाप खुला था। अपने इस्तीफे का ई-मेल मैं लिख चुकी थी।

"आदरणीय मिलिंद सर,

मुझे ये चिट्ठी लिखते हुए बेहद खेद महसूस हो रहा है। लेकिन परिस्थितियां कुछ ऐसी बन गई हैं कि मैं हालात के चलते मजबूर हूं। मेरे इस ई-मेल को आप मेरा इस्तीफा समझकर स्वीकार करें।

आपके साथ इस कंपनी में काम करते हुए मुझे दो साल हो गए और इस समय में मैंने बहुत कुछ सीखा और जाना है। इसके लिए मैं आपका शुक्रिया अदा करना चाहती हूं।

थैंक्स

आरती अवस्थी"

चोपड़ा एंड चोपड़ा की सीनियर डिज़ाइनर, जिसने अभी-अभी एक बहुत बड़ी डील क्रैक की है, उसे आखिर इस्तीफ़ा क्यों देना पड़ा। पूरा मामला समझना हो तो मेरी डायरी का ये अंक ज़रूर पढ़ें।

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ई-मेल के सेंड बटन पर मैं कर्सर घुमा रही थी। "भेज दूं?" दूसरे हाथ से फोन पर शीतल से बात चल रही थी।

"सोच ले आरती। जल्दबाज़ी क्यों कर रही है? जब हाथ में दूसरी नौकरी होगी, तब लात मार देना मिलिंद की जॉब को।" शीतल पिछले आधे घंटे से यही रट लगा रही थी।

"बाद में छोड़ी तो वो असर नहीं आएगा यार। अभी छोडूंगी तो मिलिंद सर को झटका तो लगेगा" मैंने अभी घर पर किसी से इसका ज़िक्र भी नहीं किया था। सोचते सोचते ही इस्तीफा टाइप कर दिया। अब पता नहीं भेजूंगी भी या नहीं।

"उसको झटका देने से तुझे क्या फर्क पड़ता है गधी! " शीतल ही है जो मुझे जानवरों की हर जात-प्रजाति से संबो‍धित करती है। कभी मुझ पर प्यार आ जाए तो "मेरी बिल्ली!" कहकर बुलाएगी। कभी गुस्से में हो तो "कुत्ती!!!" और अब परेशान है मुझसे तो गधी बना दिया मुझे! लेकिन मैं शीतल की बात का बुरा नहीं मानती।

"घर पर खाली बैठना आसान नहीं है। मुझसे पूछ।" शादी से पहले शीतल मुझसे भी बढ़िया डिजाइनर थी। अगर आज वो चोपड़ा एंड चोपड़ा में होती तो शिखर गोयनका की डील उसी को मिली होती। पर शादी के बाद, शीतल के ससुराल वालों ने उसे नौकरी करने से मना कर दिया। जो लड़की बीमारी में भी ऑफिस आकर काम करना चाहती थी अब उसे घर पर बैठकर पति के ऑफिस से लौटने का इंतजार करना पड़ता है। इस बीच वो घर की सफाई करवाती है, धोबी से कपड़े इस्त्री करवाती है, सास की सेवा करती है, पति के पसंद का खाना बनाती है और फिर शाम को सज-सवर कर चाय पर उसका इंतज़ार करती है।

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"प्लीज़ शीतल, इतना मेलोड्रामा ठीक नहीं। सेठानी बनकर बैठी है, और ये सड़ी हुई नौकरी को मिस कर रही है।"

"दूसरों की ज़िंदगी हमेशा बेहतर लगती है बेटे, खुद पर बीतेगी ना तब पता चलेगा। दस मिलिंद को मिला दो तो मेरी एक सास के बराबर चालाक बनेगी" शीतल ने फुसफुसाया।

मैं हंस पड़ी। "यार आइ मिस यू। ऑफिस में अब लिपिका और मैं ही बच गए है। इतने आदमियों के बीच दो तीन लड़कियां! ये क्या बात हुई भाई। इनको लड़कियां हायर करने में क्या मुश्किल है?"

"हां तो ये बात कर ना तू अपने मिलिंद ..." शीतल कुछ बोल ही रही थी कि फोन से आवाज़ आनी बंद हो गई

"हेलो?? हेलो?" ओह फ़ोन बैटरी ही खत्म हो गई थी। अब ये चार्जर कहां है? लैपटॉप पर ही चार्ज पर लगा देती हूं... उफ्फ कहां गया इसका पोर्ट? मैंने लैपटॉप को थोड़ा टेढ़ा किया ही था कि मेरी उंगली टचपैड पर पड़ गई।

शू...!

इस आवाज़ को मैं अच्छे से पहचानती हूं। ई-मेल सेंड हो गया! "हे भगवान! ये क्या हो गया?"

मेरा दिल इतनी ज़ोर से क्यों धड़क रहा था? अब जब ई-मेल चला गया तो क्यों मैं इतना पैनिक कर रही थी जबकि अभी थोड़ी देर पहले मैं ही शीतल को समझा रही थी कि मुझे इस्तीफ़ा क्यों दे देना चाहिए। पर अब तो शीतल की बातें याद आ रही थी मुझे...इतना बड़ा प्रोजेक्ट मिला था...मेरे करियर के लिए कितना फायदेमंद होता ये...मिलिंद सर को क्या फर्क पड़ेगा, वो तो चाहेंगे ही कि मैं इस प्रोजेक्ट से हट जाऊं! घर पर किसी को बताया भी नहीं, मैंने ये क्या कर दिया?

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"आरती!" मम्मी ने बाहर से आवाज़ लगाई। " आरती सुन तो ज़रा"

गहरी सांस लेकर मैं अपने कमरे से बा‍हर निकली, बैठक में देखा तो ऋषभ भैया आये हुए थे।

"इसने बताया आपको?" ऋषभ ने मुझसे नज़रें नहीं मिलाई और मम्मी से मेरी बुराइया करने लगा। "मैं ऐसे ही इतना परेशान हूं और ये मुझे सुनाकर चली आई, बदतमीज़ कहीं की।"

"भैया, ऐसा तो कुछ नहीं था, मैं खुद भी बहुत परेशान हूं। भाभी कैसी है?"

"रहने दो तुम लोग, किसी को फर्क पड़ता है? मां, तुम आ रही हो या नहीं?" ऋषभ भैया मम्मी को ले जाने आये थे?

भाभी की तबियत और उनके और दादी के झगडे के बारे में यहां पढ़ें-

"देख ऋषभ, तेरी दादी बहुत नाराज़ है, मैं तेरे यहां गई तो उनको बहुत ठेस पहुंचेगी। मैं उनको दुखी नहीं करना चाहती। लेकिन तू भी तो उनको विलियन मत समझ ना, वो दिल से किसी का बुरा नहीं चाहती। पता है उन्होंने सुरभि के लिए कल मुझसे बोलकर सरगी मंगवाई है, साथ ले जाना तू" मम्मी भैया को प्यार से समझाने की कोशिश कर रही थी, लेकिन भैया का मूड तो बिगड़ा हुआ ही था।

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"ऐसी हालत में सुरभि को करवा चैथ का व्रत रखवाएंगी आप दोनों? अपनी सरगी अपने पास रख लो। आपने हमेशा से दादी की चमचागिरी की है मां, अपने दिमाग से नहीं सोचा..." ऋषभ भैया इतना कड़वा बोलने लगेंगे मुझे पता नहीं था।

"भैया! मम्मी से इस तरह से बात मत करो..." मैंने टोकने की कोशिश की पर भैया का गुस्सा तो आसमान छू रहा था। "चुपकर!" भैया ने ज़ोर से बोला।

मैं जवाब में कुछ बोलने ही वाली थी कि इतने में घर का लैंडलाइन फ़ोन बज पड़ा।

"हेलो, ये क्या बकवास है आरती?" फ़ोन पर मिलिंद सर थे

"सर आप?"

"इस्तीफ़ा भेज दिया? और फिर फ़ोन भी स्विच ऑफ कर दिया हैं? क्या? सोच क्या रही हो?" इतना तो पक्का था कि मिलिंद सर को झटका लगा है। ये सोचकर मुझे थोड़ी सी तसल्ली तो हुई।

"बात वो नहीं है सर"

"अरे, तुम मेरी इतनी सी बात का बुरा मान गई? ऐसे थोड़ी होता है? आरती तुमने तो शिखर गोएंका को इम्प्रेस कर दिया अब छोड़ना चाहती हो ये प्रोजेक्ट? "शिखर गोयनका को कैसे समझायेंगे मिलिंद सर? उन्होंने तो साफ़ कर दिया था कि इस प्रोजेक्ट को मैं करुंगी और हर मीटिंग में मेरा होना जरूरी है। ऐसे में मेरा कंपनी छोड़ना मिलिंद चोपड़ा के लिए भारी पड़ सकता है।

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"सर, मैंने ही इसपर इतनी मेहनत की है, और मैं तो इसको पूरा करना ज़रूर चाहती हूं, लेकिन...."

"अरे पर-वर भूल जाओ। मुझे पता है तुमने कितनी मेहनत की है, तुम तो हो ही मेहनती। आरती वैसे तुम्हारा प्रमोशन भी तो होना है, साथ में पैसे भी बढ़ने है। अब शिखर जी का प्रोजेक्ट तुम ही तो लीड करोगी ना? हैं आरती? करोगी ना?"

अब ऊंट पहाड़ के नीचे था... इस समय मिलिंद चोपड़ा मुझे नहीं खोना चाहेंगे। मौका सही था। " मिलिंद सर, बात सिर्फ आपकी बात का बुरा लगने वाली या पैसों की नहीं है। हमारे ऑफिस का ढंग ही अजीब है। आप ही बताइये कोई ऐसा ऑफिस होगा, जिसमें महिला एम्प्लाइज की इस तरफ बेकद्री होती हो? और होगी क्यों नहीं, महिला एम्प्लोयी है ही कितनी?"

"तुम सही बोल रही हो आरती...पर देखो इसके लिए काम छोड़ने की ज़रुरत नहीं है। अब देखो तुम टीम लीड हो इस प्रोजेक्ट की, अपनी टीम बनाओ, ले आओ और वीमेन टीम मेंबर। मैं तुमको खुली छूट दूंगा।"

मैं चुप रही

"सोच लो आरती, ऐसा ऑफर नहीं मिलेगा तुम्‍हें। बाकी तुम्हारी मर्ज़ी," ऐसा कहकर मिलिंद सर ने फ़ोन रख दिया।

"सब ठीक है?" मम्मी ने धीरे से पूछा

"हां, अब ठीक है," मैंने मुस्कुराकर कहा।

चलो एक मुसीबत तो टली, मजे की बात यह थी कि इस्तीफ़ा दे भी दिया और उसका असर भी देख लिया। अब दूसरी मुश्किल सामने थी, ऋषभ भैया की मजबूरी।

"मां, एक बार देख आओ भाभी को, दादी को मैं संभाल लूंगी" मैंने मां का हाथ पकड़ कर कहा।" खुद सरगी दे आओ, भाभी को अच्छा लगेगा"

मां तो शायद मेरा ये कहने का इंतज़ार ही कर रही थी, जैसे ही मैंने दादी को संभालने की बात की, मम्मी जल्दी से चप्पल पहनकर, हाथ में सरगी का थैला लिए तैयार हो गई

"शाम को छोड़ जाना मां को," मैंने ऋषभ भैया को जाते-जाते बोला।

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दादी दिन में सोती हैं, अब उनके उठने में 1 घंटा और है। मां एक घंटे में तो वापस आने से रही। तो दादी के उठने के बाद मुझे कोई ना कोई बहाना बनाना पड़ेगा, की मां कहां है?

आप ही मेरी मदद कीजिये। कैसे बचूं मैं दादी के प्रकोप से? सच बोल दूं या बहाना बनाऊं, और बनाऊं भी तो क्या बहाना बनाऊं? आप मुझे यहां कमेंट करके ज़रूर बताइये, और ये भी की आपको मेरी डायरी पसंद आ रही है या नहीं? आप अपने कमेेंट इसे लिंक को क्लिक करके कर सकते हैं।

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